यह कथा दिखती आधुनिक है, लेकिन इतिहास के झरोखों से उठायी गयी है। उन्नीसवीं सदी से। इसे पढ़ कर लगेगा कि समाज कहीं पहले से संकीर्ण तो नहीं होता जा रहा? क्या इस कथा की नायिका अथवा उस खाँचे के प्रेम आज संभव हैं?
विजय तेंदुलकर अपने समय से कहीं आगे देखने की क्षमता रखते थे। तभी उन्होंने साठ के दशक में वह मुद्दा उठा दिया जिससे पश्चिम के विकसित देश भी आज तक जूझ रहे हैं। गर्भपात कानून पर आम सहमति नहीं बन पा रही।
एक आलोचना यह रहेगी कि जब आप किसी मरीज को कोई दवा दें, तो यह न कहें कि इस दवा में जादू है। इससे बेहतर दवा नहीं। यह अचूक है। बल्कि यह कहें कि इस दवा की यह हानियाँ हो सकती है, ये कमियाँ है, यह सौ प्रतिशत काम नहीं करती। ऐसे में मरीज को अधिक विश्वास होता है। लेखक कुछ स्थानों पर नेहरु को महामानव सिद्ध करने से बच सकते थे।
लेखक के अनुसार निषाद उत्तर प्रदेश के लगभग 25 प्रतिशत सीटों का भविष्य तय करते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ एक पेशे के रूप में मछली मारना या केवट बनना घट रहा है। गैंगस्टर पूँजीवाद, माफ़िया खनन और कॉरपोरेट क्रूज़ चलने से निषादों के हाथ कुछ नहीं आ रहा।
पुरुषों के पढ़ने का तर्क मेरी नज़र में तो यही है कि किताबों के अंबार लगाने वाले पुरुषों की भी स्त्रीवाद पर कितनी समझ है? यह तो ऐसा क्षेत्र है जहाँ शंकराचार्य से सिगमंड फ्रायड तक उलझ गए।
ओल्गा मात्र स्थान नहीं बदलती, समय में भी उड़ान लेती रहती है। वह कई सदी पीछे पहुँच कर एक अश्वेत के वंशज रूप में ऑस्ट्रिया के महाराज को चिट्ठी लिखती है। कभी वह संगीतकार शॉपिन की आखिरी इच्छा पूरी होते देख रही होती है, जब उन्होंने कहा था कि मरने के बाद उनके हृदय को उनके जन्मस्थान में दफ़नाया जाए।
ख़ुशहाली क्या वाक़ई परिभाषित की जा सकती है या यह सब बस एक तिलिस्म है? स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक समरसता की बहाली क्या कोई लोकतांत्रिक सरकार करने में सक्षम हो सकती है? क्या मीडिया स्वतंत्र हो सकती है? क्या अमीरी-ग़रीबी के भेद वाक़ई मिट सकते हैं? क्या मुमकिन है और क्या नहीं? और अगर मुमकिन है तो आख़िर कैसे?
किंडल पर पुस्तक प्रकाशित करना बहुत ही आसान है। लेकिन किंडल पर किताबों की भीड़ में अपनी किताब को अलग और बेहतर दिखाना सीख लेना चाहिए। इस लेख में अमेजन किंडल पर पुस्तक प्रकाशित करने की प्रक्रिया