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“हमें ताज्जुब होता है जब ब्रिटिश मीडिया सरकार द्वारा किए जा रहे हर अन्याय पर चुप रहती है। वह नहीं बताती कि किस तरह ब्रिटिश सरकार उस अफ़ीम से ख़ज़ाने भर रहे हैं, जिससे चीन की जनता की साँसें खत्म हो रही है। वह नहीं बताती कि किस तरह ब्रिटिश व्यापारी चीनी अधिकारियों को रिश्वत देकर तस्करी कर रहे हैं। वह नहीं बताती कि चीन के किसानों को ग़ुलाम बना कर पेरू और क्यूबा भेजा जा रहा है। वह नहीं बताती कि चीन के भीरू लोगों को ब्रिटिश किस तरह धमका रहे हैं…यह उनकी नीति बनती जा रही है कि जिस मुद्दे से हमें आर्थिक हानि हो, उसे दबा दिया जाए। इस कारण जब एक आम अंग्रेज़ सुबह राशन की दुकान में चाय खरीदने जाता है, तो वह सरकार के इस अन्यायपूर्ण रवैये पर चुप रहता है।”
- कार्ल मार्क्स, 10 अप्रिल 1857, न्यूयार्क डेली ट्रिब्यून में
दुनिया में युद्धों की एक वजह तो पड़ोसी देशों से सीमाओं पर हो रही हलचलें हैं। उससे अधिक महत्वपूर्ण वजह होती जा रही है – धन।
युद्ध अपने-आप में भी एक व्यापार है, जो नयी दुनिया बेहतर जानती है। युद्ध का उद्देश्य भी कारोबार से जुड़ा है। ब्रिटेन के लिए अफ़ीम का कारोबार ज़रूरी था, इसलिए वह बार-बार चीन से लड़ने के लिए अभिशप्त थी। लेकिन यह कहना कि अफ़ीम के धंधे में अड़चनें आ रही हैं, बड़ी ही अनैतिक वजह थी। उन्हें कोई ऐसा मुद्दा चाहिए था, जिससे साँप भी मर जाए, लाठी भी न टूटे।
दक्षिणी चीन में आग की तरह पसरते ताइपिंग विद्रोह पर ब्रिटेन की पैनी नज़र थी। एक तरफ़, वे अपनी अजीबोग़रीब ईसाईयत का झंडा बुलंद कर रहे थे। दूसरी तरफ़, वे अफ़ीम-मुक्त चीन की बात भी कर रहे थे। यह ब्रिटेन को क़तई मंजूर नहीं था। इस विद्रोह का सिर्फ़ एक फ़ायदा था कि चिंग राजवंश कमजोर पड़ रहा था। उन्हें घुटने पर लाकर शर्तें रखना आसान था। ऐसा करने के बाद उन्हें इस ताइपिंग विद्रोह को भी दबाना था ताकि अफ़ीम व्यापार चलता रहे।
यानी पहले चीन के राजा को हराओ, उसके बाद उसी के साथ मिल कर उसके ख़िलाफ़ चल रहा विद्रोह दबाओ। है न अजीब समीकरण? लेकिन, शतरंज की पूरी बिसात बैठी कैसे?
चीन में बिसात तो वहीं बिछी जहाँ बिछती आयी थी। कैंटन बंदरगाह में। ब्रिटेन की तरफ़ से वज़ीर के खाने में बिठाया गया एक अंग्रेज़- पार्कस। उसे पहाड़ों की खुली हवा का शौक़ था, मगर चीन में घुसने की इजाज़त नहीं थी। वह पहले दिन से ही इस तोरणद्वार को भेद कर चीन में घोड़े दौड़ाना चाहता था।
चीन की तरफ़ से था वहाँ का सख़्त मिज़ाजी गवर्नर ये मिंगचेन, जिसे ताइपिंग विद्रोह के दमन के लिए भेजा गया था। वह पहले ही कई चीनी विद्रोहियों को मौत के घाट उतरवा चुका था। वह बंदरगाह के भ्रष्ट चीनी अधिकारियों और तस्करों के लिए नासूर बन रहा था। अफ़ीम का धंधा कमजोर पड़ने लगा था।
पहले अफ़ीम युद्ध के बाद यह तय हुआ था कि जिस चीनी जहाज पर ब्रिटिश झंडा लगा हो, उसे कोई चीनी अधिकारी नहीं रोक सकता। चूँकि वे ब्रिटेन के लिए व्यापार करते हैं; इसलिए ब्रिटेन का ही अधिकार होगा। बात तो ख़ैर ठीक थी।
8 अक्तूबर, 1856 को चीनी गवर्नर ये को ख़बर मिली कि एक चीनी जहाज ‘ऐरो’ (Arrow) नमक की तस्करी कर रहा है। उसे रोक कर पकड़ा गया तो बात सही सिद्ध हुई। पार्कस वहाँ जिरह करने पहुँचा कि ब्रिटिश झंडे वाले जहाज को रोका कैसे? वहाँ कथित रूप से झड़प हो गयी। पार्कस को संभवतः थप्पड़ भी पड़े, और यूनियन जैक को फाड़ कर चीनियों ने जूते से मसल दिया।
फिर क्या था? ब्रिटिश ख़ून खौल उठा।
पार्कस ने ये (Governor Ye) को जो चिट्ठी लिखी – “हमारी जो सार्वजनिक बेइज़्ज़ती की गयी है, उसका बदला भी सार्वजनिक ही लिया जाएगा”
(An insult so publicly committed must be equally publicly atoned)
ये ने जवाब दिया कि अमुक चीनी जहाज का ब्रिटिश व्यापार लाइसेंस खत्म हो चुका था। इस कारण उनका यूनियन जैक फहराना ही अवैध था। उनकी तस्करी भी सिद्ध हो चुकी है। इस कारण जो भी किया गया, उसमें संधि की शर्तें भंग नहीं हुई है।
लेकिन हॉन्गकॉन्ग का ब्रिटिश गवर्नर बोरिंग भी चीनियों से खार खाया हुआ था। ब्रिटिश मीडिया में यह बात बड़े अक्षरों में छपी कि यूनियन जैक को चीनियों ने फाड़ दिया, और ब्रिटिश अधिकारी से हाथापाई हुई। ब्रिटिश सरकार पर दबाव बनता गया, और 16 अक्तूबर से युद्ध शुरू हो गया। महीने के अंत तक वे कैंटन में घुस कर गवर्नर का कार्यालय उड़ा चुके थे। अगले दो महीनों में ब्रिटिश सेना दक्षिणी चीन में घुस चुकी थी, जिनका बड़ा हिस्सा पहले से ही ताइपिंग विद्रोहियों के क़ब्ज़े में था।
ब्रिटिश संसद उस समय भी पशोपेश में थी कि आखिर चीन में कहाँ तक युद्ध जारी रखा जाए। शर्तें मनवा कर बात रफ़ा-दफ़ा की जाए। वहीं यह बेइज़्ज़ती का मसला भी था कि यूनियन जैक की तौहीन का बदला तो तभी पूरा होगा जब चीन की ईंट से ईंट बजा दी जाएगी। बहरहाल 1857 में चीन को कुछ राहत मिली कि बड़ी ब्रिटिश फ़ौज भारत में व्यस्त थी।
इस मध्य फ़्रांस ने एक पुराना राग छेड़ दिया।
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हुआ यूँ था कि ताइपिंग विद्रोह के कारण ईसाइयों को शक की नज़र से देखा जाने लगा था। फरवरी 1856 में चीनी अधिकारियों ने एक फ़्रेंच पादरी को पकड़ा। आरोप लगा कि वह गुआंगजू प्रांत में लोगों को गुमराह कर ईसाई बना रहा है। ग्रामीणों की गवाही के बाद संभवतः उसका सर काट कर पेड़ से लटका दिया गया। यह ख़बर भी लंदन और पेरिस की मीडिया ने खूब उछाली।
ब्रिटेन के राजदूत लॉर्ड एल्जिन ने कहा, “हमारा अपमान तो हुआ है, लेकिन हमसे कहीं बड़ा अपमान तो फ़्रांस के साथ हुआ है। उन्हें यह युद्ध अवश्य लड़ना चाहिए और चीन से बदला लेना चाहिए”
ब्रिटेन और फ़्रांस उस समय विश्व की बड़ी शक्तियों में थी। वे दोनों मिल कर तो चीन में कहर ला देते। ऊपर से ताइपिंग विद्रोह अलग।
5 जनवरी 1858 ईसवी की कैंटन से एक रपट दर्ज़ है,
“लाल जैकेट वाले अंग्रेज़ और नीली जैकेट वाले फ़्रेंच फौजियों ने पूरे नगर को रौंद दिया। पार्कस ख़ुद अपने पुराने शत्रु गवर्नर ये को ढूँढने निकला। आखिर एक नाटे कद का मोटा सा व्यक्ति भागता दिखा, जो कैंटन का गवर्नर ये था। पार्कस ने मुस्कुरा कर कहा कि वह मेरा शिकार है। उसने कैंटन की संकरी गलियों में उसे पहले खूब दौड़ाया। उसके बाद उसे कमर से पकड़ा और उसकी लंबी चोटी को अपनी मुट्ठी में बाँध कर खींचते हुए ठहाके लगाने लगा”
ये को भारत निर्वासित कर दिया गया, जहाँ अगले वर्ष उसकी मृत्यु हो गयी।
उसी वर्ष मई के महीने में ब्रिटिश और फ़्रेंच जहाज राजधानी बीजिंग के निकट समुद्री तट पर पहुँच गए, और वहाँ के क़िलों को ध्वस्त कर दिया। जब राजा के दूत उनसे संधि करने पहुँचे, तो पहले उन्हें यूनियन जैक को सलामी देने कहा गया। एक नया संधि-पत्र थमाया गया, जो उनकी शर्तों पर था। इस संधि-पत्र में ब्रिटेन और फ़्रांस के नाम तो थे ही, अमरीका ने भी पैरवी कर अपना नाम लिखवा लिया था। ये तीनों देश अब चीन में बेरोकटोक व्यापार कर सकते थे।
जब भंडारा चल ही रहा था, तो भला रूस क्यों पीछे रहता। वह भी चीन की सीमा पर अपनी फ़ौज लेकर पहुँच गए। उन्होंने माँग रखी कि बाहरी मंचूरिया का लगभग छह लाख वर्ग किलोमीटर हिस्सा उन्हें दे दिया जाए। अन्यथा ब्रिटिश और फ़्रेंच तो हमले कर ही रहे हैं, वे भी कर देंगे। इस तरह रूस ने ऐगुन (Aigun) की संधि में बिना एक गोली चलाए चीन की बड़ी ज़मीन झपट ली।
चीन के लिए यह एक शर्मनाक समय था, जब हर तरफ़ से उसे लूटा जा रहा था। चीन के राजा ने अंग्रेज़ों से कुछ मोहलत माँगी। 1859 में जब संधि के काग़ज़ों पर हस्ताक्षर होने थे, तो वह मुकर गया। वहाँ पहुँचे ब्रिटिश और फ़्रेंच अधिकारियों को बंदी बना लिया, जिनमें वह पार्कस भी था जिसने यह युद्ध शुरू किया था। पार्कस की एक बार फिर पिटाई की गयी। हालाँकि ऐसा करके वह अपने ही अंत को न्यौता दे रहे थे।
भारत में हुई क्रांति का दमन कर वहाँ के कमांडर इन चीफ़ कोलिन कैम्पबेल को अब चीन को रौंदने का भार मिला था। वहाँ से अंग्रेज़ों के साथ मराठा और सिखों की पलटन अब समुद्र के रास्ते बीजिंग पहुँच रही थी। अख़बार वाले और फ़ोटोग्राफ़र फिलिक्स बीटो जो 1857 के रक्तपात को कवर करने आए थे, वह भी साथ-साथ चीन निकल लिए। जैसे एक गाँव से मेला उठ रहा हो, और शामियाने दूसरे गाँव जा रहे हों। उन्होंने अभी-अभी भारतीयों को बेइज्जत होते देखा था, अब चीन का हाल देखना था।
चीन में ब्रिटिश राजदूत लॉर्ड एल्जिन ने लिखा,
“मैंने इस युद्ध की पैरवी की थी। लेकिन क्या अब मैं किसी तरह इस युद्ध को रोक सकता हूँ? मैंने भारत में हुए दमन की ख़बरें पढ़ी हैं। क्या हम एक और प्राचीन नस्ल के साथ भी वही सलूक करने जा रहे हैं? क्या ईश्वर हमें इसके लिए क्षमा करेंगे? यह हमारे राष्ट्र ही नहीं, हमारे ईसाइयत के लिए भी अनुचित है। अगर हम सोचते हैं कि चीन को पंजे में लेकर, उनके लोगों को पीट कर हम व्यापार कर पायेंगे, तो ग़लत सोचते हैं”
जिस तरह दिल्ली और लखनऊ लूटे गए थे, उसी तरह चीन के राजा के समर पैलेस में फ़्रेंच सेना घुस गयी। वहाँ की स्त्रियों और हिजड़ों को शर्मसार किया गया। जहाँ जो भी मिला, उठा लिया गया। एक ने संस्मरण में लिखा कि हमें लग रहा था कि बचपन के पेस्ट्री शॉप आ गए। हर सैनिक अपनी जेब में रेशम और जवाहरात भर रहा था। वहाँ मौजूद कुछ राजकुमारों को जमीन पर लेट कर सलामी देने कहा गया।
कुछ दिनों चले इस उत्पात के बाद पूरे पैलेस को जला दिया गया। आसमान का रंग इस धुएँ से काला पड़ गया। यह चीन के शर्मिंदगी की वह इंतहा थी, जिससे उनका वापस लौटना नामुमकिन लग रहा था। हालाँकि ब्रिटिशों ने कठपुतली की तरह चिंग राजा को गद्दी पर बिठाए रखा, मगर जनता की नज़रों में वह अपनी पहचान खो चुका था।
चीनी ताइपिंग विद्रोही बीजिंग की ओर बढ़ रहे थे। अंग्रेज़ों ने अभी राजा की पगड़ी उछाली थी, अब प्रजा को मसलना था।
लंदन में बैठे कार्ल मार्क्स लगातार भारत और चीन की घटनाओं पर रिपोर्ट लिख रहे थे। उन्हें उम्मीद थी कि इन विशाल जनसमूह वाले देशों में अगर दमन बढ़ेगा, तो क्रांति होकर रहेगी।
In this part of Modern China history, Author Praveen Jha narrates about Second Opium War.
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