चीन खंड 3- नयी दुनिया और समुराई

China Japan War Poster
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चीन के लिए पश्चिमी दुनिया से कदमताल मिलाना आवश्यक था। लेकिन तियान्जिन और पीकिंग की संधि अफीम युद्ध में हरा कर की गयी। चीन की शर्मिंदगी में इज़ाफ़ा तब हुआ जब जापान से भी हार मिली। इस खंड में चर्चा है चीन पर पश्चिम के प्रभाव और जापान की

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हमें बहुत खुशी हो रही है कि दुनिया एक नये दौर में प्रवेश कर रही है। सिर्फ़ चीन साम्राज्य, बल्कि दुनिया के इतिहास में यह महत्वपूर्ण बिंदु है। मानव जाति के चालीस करोड़ लोग सभ्य दुनिया का हिस्सा बनने जा रहे हैं!”

  • हेनरी लोक (Henry Loch), बंगाल कैवेलरी, 1860, लंदन में एक वक्तव्य में

अफ़ीम युद्ध के बाद चीन के बाज़ार दुनिया के लिए और दुनिया के बाज़ार चीन के लिए पूरी तरह खुल गए। यह आज की खुली अर्थव्यवस्था और वैश्वीकरण जैसी बात थी। लेकिन जो शर्तें तय हुई, वह चीन के लिहाज़ से नहीं, बल्कि पश्चिमी देशों के हिसाब से थी।

तियान्जिन (बाद में पिकींग) संधि की शर्तें थी

  1. ब्रिटेन, फ़्रांस, अमरीका और रूस राजधानी बीजिंग में अपने दूतावास रखेंगे
  2. चीन के दस अन्य बंदरगाह इन देशों के लिए खुल जाएँगे
  3. यांग्तसे नदी में विदेशी जहाज़ आवागमन कर सकेंगे
  4. चीन के अंदरूनी इलाक़ों में विदेशी नागरिक आराम से जा सकेंगे
  5. ब्रिटेन और फ्रांस को चीन की तरफ़ से 80-80 लाख ताल (Tael=50 ग्राम) चाँदी मुआवज़ा मिलेगा
  6. कोवलून (Kowaloon) को ब्रिटिश हॉन्गकॉन्ग का हिस्सा बनाया जाएगा
  7. ब्रिटिश जहाजों में चीनी किसानमज़दूरों को अन्य उपनिवेशों में कॉन्ट्रैक्ट पर ले जाया जाएगा
  8. अफ़ीम का व्यापार क़ानूनी हो जाएगा

इनमें रूस ने एक शर्त और जोर दी कि वह चीन के समुद्री तट का एक हिस्सा लेंगे। उसी हिस्से में कुछ वर्षों बाद व्लादीवोस्तोक बनाया गया। 

कुल मिला कर इसमें कोई ऐसी बात नहीं थी कि चीन को अन्यसभ्य देशोंका हिस्सा बनाया जा रहा है। बल्कि वे सभी देश मिल कर चीन को कोने में धकेल रहे थे। जब इस संधि पर हस्ताक्षर हो रहे थे, उस समय चीन के ताइपिंग विद्रोही बीजिंग की तरफ़ बढ़ रहे थे।अगर वे राजधानी पहुँच जाते तो सारे प्लान का गुड़गोबर हो जाता।

उस समय ब्रिटिश और फ़्रेंच सेना ने चिंग राजवंश की सेना का साथ दिया। ताइपिंग विद्रोहियों को पहाड़ों में और गाँवों में ढूँढढूँढ कर मारा गया। अफ़ीम युद्ध से लेकर इस विद्रोह दमन तक दो करोड़ से अधिक लोगों की मृत्यु का आँकड़ा मिलता है। ज़ाहिर है इतने विद्रोही गुरिल्ले या सैनिक तो नहीं रहे होंगे, आम नागरिकों की मौतें हुई होगी। यह मारकाट पागलपन के किस हद तक था, इसका एक उदाहरण देखें। ताइपिंग विद्रोह के मुखिया होंग की 1864 में मृत्यु हो गयी थी। उसकी लाश को क़ब्र से निकाल कर पुनः तोप से बाँधकर उड़ाया गया!

ख़ैर, चीन के अंदर एक जिजीविषा भी रही है। वे मंगोलों के आक्रमण के बाद वापस लौटे। अफ़ीम युद्ध और ताइपिंग विद्रोह के बाद भी उन्होंने स्वयं को खड़ा करना शुरू किया। इसे तोंग्जी पुनर्निमाण (Tongzhi restoration) के नाम से जाना जाता है, जो उस समय बने राजा के नाम था। चीन ने पश्चिम से संपर्क को अपने बेहतरी के लिए इस्तेमाल किया। वे अपने हथियारों को पश्चिम की तरह बनाने लगे, शिक्षा को पश्चिम की शक्ल में ढालने लगे, और व्यापार को भी पश्चिम के अनुरूप बनाने लगे। कई चीनियों ने अमरीका और यूरोप की यात्रा की, और वहाँ की संस्कृति को समझना शुरू किया।

पश्चिम को बेहतर समझने के लिए अपने पहले राजदूत गुओ सांगताओ को ब्रिटेन भेजा। वहाँ पहुँच कर पहली महत्वपूर्ण चीज जोगुओ ने महसूस की, वह कुछ यूँ लिखी

रेलवे हमारे जैसे बड़े देश के लिए सबसे ज़रूरी चीज है। वह पूरे चीन में इस तरह दौड़े, जैसे हमारे शरीर में खून दौड़ता है

उस समय तक भारत में अंग्रेज़ रेल ला चुके थे, और इसका महत्व दिखने लगा था। लेकिन, चीन के शंघाई में यह अफ़ीम युद्ध के बाद 1876 में आना शुरू हुआ। अंग्रेज़ी को पाठ्यक्रम में शामिल कर पश्चिम से विज्ञान की किताबें लायी गयी। यह भी एक तरह का नवजागरण (रिनैशाँ) ही था।

चीन के अंदर तेज़ी से रहे पश्चिमी विचार वहाँ की जनता को दो भागों में बाँट रहे थे। पहले वे जो पश्चिम को श्रेष्ठ मान रहे थे, और उनकी नक़ल कर उनकी संस्कृति और उनकी भाषा अपनाना चाहते थे। दूसरी तरफ़ वे लोग थे, जो इस सांस्कृतिक बदलाव में चीन की हार देखते थे। उनका मानना था कि चीन अपनी संस्कृति संभाल कर भी पश्चिम को टक्कर दे सकता है। इन रूढ़िवादी और प्रगतिवादी खेमों का बँटवारा मोटे तौर पर ग्रामीण बनाम शहरी था। चीन के अधिकतर लोग अब भी गाँवों में ही थे, और वे चीन को वापस अपने पुराने रूप में देखना चाहते थे।

प्रगतिवादियों को अब यह सिद्ध करना था कि उनका तरीक़ा बेहतर है। आधुनिक हथियारों और तकनीक के साथ चीन अब वापस शक्तिशाली बनता जा रहा है। पश्चिम से व्यापार ने उन्हें आर्थिक रूप से बेहतर बनाया है। चिंग राजवंश का प्रशासन निखर रहा है। उनके परीक्षा की घड़ी भी जल्द ही गयी। उनके पड़ोसी छोटे से देश जापान ने हमला कर दिया।

चीनजापान युद्ध (1894-95) ने शर्मिंदगी के सौ साल में एक अध्याय और जोड़ दिया।

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दरअसल पश्चिमी शक्तियों ने जो रिनैशाँ लाया, बल अथवा बुद्धि से जो प्रभाव डाला, वह पूरे एशिया में लाया। उन्होंने हर बंद दरवाज़े पर दस्तक दे कर या तोड़ कर खुलवाया। चीन की तरह जापान के दरवाजे भी बंद थे। वहाँ विदेशियों को अंदर आने की इजाज़त नहीं थी। इस पॉलिसी को सुकोकू (sukoku) कहते थे।

वहाँ दो सौ वर्षों से एक फ़ौजी तानाशाही चल रही थी। जापान में एक राजवंश तो था, राजा भी था, लेकिन शक्ति केंद्रित थी सेनापति में ये सेनापति शोगन (shogun) कहलाते थे, जो खानदानी योद्धा होते थे। हालाँकि उन्होंने हमेशा राजा के अंदर ही काम किया। कभी तख़्तापलट नहीं किया। लेकिन, पूरे जापान पर तकनीकी रूप से उनका ही राज था। तभी पश्चिम ने दरवाज़े पर दस्तक दी। 

1854 में कमांडर मैथ्यू पेरी के नेतृत्व में अमरीका के जहाज जापान की तरफ़ बढ़ने लगे। जापान ने कभी ऐसे उन्नत जहाज देखे ही नहीं थे। उन्होंने बिना लड़े ही घुटने टेक दिए। अमरीका ने जापान और कोरिया, दोनों को धमका कर व्यापारसंधि करायी। जापान में शोगन तानाशाही का अंत हुआ। उनके ख़ानदानी लड़ाके जो समुराई (Samurai) कहलाते थे, उन्हें भी हथियार रखने पड़े अथवा शाही सेना में क़ानूनी तरीके से शामिल होना पड़ा। अमरीका के प्रभाव में वहाँ के राजा ने जापान का पुनर्निर्माण (Meiji restoration) शुरू किया।

चीन और जापान में विदेशी तकनीक रही थी, बाज़ार खुल गए थे, हथियार रहे थे। टकराव तो होना ही था।

चीन की ज़मीन के साथ लगा एक छोटा सा देश था कोरिया। उस पर धौंस जमाने के लिए चीन और जापान आपस में भिड़ गए। चीन सदियों से कोरिया को अपनी एक रियासत की तरह मानता था। जबकि जापान को कोरिया के संसाधनों में रुचि थी। कोरिया के अंदर एक जनविद्रोह चल रहा था, जिसमें जापान सहयोग दे रहा था। जबकि चीन कोरिया के राजवंश के साथ था।

आखिर चीन की शंघाई में हुई एक कोरियाई की हत्या से युद्ध की नींव पड़ी। वह जापान का सहयोगी व्यक्ति था, और जापान ने इस हत्या को एक षडयंत्र बताया। उसने कोरिया में अपनी सेना भेज दी, जहाँ चीन की सेना से भिड़ंत हुई। चीनी सेना बड़ी संख्या होने के बावजूद जापानियों से बुरी तरह हार गयी। चीन के हज़ारों सैनिक मारे गए, जबकि जापान की सेना को बहुत कम हानि हुई। जापानी कोरिया से आगे बढ़ते हुए मंचूरिया तक घुस गए थे।

आखिर चीन को एक बार फिर हार माननी पड़ी। कोरिया को एक स्वतंत्र देश का दर्जा मिला। जापान को ताइवान और दो अन्य क्षेत्र ईनाम में मिल गए। साथ में बीस करोड़ ताल चाँदी का मुआवज़ा भी मिला।

अब ब्रिटेन, रूस, अमरीका और फ़्रांस के साथसाथ जापान को भी चीन में खुले व्यापार की इजाज़त मिल गयी। उसके भी जहाज यांग्तसे नदी में चलने लगे। जापान ने यह भी सिद्ध किया कि अब पश्चिमी शक्तियाँ उसको धमका नहीं सकती। उसने चीन की मदद के लिए आए एक ब्रिटिश जहाज को भी डुबोया। अगर चलताऊ ज़बान में कहें तो जापान ने यह संदेश दिया– ‘इस इलाक़े का दादा अब चीन नहीं, हम हैं।’

एक कार्टून ने इसे खूब दर्शाया जिसमें इंग्लैंड की महारानी विक्टोरिया, जर्मनी के विलियम द्वितीय, रूस के निकोलस द्वितीय, जापान के राजा, और फ़्रांस की मरियाने मिल कर चीन के टुकड़े बाँट रहे हैं।

China Division Imperial
China Division Imperial

(आगे की कहानी खंड 4 में)

In Part 3 of series on Modern China, author Praveen Jha describes westernisation of China and first Sino-Japanese war.

Books by Praveen Jha


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