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यूँ तो दुनिया बदलती रहती है, लेकिन सबसे कठिन कार्य है दुनिया को बदलना। जीवन में एक मामूली बदलाव भी आदमी इतनी आसानी से नहीं कर पाता। मेरे एक मित्र ने मुझे एक कीबोर्ड सुझाया, जिससे मेरी टाइपिंग गति दोगुनी हो जाएगी। मैंने वह कीबोर्ड प्रयोग किया, और फिर वापस करते हुए कहा- ‘इसकी आदत नहीं मुझे। बहुत दिक़्क़त आ रही है। पहले वाला ही ठीक है।’
अब सोचिए कि चीन जितने बड़े देश को बदलना कितना मुश्किल होगा। सदियों से लगभग एक जैसे जीवनशैली जी रहे चीनी लोग अचानक कैसे पश्चिम की चाल-ढाल में ढल जाते? लेकिन, सभी पश्चिमी शक्तियों और जापान से हार के बाद उनके पास विकल्प क्या था?
बीजिंग, 1898
चीन की गद्दी पर एक सत्ताइस वर्ष का युवा राजा गुआंग्जू (Guongzhu) बैठा था। उसके मन में बदलाव की इच्छा तो थी, मगर उसकी सौतेली माँ सीजी (Cixi) उसके हाथ रोक कर रखती थी।
उन दिनों दरबार में एक प्रबुद्ध व्यक्ति हुआ करता कांग युवेई (Kang Yuowei)। उसने राजा से कहा,
“महामहीम! हम सिर्फ़ अपने हथियारों को उन्नत कर या कुछ अंग्रेज़ी किताबें लाकर राज्य को नहीं बदल सकते। हमें राज्य में आमूल-चूल बदलाव करने होंगे। हमें पश्चिम की बजाय जापान से सीखना चाहिए। उनकी संस्कृति हमसे मिलती है।”
“मगर जापान भी तो पश्चिम की राह पर ही है”, राजा ने कहा
“उन्होंने पश्चिम से कुछ सीखा है, लेकिन संस्कृति नहीं बदली। उन्होंने शोगन का राज ख़त्म किया।”
“देखिए! राज करने की इच्छा तो मुझे भी नहीं। यूँ भी हम पश्चिम की कठपुतली बन कर ही तो बैठे हैं। उनके फ़ौजी बीजिंग के चौराहों पर घूमते रहते हैं। लेकिन, अगर हमने अपने पूर्वजों का यह पद त्याग दिया, तो क्या यह राज्य के लिए उचित होगा?”
“नहीं, नहीं! उसका तो प्रश्न ही नहीं उठता। राजा-रानी तो इंग्लैंड में भी हैं, जापान में भी हैं मगर…”
“मगर हम शक्ति आप जैसे बुद्धिजीवियों के हाथ में दे दें। यही न? ऐसे संसद की बात तो रूस में भी चली। क्या वह सफल है?”
“अगर संविधान से देश चले तो राजतंत्र कायम रह सकता है। दुनिया में ऐसे बदलाव हो रहे हैं।”
“इंग्लैंड, जर्मनी या जापान जैसे राज्य हमारे राज्य के सामने बहुत छोटे हैं। वहाँ की जनसंख्या कम है, लोगों की सोच भिन्न है।”
“आप पहल तो शुरू करें। यह धीरे-धीरे ही हो, मगर जनता को कुछ तो आशा की किरण दिखेगी”
“इस संवैधानिक राजतंत्र (Constitutional Monarchy) का ख़ाका आप तैयार करें। अगर यह सर्वथा उचित लगेगा, तो मुझे कोई आपत्ति नहीं”
11 जून 1898 को राजा ने इस नए संवैधानिक ढाँचे की मंज़ूरी दे दी। इंपीरियल परीक्षा की व्यवस्था खत्म कर दी गयी, जिसके कारण कुछ लोग बहुत शक्तिशाली होते जा रहे थे। पूँजीवाद और विज्ञान की राह पकड़ने की व्यवस्था की गयी। एक चुनावी ढाँचे की बातें भी चलने लगी। मुमकिन है कि अगर चीन इस दिशा में आगे बढ़ता तो आज चीन की सूरत अलग होती।
लेकिन, इस प्रक्रिया में एक नहीं, कई कीबोर्ड बदलने थे। चीन के तमाम रूढ़िवादियों की सोच बदलना लगभग असंभव था। इस रास्ते का सबसे बड़ा रोड़ा तो स्वयं राजमाता सीजी ही थी। अभी तीन महीने से कुछ अधिक ही गुजरे थे कि राजा को नज़रबंद कर दिया गया।
सीजी ने दरबार में राजा को डाँटते हुए कहा,
“इस आकाश के नीचे जो कुछ भी है, वह हमारा नहीं कि जब मर्ज़ी चीजें बदल दें। हमें ईश्वर के आदेशों पर ही चलना है। जब आकाशवाणी होगी, तो आप स्वयं अपनी गद्दी त्याग देंगे।
यह मत भूलिए कि आपने यह पद हासिल नहीं किया। आपको ईश्वर ने यह पद दिया है। यहाँ चुने गए एक-एक मंत्री हमारे द्वारा चुने गए। यानी वे भी उन्हीं के आदेश से हैं। यह कांग युवेई कौन होता है इनको पदच्युत करने वाला?
अपने पूर्वजों के बनाए नियम तोड़ना कितना बड़ा अपराध है, आप जानते हैं? आप सभी लोग बताएँ कि कौन अधिक महत्वपूर्ण है- हमारे पूर्वज या वह कांग युवेई?”
इस तरह इस बदलाव की आग को ठीक 103 दिनों के बाद 22 सितंबर 1898 को शाही जूतों से रौंद कर बुझा दिया गया। यह चीन इतिहास में सौ दिनों का सुधार (Hundred day reform) कहलाता है। मात्र सौ दिनों का।
ज़ाहिर है कि इसके सूत्रधार कांग युवेई को देश छोड़ कर भागना पड़ा। वह जापान जाकर छुप गया।
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अगले वर्ष दिसंबर 1899 में कड़ाके की ठंड थी। शीतकालीन दक्षिणायन (Winter Solstice) चीन का ऐसा राज्योत्सव था, जो सदियों से मनाया जा रहा था। दूर-दूर से जनता आकर राजा का अभिवादन करती, गीत-नृत्य होते, और अपने पूर्वजों को श्रद्धांजलि अर्पित की जाती।
उस दिन भी सोलह कहार राजा गुओंग्जू को पालकी पर बिठा कर उनके फॉरबिडेन सिटी महल से ले जा रहे थे। तियानमेन द्वार पर जब जनता ने उनका पहला दर्शन किया, वे ज़मीन पर लोट गए। उस दिन राजा को एक सुसज्जित हाथी के ऊपर बिठाया गया, जो दक्षिण चीन से लाया गया था।
राजा ने पीले वस्त्र पर एक नीला रेशमी ओवरकोट डाल रखा था। सर पर ऊनी टोपी जिस पर रेशम की पट्टियाँ लगी थी और किनारों पर मोती जड़े थे। उसके दोनों तरफ़ घोड़ों पर शाही हिजड़े चल रहे थे। उसके पीछे तेंदुए की छाल की तरह वस्त्रों में गार्ड चल रहे थे। उनके पीछे शाही सैनिकों की क़तारें थी। कई लोग हाथ में ड्रैगन वाली पतंग बाँधे हुए उस क़ाफ़िले का हिस्सा बने थे। तमाम शाही परिवार के लोगों और उच्च अधिकारियों के अपनी औक़ात के हिसाब से छोटे-बड़े क़ाफ़िले भी साथ थे।
यह विशाल जनसमूह दक्षिण बीजिंग के संगमरमर पुल को पार करते हुए एक मंदिर में प्रवेश कर रहा था। यह स्वर्ग का मंदिर (Temple of heaven) कहलाता था। विदेशियों को यह हिदायत दे दी गयी थी, कि वे इस प्रक्रिया का हिस्सा नहीं बन सकते। बल्कि मंदिर के अंदर राजा और उसके ख़ास लोग ही प्रवेश कर सकते थे।
राजा गुओंग्जू मंदिर के दरवाज़े पर पहुँच कर अपने पूर्वजों को याद करने लगा। दो सदियों पहले चिंग वंश की स्थापना हुई थी, और एक सदी पूर्व इसका विस्तार दुनिया के कई देशों से अधिक था। चिंग राजा करोड़ों लोगों का अकेला राजा था। कभी चीन के जहाज़ एशिया के दूसरे देशों का मुआयना कर रहे थे और उनका स्वप्न था कि वे एक दिन दुनिया पर राज करेंगे।
मगर उस दिन वहाँ एक पराजित और हताश राजा खड़ा था। वह दो अफ़ीम युद्धों के साथ-साथ जापान से युद्ध हार चुका था। उसके देश में विदेशियों का प्रवेश गाजे-बाजे के साथ हो चुका था। वह खुद एक फ़्रेंच चिकित्सक की सेवा ले रहा था, जिसने कहा था कि उसके दोनों गुर्दे खराब हैं। वह अब ज़्यादा दिन नहीं जी पाएगा। वह अपनी सौतेली माँ से दबा हुआ नज़रबंद जीवन जी रहा था, और यहाँ उसे एक कठपुतली की तरह खड़ा किया गया था।
अट्ठाइस वर्ष के मरणासन्न राजा ने अपनी प्रजा को संबोधित करते हुए कहा,
“हम कामना करते हैं कि राज्य दिनानुदिन समृद्ध होता जाए। इसके लिए मैं राजमाता के अथक परिश्रम का आभारी हूँ, जिन्होंने बचपन से अब तक हर कदम पर मेरा मार्गदर्शन किया। आज इस मंदिर की सीढ़ियों पर पहुँच कर मुझे आशा है कि मेरी कामना अवश्य पूरी होगी”
वह सीढ़ियों से उस भव्य मंदिर के अंदर गया, जहाँ 450 फीट चौड़ी सीढ़ीदार वेदी थी। उसके ऊपर एक गोल पृथ्वी और उसके बाहर एक गुंबदाकार आकाश दिखाया गया था। उनका मानना था कि उनके पूर्वज वहाँ से देख पा रहे हैं।
काँसे की घंटिया बजने लगी। क़तार में लगे सोलह बड़े लटकते हुए पत्थर एक साथ हिलाए जाने लगे। इस गूँजती ध्वनि से वे पूर्वजों की आत्मा से संवाद कर रहे थे। वहीं प्रांगण में एक साँड बलि के लिए तैयार किया जा रहा था। पुरोहित एक प्राचीन पुस्तक से कुछ पढ़ रहे थे।
राजा स्वयं घुटने पर बैठ गया था और सामने पृथ्वी और आकाश के सामने नतमस्तक था। उसने कुछ रत्न, फल और माँस पूर्वजों को अर्पित किए।
राजा ने इस बार देवताओं को संबोधित करते हुए कहा,
“महान् चिंग वंश का राजा आपके समक्ष नतमस्तक है। हम सूर्य, चंद्र, ग्रहों और तारागण से, जल, आकाश और वायु से, समुद्र, नदियों और पर्वतों से, इस धरा की सभी पवित्र आत्माओं से, हमारे पूर्वजों से यह विनती करते हैं- हमें हमारे कर्मों का फल दें। हमारा यह तुच्छ अर्पण स्वीकारें।”
यह कह कर राजा ने तीन बार सर ज़मीन से लगाया, और नौ बार सर सामने झुकाया। उसके बाद वह अग्निवेदी के निकट गया जहाँ उसके पुरोहित खड़े थे। वहाँ सर झुका कर पूजा की। उसके बाद वह बग्घी पर सवार होकर अपने महल की ओर बढ़ गया। यह चिंग वंश का अंतिम अर्पण था। अंतिम विदा।
इसके बाद कभी कोई चीनी राजा यह पूजा नहीं कर सका।
In Part 4 of Modern China series, Author Praveen Jha describes the failure of hundred days reform and end of Chinese monarchy.
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