हज़ार किताबें पढ़ ली, मगर याद कुछ नहीं। जैसे पटना से मुगलसराय ट्रेन पर बैठे, और कोई पूछे कि बक्सर कैसा था? मुझे क्या पता कैसा था? ट्रेन गुजरी थी बस। मेडिकल विद्यार्थियों को इस जद्दोजहद से गुजरना पड़ता है। याद रखने के लिए बाबा के चूरन से लेकर विदेशी दवाई तक लोग फांकते हैं। मैंने ऐसे-ऐसे विद्यार्थी देखे, जिनके दिमाग में स्कैनर था। एक तो ऐसे थे कि छात्रावास की हर मोटरसाइकल का नंबर-प्लेट कंठस्थ। वह पढ़ाई में भी औसत से कुछ ऊपर रहे, लेकिन उनकी इस ‘फोटोग्राफ़िक मेमरी’ में समस्या यह रही कि जो लिखा गया, उतना ही लिख पाते। विश्लेषण में उनकी बुद्धि अटक जाती। उनको सवाल उसी तरह पूछा जाना चाहिए, जैसा किताबों में है।
अधिकतर लोग ऐसे ही होते, जो घूम-घूम कर, बार-बार दोहरा कर, अलग-अलग किताबों से पढ़ कर, अपने दिमाग में खाका बना कर, चीजों को दर्ज करते। स्मृति का यही तरीका वेदाध्ययन से राज बापना तक कायम है। वेदों को वर्षों तक लिखा नहीं गया, रटाया गया। पहले हू-ब-हू। फिर हर पंक्ति की आवृत्ति, जो आज भी पूजा-पाठ में प्रयोग होता है। हर पंक्ति चार बार-पाँच बार कहिए। फिर हर शब्द की आवृति। फिर पंक्ति को उलट-पलट कर कहना। आगे से पीछे, पीछे से आगे।
यही संगीत में भी किया जाता है। बार-बार रियाज। स्वरों की मूर्चछ्णा मेरुदण्ड एक तरह परम्यूटेशन-कॉम्बिनेशन है। अलट-पलट कर स्वरों को रखना। ऐसा हज़ारों बार करने के बाद वह दर्ज़ हो जाता है।
कल पुष्पेश पंत का साक्षात्कार सुन रहा था। उन्होंने कहा कि ए पी जे अब्दुल कलाम की आदत थी कि एक ही बात तीन-चार बार दुहराते। फिर पूछते कि मेरी बात समझ आयी? स्पष्ट हुआ? सुनने वाले को लगता कि वह ऐसा क्यों कर रहे हैं। मगर वह एक जन्मजात शिक्षक की तरह थे। वह चाहते थे कि उनकी बात सामने वाले की दिमाग में दर्ज़ होती जाए।
ऐसा ही अभ्यास मेडिकल या अन्य विद्यार्थी भी करते। मैंने भी यही किया है, और किताब को पीछे से आगे भी कई बार पढ़ा है। इससे आखिरी अध्यायों को भी उतना ही वजन मिलता है, जितना पहले अध्याय को। बल्कि हमारे पास एक रैंडम नंबर टेबल भी था, जिसमें एक से पाँच सौ तक संख्या लिखी थी। मगर रैंडमली। अब उस हिसाब से पढ़ते। यानी तेरहवें पेज का टॉपिक पहले, फिर चौरानबे पेज का टॉपिक, फिर पहले पेज का। इस तरह सलामी, मध्य-क्रम और टेल-एंडर पन्ने सभी मजबूत। अब पूछो सवाल!
लेकिन, जो तकनीक मैंने निजी तौर पर सबसे अधिक प्रयोग और आज भी करता हूँ। वह है लिखना। नोट्स लेना। यह अपनी स्मृति को धत्ता बताना भी है। आपका फ़ोन नंबर मुझे याद नहीं, डायरी में लिखी है। लिखते चले गए। मुझे लिखते वक्त यह चिंता होती कि परीक्षा में याद आएगा या नहीं। इतना वक्त वही लिख कर बरबाद किया, जो पहले से किताब में लिखी है। इससे बेहतर कि किताब को रट लेता। पूरी की पूरी किताब ही अपने शब्दों में लिख दी, इससे क्या मिला? लेकिन, जब भी सवाल सामने आते तो मेरे कलम अपने-आप उसी तरह चलने लगते, जैसा लिखा था। कोई पूछता तो उत्तर किताब से अलग विश्लेषण की ओर ले जाते। क्योंकि आदमी जब लिखता है तो किताब से आगे लिख जाता है। यह रंगों से भित्तिचित्र बनाने जैसा है। एक गणितीय फ़ॉर्मूले से सिद्धांत रचने जैसा।
मैं विद्यार्थियों को यही कहूँगा कि चार-पाँच जिस्ते काग़ज, नोटबुक या डिजिटल राइटिंग पैड लेकर ही पढ़ने बैठें और खूब लिखें। बिना इनके पढ़ने बैठें ही नहीं।
साल के अंत तक अपनी किताबों के रैक का एक खाना अपने लिखे पन्नों से भर जाए। जो भी पढ़ा, उस पर अपनी सोच बनाएँ। लिखी बातों को कॉपी-पेस्ट न करें। पैराफ्रेज करें, अपने शब्दों में। लिखते समय खुद से पूछें- वोल्टायर ने यह कहा, मैक्यावेली ने यह कहा, मगर तुमने क्या कहा?
Author Praveen Jha writes about memory improvement for students.