वास्को डी गामा – खंड 1: आख़िरी क्रूसेड

Last crusade
यूरोप के लिए भारत का समुद्री रास्ता ढूँढना एक ऐसी पहेली थी जिसे सुलझाते-सुलझाते उन्होंने बहुत कुछ पाया। ऐसे सूत्र जो वे ढूँढने निकले भी नहीं थे। हालाँकि यह भारत की खोज नहीं थी। भारत से तो वे पहले ही परिचित थे। ये तो उस मार्ग की खोज थी जिससे उनका भविष्य बनने वाला था। यह शृंखला उसी सुपरिचित इतिहास से गुजरती है। इसके पहले खंड में बात होती है आख़िरी क्रूसेड की।

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1

एक समय तक पश्चिम में यह माना जाता रहा कि दुनिया का मानचित्र सपाट है। भूमध्य रेखा पर एक आग का बड़ा गोला है, और उसके दक्षिण में कोई नहीं रहता। वह ये भी मानते थे कि दुनिया का पचासी प्रतिशत हिस्सा धरती है, और मात्र पंद्रह प्रतिशत समुद्र है। लेकिन जैसे-जैसे दुनिया में पुनर्जागरण (रिनैशाँ) की जमीन बनती गयी, धारणाएँ भी बदलती गयी। 1453 ईसवी में जब कुस्तुनतुनिया पर इस्लाम कब्जा हुआ, तो वहाँ से भागते ईसाइयों के बक्से में एक किताब मिली। उस किताब में उन्हें पहला ढंग का मानचित्र मिला!

टॉलेमी का मानचित्र

हालाँकि यह मानचित्र टॉलेमी ने दूसरी सदी में ‘जियोग्राफ़ी’ नामक किताब में बनाया था, लेकिन इस पर ध्यान कम गया था। युद्धों में व्यस्त दुनिया में बारह सौ वर्षों तक इस पर कोई ढंग का काम हुआ ही नहीं। इसे देख पहली बार उन्हें नजर आया कि दुनिया में तो धरती तो छोटी सी ही है, आधी से अधिक पृथ्वी तो समुद्र है। लेकिन उस मानचित्र में अमरीका मौजूद नहीं था, श्रीलंका का आकार बड़ा था, और अफ्रीका के नीचे कोई समुद्र था ही नहीं। यानी अफ्रीका का कोई दक्षिणी छोर ही नहीं था, वह मानचित्र के अंत तक फैला था। हिंद महासागर किसी और महासागर से जुड़ा न होकर, चारों और जमीन से घिरी एक बड़ी झील जैसा नजर आता। हालाँकि इस मानचित्र में देशांतर (लॉन्गिच्यूड) और अक्षांश (लैटीच्यूड) का प्रयोग हुआ था। उस वक्त के लिए तो यह भी बड़ी चीज थी।

1459 ई. में वेनिस के एक संत फ्रा मॉरो ने टॉलेमी के मानचित्र और मार्को पोलो के जहाजी संस्मरणों के आधार पर एक नया और बेहतर मानचित्र गढ़ा, जिसमें अफ्रीका के नीचे एक पतली सी समुद्री धारा थी जो अटलांटिक और हिंद महासागर को जोड़ती थी। यूरोप को यह लगा कि अगर मानचित्र ठीक है तो अफ्रीका की परिक्रमा कर भारत पहुँचा जा सकता है। लेकिन मॉरो ने ऐसा किस आधार पर कहा था, यह कहना कठिन है। उसने किसी से सुना कि कोई नाविक बह कर अफ्रीका के नीचे से गुजरते हिंद महासागर में पहुँच गया था। लेकिन कोई ठोस सबूत नहीं था। यह बस कयास ही नजर आता है।

Map from Fra Mauro (source- wikimedia commons)

पुर्तगाल के राजा अफॉन्सो पंचम के समय अफ्रीकी तटों पर पुर्तगाली जहाज जाते रहे। लेकिन इतने दक्षिण नहीं पहुँच पाए कि उन्हें अफ्रीका का आखिरी छोर नजर आता। जब अफॉन्सो के बेटे राजा जॉन द्वितीय आए तो उन्होंने गद्दी संभालते ही अफ्रीका के तटों की खोज की योजना बनाई। एक नाविक डियोगो काओ पहले कॉन्गो तक पहुँचे, और फिर 1486 ई. में नामीबिया के केप क्रॉस तक पहुँच गए।  अगर वह बस पाँच सौ मील आगे जहाज ले जाते तो वह अफ्रीका के अंतिम छोर पहुँच जाते और भारत का रास्ता ढूँढ लेते। लेकिन सबके किस्मत में यह कहाँ लिखा होता है? डियोगो काओ अफ्रीका के पश्चिमी तटों पर भटकते-भटकते ही मर गए।

उसके बाद राजा जॉन ने बार्तोलोमू डायस नामक एक नाविक को इस मुहिम पर भेजा कि आखिर अफ्रीका का दक्षिणी छोर ढूँढा जाए। अगस्त 1487 ई. में वह इस मिशन पर निकला। आखिर चौदह सौ मील की लंबी यात्रा के बाद वह अफ्रीका के अंतिम छोर तक पहुँच गया। इस दौरान न जाने कितनी बार स्थानीय लोगों से भिड़ंत हुई, कितने तूफ़ान झेले। जब वह अंतिम पहाड़ी तक पहुँचा तो उसकी सारी रसद खत्म हो चुकी थी। अब अगर वह वापस न लौटता तो भूखा मर जाता। और-तो-और यह दक्षिण का आखिरी बिंदु वाकई ‘पागल समुंदर’ था, जहाँ जहाज छिन्न-भिन्न हो जाता। हताश डायस ने इसका नाम रख दिया- ‘केप ऑफ स्टॉर्म्स’। लेकिन जब वह आखिर पुर्तगाल लौटा तो उसकी हताशा में ही यूरोप को आशा नजर आयी। टॉलेमी का मानचित्र ग़लत सिद्ध हो चुका था। अफ्रीका का दक्षिणी छोर और हिन्द तक पहुँचने का रास्ता मिल चुका था। अफ्रीका की पूरी तट माप ली गयी थी। 

राजा जॉन ने कहा, “यह ‘केप ऑफ स्टॉर्म्स’ नहीं, यह भविष्य में ‘केप ऑफ गुड होप’ कहा जाएगा। हमने वह ढूँढ लिया जिसे दुनिया में कोई न ढूँढ सका। हमें खजाने का द्वार मिल गया है।”

[कोलंबस की यात्रा पर विस्तृत चर्चा पुस्तक इंका, एज्टेक और माया में ]

2

राजा जॉन ने अपने नायक डायस को एक आखिरी और मुकम्मल भारत की यात्रा के लिए तैयार किया। लिस्बन में जहाजों को फिर से सजाया-सँवारा जाने लगा। हालांकि यह बात गुप्त थी कि यह क्यों किया जा रहा है, लेकिन इतने वर्षों के इस पागलपन के बाद अब यह राज़ राज़ कहाँ रह गया था? सब जानते थे कि पुर्तगाल का सारा धन आखिर कहाँ जा रहा है। एक ऐसे देश के समुद्री रास्ते की खोज में, जिसकी संभावित दिशा ही स्पष्ट नहीं। कोई कहता है कि पश्चिम से जाना चाहिए, कोई पूरब से। तभी सबकी जान में जान आयी जब राजा जॉन चल बसे। अफ़वाह यह थी कि हत्या जहर खिला कर की गयी और इसके पीछे थे राजा जॉन के अपने साले और उत्तराधिकारी मैनुएल प्रथम्। इस साजिश के पीछे भी एक लंबी कहानी थी कि राजा जॉन ने उसके भाई की हत्या करवाई थी, और यह दरअसल एक प्रतिशोध था। लेकिन जो भी हो, छब्बीस वर्ष का युवा मैनुएल प्रथम् अब पुर्तगाल का राजा था।

मैनुएल प्रथम् को देख कर यह कहना कठिन था कि वह एक षडयंत्र रच सकता था। वह तो भोजन में तेल तक नहीं डालता था। उसे सुंदर पोशाकों का शौक था, और राज-पाट में ख़ास रुचि न थी। लेकिन भाग्य ने ऐसा पलटा खाया कि वह न सिर्फ राजा बना, अपने मृत भांजे अल्फॉन्सो की विधवा और स्पेन की सुंदर राजकुमारी इजाबेला का हाथ भी तोहफ़े में मिल गया।

यह इजाबेला जितनी सौम्य दिखती थी, उतनी थी नहीं। उसने विवाह के समय ही शर्त रख दी कि देश में न एक यहूदी बचे, न मुसलमान। यहूदियों का स्पेन से सफाया तो पहले ही हो चुका था, लेकिन पुर्तगाल में वे दिमागी और इज्जतदार लोग थे। 5 दिसंबर 1496 ई. को यह फतवा जारी किया गया कि जितने भी यहूदी हैं, वे ईसाई बन जाएँ या देश छोड़ कर चले जाएँ। एक बार फिर यहूदियों का पलायन आरंभ हुआ। मुसलमानों को भी ढूँढ-ढूढ कर भगाया गया। एक साल के अंदर राजा मैनुएल प्रथम् ने घोषणा कर दी कि स्पेन की तरह पुर्तगाल भी अब पूर्णतया ईसाई देश है।

मैनुएल यूरोप का नया मसीहा बन कर उभरा जब उसने कहा, “मुझे ईश्वर ने आदेश दिया है कि हम जेरुसलम को वापस लाएँगे, और पूरी दुनिया पर पवित्र क्रॉस का झंडा फहराएँगे। हम यह आखिरी धर्मयुद्ध लड़ेंगे और दुनिया से काफ़िरों का अंत करेंगे।”

जो जनता इस पागलपन का विरोध कर रही थी, उन्हें चुप करा दिया गया। जब धार्मिक उन्माद का डंका बजता है तो मनुष्य की आवाज कहाँ सुनाई देती है? अपने परमेश्वर के लिए तो वे सब-कुछ न्यौछावर करने को तैयार थे। यह तो बस जहाजों को भारत भेजने की बात थी। जो काम जॉन के मृत्यु के बाद धीमा पड़ गया था, वह नए जोश से पुन: जागृत हो गया। लेकिन मैनुएल ने अपना कमांडर बदल दिया। नाविक बार्तोलोमू डायस, जिसने यह मार्ग ढूँढा था, उसे ही पदच्युत कर दिया गया।

इसका कारण यह भी था कि अब नाविक से आगे की बात थी। मात्र भारत पहुँचना उद्देश्य नहीं था, भारत के माध्यम से धर्मयुद्ध करना था। अरबी मुसलमानों का भारत से व्यापार  बायपास कर, उनकी जीवन-रेखा को क्षीण करना था। जो सोना और मसाले अरबी ले जाते थे, उसे यूरोप लाना था। यह कार्य एक नाविक के बस की नहीं थी। इसके लिए एक शातिर और दृढ़ योद्धा, कूटनीतिज्ञ, और जुझारू जहाजी की जरूरत थी। बार्तेलोमू डायस जैसा शोधी और अंतर्मुखी नाविक इसके लिए अनुपयुक्त था।

आखिर वह उपयुक्त कमांडर कौन होगा जो लड़ेगा आख़िरी क्रूसेड?

(खंड 2 में पढ़ेंगे आगे की कहानी)

Part 1 of Vasco Da Gama series describes the story of world maps and political conditions in Portugal which gave impetus to the sea voyages to far away lands, especially India.

8 comments
  1. बहुत बढ़िया सीरीज़। ब्लॉग प्लेटफ़ॉर्म में होने से तरतीबवार पढ़ने में आसानी होती है और आनंद भी आता है।
    बहुत-2 धन्यवाद।

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