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कन्नड़ फ़िल्म ‘कंतारा’ (2022) में एक व्यक्ति के अंदर अन्याय के विरुद्ध लड़ने के लिए दैवीय शक्ति आ जाती है। उस पर कोई तलवार, कोई गोली असर नहीं करती। विश्व इतिहास में ऐसी घटनाएँ अलग-अलग रूप में कई बार हुई, जिसमें जनता में ऐसा विश्वास जग गया।
पचास के दशक में केन्या के आदिवासियों ने माउ-माउ क्रांति की, जिसमें वह महज कुछ लाठियाँ लेकर ब्रिटिश बंदूकों से लड़ने निकल जाते। उन्हें लगता कि ये गोलियाँ उनका कुछ बिगाड़ नहीं पाएगी, और वाकई वे इतने झटके में हमला करते कि उन्हें हराना कठिन हो जाता।
बीसवीं सदी की शुरुआत में तंजानिया में माजी-माजी क्रांति हुई, जिसमें आदिवासियों ने एक ऐसा रसायन बनाया जिससे जर्मन गोलियाँ पानी में बदल जाएगी! यह रसायन महज अरण्डी के तेल (कैस्टर ऑय्ल) और बाजरे को मिला कर बना था, और यह बात बकवास थी। लेकिन, वे सिर्फ़ इस विश्वास से लड़े, और काफी हद तक जर्मनों के छक्के छुड़ा दिए।
जो चीन में उन दिनों क्रांति हुई, उसमें ऐसे अंधविश्वास तो थे ही, साथ-साथ कुछ ऐसे तत्व भी थे जो भारत में 1857 में दिखे। भले इस बात से असहमत हुआ जाए कि नहीं! दोनों अलग थे। वह तो खैर थे ही। लेकिन, इन परिस्थितियों पर ग़ौर करें-
‘यह ललकार कि अस्तित्व बचाने की आखिरी लड़ाई है। अपनी संस्कृति की रक्षा करो, और इन फिरंगियों को मार भगाओ! जो जहाँ मिले, उसे मार डालो। उनकी संपत्तियाँ लूट लो या जला डालो।
आखिरी रेंगता-लड़खड़ाता राजवंश भी इस जन-विद्रोह में आशा की किरण देखने लगा। वह पहले बाग़ियों से कुछ छिटके, फिर उनका साथ दिया और अंत में बुरी तरह बेइज्जत होकर हारे। उन्होंने बाग़ियों का साथ देने की ऐसी सजा पायी कि अपना अस्तित्व ही खो बैठे।’
हम बात कर रहे हैं चीन के बॉक्सर विद्रोह (1899-1901) की।
1899, शाडोंग प्रांत, उत्तरी चीन
‘हाँ! ठीक है। लाठी कुछ और तेज घुमाओ। मन में दैवीय शक्तियों का ध्यान करो। यह कलाबाज़ी नहीं, साधना है।’, एक लंबी चोटी वाला व्यक्ति दर्जनों युवाओं को निर्देश दे रहा था।
ये स्वयं को इहोचुआन कहते थे। इसका अर्थ है- आदर्श लयबद्ध मुट्ठी। उनकी नज़र में यह मार्शल आर्ट किसी व्यक्ति को इतना ताकतवर बना सकता था कि उस पर न तलवार का असर होगा, न गोली का। यह शक्ति दिखाने के लिए ये एक-दूसरे पर कोड़े बरसाते, आग में कूदते, और उनका कुछ नहीं बिगड़ता। संभवतः वे ऐसी मनोस्थिति में पहुँच जाते होंगे कि उन्हें दर्द नहीं होता होगा। तलवार और गोली का असर तो खैर होगा ही। पश्चिम के लोगों ने उन्हें पागल और जंगली बॉक्सर (मुक्केबाज़) कहा। ऐसा कहने की उनकी निजी वजह भी थी।
इहोचुआन गुरु कहा करते, ‘हमारे गाँवों में ये पादरी घुस आए हैं। लोगों को बहला-फुसला कर, अफ़ीम खिला कर ईसाई बना रहे हैं। इससे पहले कि ये हमारी संस्कृति खत्म कर दें, इन्हें खत्म कर दो।’
बेरोजगार चीनी युवाओं की इस टोली ने गिरजाघर जलाने और पादरियों को मार कर पेड़ पर लटकाना शुरू कर दिया। जर्मन, इतालवी, फ्रेंच, ब्रिटिश जो जहाँ मिले मारे गए। यहाँ तक कि जापानियों पर ग़ुस्सा फूट पड़ा, और उनके भी गले काट दिए गए। हज़ारों चीनी जिन्होंने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया था, उनको सामूहिक रूप से सजा दी गयी। उनके कपड़े उतार कर, क्रॉस को जूतों से मसल कर, बेइज्जत किया गया। जिन्होंने विरोध किया, वे तो खैर मारे गए।
संभव है कि ब्रिटिश संस्मरणों ने इनमें अतिशयोक्ति की हो, और जान-बूझ कर इन लोगों को क्रूर दिखाया हो। लेकिन, चीनी संस्मरण भी इन्हीं किस्सों को बाग़ी तेवर कह कर उचित ठहराते दिखते हैं।
वे कहते- ‘इन फिरंगियों ने हमारी सरकार पर इतना जुर्माना डाल दिया कि हमारे खून चूस कर वह चुकाया जा रहा है। आज हमारे घरों में अनाज नहीं बचा, युवाओं के पास नौकरी नहीं। सरकारी खजाना खाली हो चुका है। इन्होंने हमें कंगाल कर के छोड़ा है…ये अब रेल लेकर आए हैं। हमारी मदद के लिए नहीं। बल्कि इसलिए कि हमें जल्द से जल्द लूट सकें। हमारे लोगों को बंदूक की नोक पर या किसी भूखे को दो निवाले देकर ईसाई बना सकें। लेकिन ये भूल रहे हैं कि हमारे पास दैवीय शक्ति है, जो हमारे पूर्वजों ने हमें दी है। उस शक्ति से हम इनका खात्मा कर देंगे।’
उत्तरी चीन से विदेशियों का सफाया करते हुए ये राजधानी बीजिंग की तरफ़ बढ़ने लगे। इनका इरादा चीन के राजा से मदद लेने का नहीं था। उन्हें तो मालूम ही था कि राजा खुद विदेशियों पर आश्रित है। उन विद्रोहियों का एक मुखिया स्वयं को मिंग-वंशी कहता था। उसने नारा दिया,
‘उखाड़ फेंकेंगे इस चिंग को। वापस लाएँगे मिंग को’
बहरहाल, राजमाता सीजी इन विद्रोहियों से संबंध साधने लगी। उसे लगा कि अगर विद्रोही सफल हो गए तो वाकई ये फिरंगी चीन छोड़ कर भाग जाएँगे। वापस उसका राज स्थापित हो जाएगा। ऐसी सोच सन सत्तावन के उन नारों में भी दिखती है जो ब्रिटिशों को भगा कर मुगलों के राज का स्वप्न देखते थे।
बाग़ी बॉक्सर रेल की पटरियाँ उखाड़ते हुए, यूरोपीय कार्यालय जलाते हुए राजधानी में उत्पात करते हुए बढ़ रहे थे। बीजिंग में फॉरबिडेन पैलेस में राजपरिवार के लोग रहते थे। यूरोपीयों की रेजीडेन्सी (Legation Quarter) फॉरबिडेन पैलेस की तरह ही लगभग ढाई वर्ग मील में क़िलाबंद थी। उस क़िले के अंदर उनके गिरजाघर, उनकी दुकानें, उनके रेस्तराँ आदि सभी मौजूद थे। चीनी आम जनता को न फॉरबिडेन पैलेस जाने की इजाज़त थी, और न ही इस यूरोपीय रेजीडेन्सी में।
बाग़ियों ने इस यूरोपीय बस्ती को घेर लिया और उनकी नाकाबंदी कर दी। अब भोजन या कोई भी सामान अंदर नहीं जा सकता था। उस समय राजमाता सीजी को लगा कि ये बाग़ी तो ज़ंग जीत गए। यूरोपीयों को क़ैद कर लिया। उसने जोश में घोषणा कर दी कि वह बाग़ियों के साथ है, और यूरोपियों के साथ युद्ध का ऐलान करती है।
फिर क्या था?
भारत में तो एक ब्रिटिश थे जो दमन करने आए। चीन में कुल आठ छोटे-बड़े देशों की सेना पहुँच गयी। ब्रिटेन, फ्रांस, जर्मनी, ऑस्ट्रिया-हंगरी, अमरीका, रूस, जापान, इटली इत्यादि के लगभग बीस हज़ार सैनिक चीन में घुस गए। ऐसी छाती जिस पर तलवार-गोली का असर न हो, यह तो मुमकिन ही नहीं। बॉक्सरों का बेरहमी से कत्ल-ए-आम किया गया। कई चीनी नागरिक जो विद्रोह में शामिल नहीं थे, उनको भी यह दमन भोगना पड़ा। उत्तरी चीन के गाँवों को जला दिया गया। लोगों को क़तार से पेड़ पर लटका दिया गया।
और राजपरिवार का?
उन्होंने अफ़ीम युद्ध में तोड़े गए समर पैलेस को नया-नया खड़ा किया था। सुंदर बगीचे और गुंबद बनाए थे। यूरोपीय सेना ने बच्चों के रेत-महल की तरह इसे एक बार फिर टुकड़े-टुकड़े कर दिया। बौद्ध स्तंभों को तोड़ा गया, और मठों में उत्पात किया गया।
इस बार राजपरिवार पर आज के साठ बिलियन डॉलर से अधिक रकम का जुर्माना लगा। यह उन्हें अगले चालीस वर्षों में किस्त बना कर चुकाने कहा गया। यह अब तक लगे सभी जुर्मानों से अधिक था।
ख़ैर चालीस वर्षों तक कर्ज तो वे तब चुकाते जब वे इतने वर्षों तक टिक पाते। राजा और राजमाता कुछ ही वर्षों में चल बसे (या जहर देकर मार दिए गए)। चीन ग़रीबी और कमजोरी के उस चरम पर पहुँच रहा था, कि अब वहाँ से वापस लौटना लगभग असंभव था।
मगर वह वक्त कुछ और था। दुनिया बहुत तेज़ी से एक अलग दिशा में बढ़ रही थी। कार्ल मार्क्स नामक एक व्यक्ति का लिखा ‘कम्युनिस्ट मैनिफैस्टो’ अलग-अलग भाषाओं में अनुवाद हो रहा था। जैसे जापानी में।
जापान ने कई चीनी बुद्धिजीवियों को शरण दिया था, जो चीन में तख़्ता-पलट की योजना बना रहे थे। 1904 में कियु जिन (Qiu Zin) नामक एक महिला के हाथ यह मैनिफ़ेस्टो लगा। उसने महिलाओं को एकजुट कर एक क्रांति की योजना बनायी। उस समय चीन में महिलाओं को गृहणी बन कर ही रहना होता था। क्रांति का तो खैर प्रश्न ही नहीं। लेकिन कियु जिन ने एक अपना मैनिफ़ेस्टो लिखा- “चीन की बीस करोड़ महिला साथियों के नाम”
चीनी शाही सेना द्वारा कियु जिन को गिरफ़्तार कर शाओजिंग नगर के बीच चौराहे पर गला काट दिया गया। उसकी आखिरी कविता की पंक्तियाँ थी-
‘मेरी मृत्यु का कोई महत्व नहीं,
सिर्फ़ मेरा राष्ट्र बचा रहे’
उस समय एक चीनी ईसाई डॉक्टर सन यात सेन अमरीका और यूरोप में घूम-घूम कर क्रांति की योजना बना रहा था। वहीं चंगशा प्रांत के एक गाँव में चौदह वर्ष का किशोर माओ-त्से-तुंग अपने अक्खड़ मिज़ाजी पिता की बेंत खा रहा था।
(आगे की कहानी खंड 6 में)
In Part 5 of Modern China series, author Praveen Jha narrates about Boxer Rebellion in China.
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1 comment
खंड 6 का इंतज़ार है …..