खुशहाली का पंचनामा- नॉर्वे वृतांत

Khushahali Panchnama Poster
ख़ुशहाली क्या वाक़ई परिभाषित की जा सकती है या यह सब बस एक तिलिस्म है? स्वास्थ्य, शिक्षा और सामाजिक समरसता की बहाली क्या कोई लोकतांत्रिक सरकार करने में सक्षम हो सकती है? क्या मीडिया स्वतंत्र हो सकती है? क्या अमीरी-ग़रीबी के भेद वाक़ई मिट सकते हैं? क्या मुमकिन है और क्या नहीं? और अगर मुमकिन है तो आख़िर कैसे?

विश्व के सबसे ख़ुशहाल कहे जाने वाले देश नॉर्वे को टटोलते हुए ऐसे सूत्र मिलते हैं जो भारत में पहले से मौजूद हैं। बल्कि मुमकिन है कि ये भारत से बह कर गए हों। लेखक ने रोचक डायरी रूप में दोनों देशों के इतिहास से लेकर वर्तमान जीवन शैलियों का आकलन किया है। ‘ख़़ुशहाली का पंचनामा’ एक यात्रा संस्मरण नहीं प्रवास संस्मरण है। लेखक बड़ी सहजता से आर्यों की तफ़तीश करते हुए रोज़मर्रा के क़िस्से सुनाते चलते हैं और उनमें ही वे रहस्य पिरोते चलते हैं, जिन से समाज में सकारात्मक बदलाव आ सकता है। इस डायरी का ध्येय यह जानना है कि कोई भी देश अपने बेहतरी और ख़ुशहाली के लिए किस तरह के क़दम उठा सकता है।

अंश 1

जेंडर न्यूट्रल देश

‘(यहाँ) सुंदरियाँ हैं पर कोई फैशन या हॉट-ड्रेस कह लें, नहीं। शान से कहेगी, ये कार्डीगन मैंने बुना है। शरीर को लेकर कोई ‘कॉन्शस’ नहीं। बातें करते नेक-लाइन नीची हो जाए, तो सँभालेगी नहीं। बेशर्मों की तरह यूँ ही बात करती रहेंगीं। यहाँ तक कि पुरूष भी कपड़े बदल रहा हो, मित्र हो और जल्दी हो, धड़ल्ले से घुस कर अपनी बात कहेगी। शरीर की कोई प्राथमिकता नहीं। यहाँ सब नंगे हैं, आदम हैं।

औरों की तरह मुझे भी लेकिन यह कौतूहल हुआ कि गर प्रेम करना हो, तो आखिर यहाँ करे कैसे? क्या ऑफ़िस में ही किसी से दोस्ती करनी होगी, या बार में किसी महिला से बात करनी होगी? क्या यह स्कर्ट में नंगी टांगों वाली गोरियाँ यूँ ही मान जातीं होंगी? या पैसे से प्रेम होता होगा?

हालांकि प्रेम की कोई निश्चित परिभाषा नहीं। ‘डेट’ पर कैसे जाएँ? यह पूछना आसान है। चूँकि यहाँ व्यवस्थित विवाह नहीं, लोग खुद ही ‘डेट’ पर जाते हैं। हर उम्र में। किसी का कल तलाक हुआ या पत्नी ने कहा कि उसका नया प्रेमी मिल गया, तो आज वह अपनी प्रेमिका ढूँढने निकल पड़ा। समय क्यूँ बरबाद करना?

अंश 2

धुरी से ध्रुव तक

‘दूर से कुछ गीतों की धुन तो सुनाई दे रही थी। और तमाम गॉगल पहने गोरियों की खुली पीठ नजर आ रही थी। कुछ पीठों पर कलाकारियाँ थी। होंगे इनके कोई देवी-देवता। किसी की पीठ पर सांप लोट रहा था तो किसी पर तिब्बती लिपि में कुछ उकेरा था। पीठें थी ही ऐसी ‘पेपर-व्हाइट’ की कलम चलाने का दिल कर जाए। पर मैं इन मोह-पाशों से मुक्त होकर इधर-उधर देखने लगा।

नदी बिल्कुल नीली थी। क्या पता यहीं-कहीं समंदर में जाकर जुड़ती हो। नॉर्वे का मानचित्र देख तो यही लगता है कि समुद्र से सहस्त्र धाराएँ निकल कर धरती को भेद रही हों। हज़ारों नदियाँ, खाड़ी, दर्रे, और झील। कुछ समुद्र से अब भी जुड़े हैं, कुछ छिटक कर अलग हो गए। अलग तो हो गए, पर रंग नीला ही रह गया। जड़ों से कितने भी दूर हो जाओ, मूल कभी साथ नहीं छोड़ता। तभी तो यह पाश्चात्य जलधारा मुझे छठ और हर की पौड़ी का स्मरण करा रही है। मैं मन ही मन हँस कर वापस यथार्थ में लौटा। यह नॉर्वे है जनाब। यहाँ अपनी मिट्टी नहीं, अपनी नदियाँ नहीं, अपना आकाश नहीं। यहाँ सब पराया है। लेकिन नदी में तमाम नाव देख उत्साहित तो हुआ।

यहाँ हर तीसरा गाड़ी रखे न रखे, नाव (बोट) ज़रूर रखता है। किसी जमाने में नॉर्वे में ‘वाइकिंग’ योद्धा थे जो बड़े जहाज रखते थे। अब दस्यु नहीं रहे, पर नाव रखने का रिवाज है। केरल के अष्टमुदी झील के आस-पास के गांवों में भी सब नाव रखते थे। यहाँ तो देश ही अष्टमुदियों से भरा पड़ा है। हजारों बोट लगी पड़ी है, और हर बोट में मदिरा, धुआँ, नृत्य और गप्पें। नावों की रेस हो रही है, पर कोई चप्पू नहीं चला रहा। मुँह में सिग़रेट डाले मोटरबोट का स्कूटर हाँक रहा है।’

अंश 3

आर्यों की खोज में

‘नॉर्वे में भूत नहीं ‘हेक्सा’ होते हैं। तिरछे पैरों वाली डायन। उत्तर की बर्फीली नदियों में मिलती हैं। ऐसा लोग कहते हैं। सच की ‘हेक्सा’ होती या नहीं, यह अब किसी को नहीं पता। पर सत्रहवीं सदी तक यह डायन उत्तरी नॉर्वे में आम थीं। वे तंत्र-मंत्र से वशीकरण करतीं। बाद में इनमें कई डायनों को फांसी दे दी गयी। मैं जब इनकी खोज में घूम रहा था तो उत्तरी नॉर्वे के सामीयों से मुलाकात हुई।

वह उत्तरी नॉर्वे जो वीरान है, जहाँ कुछ लोग हाल तक बर्फ की गुफाओं में रहते थे। वहाँ तीन महीने सूर्य न उगते, न नज़र आते हैं। वहाँ कई हिस्सों में गाड़ियाँ नहीं चलती क्योंकि हर तरफ बर्फ ही बर्फ है। ‘स्लेज’ को जंगली कुत्ते खींचते हैं। कुत्तागाड़ी कह लें। यही हाल अलास्का का भी है। यह प्रदेश आज भी आदम-काल में जी रहे हैं। प्रकृति के रूखे रूप में।

‘भला आप यहाँ रहते ही क्यों हैं? ओस्लो क्यों नहीं चले जाते?’ मैंने वीराने में घर बनाए एक व्यक्ति को पूछा।

‘जब ओस्लो जाना होता है, जाता हूँ। पर उस रेलमपेल में मैं नहीं जी सकता। यहाँ सुकून है।’

‘फिर भी। खाने-पीने की तमाम समस्यायें?’

‘खाने की समस्या तो कहीं नहीं होती। अथाह समुद्र के किनारे इस बर्फीले देश में मछलियाँ ही मछलियाँ हैं। और वह भी ताज़ा। हमारी दुनिया डब्बाबंद नहीं, खुली है।’

‘आपको पता भी लगता है कि बाकी दुनिया में चल क्या रहा है?’

Book extract of Khushahali Ka Panchnama by Author Praveen Jha

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1 comment
  1. बहुत अच्छा, अच्छा काम किया और इतने अच्छे ब्लॉग को शेयर करने के लिए धन्यवाद. First this is a Great list Hosting Information Sites , Superb Work helpful Information , Post I like Its Thank You very Much For Sharing me , keep it up Really Great Staff ,

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