नोएडा के एक क्रॉसवर्ड दुकान में राजकमल प्रकाशन की चार हिंदी किताबें दिखी, जिनमें दो यात्रा-संस्मरण थे, एक नव-प्रकाशित उपन्यास और एक दिवंगत कवि से जुड़े संस्मरण थे। मैंने नाप-तौल कर चौथी किताब चुनी, क्योंकि लगा कि यह यात्रा से पहले पढ़ कर छोड़ जाऊँगा। पहले से कसे बैग में जगह न लेगी।
‘यही तुम थे’ पुस्तक में कुल 111 छोटे-मझोले फ़ेसबुक पोस्ट साइज के संस्मरण हैं। अति-संक्षिप्त किंतु संपूर्णता लिए हुए। साहित्यकारों के भारी-भरकम आडंबरी लेख-जुटाऊ स्मारिकाओं से परे, यह दिल से लिखी स्मृतियाँ हैं।
एक स्थान पर लेखक पंकज चतुर्वेदी वीरेन डंगवाल से कहते हैं- आप एक जगह आराम से रहिए, दुविधा खत्म कीजिए।
वह उत्तर देते हैं- दुविधा खत्म होना भी कोई अच्छी स्थिति नहीं है।
यह एक ऐसे कवि के संस्मरण हैं, जिनके जीते-जी तीन ही संग्रह प्रकाशित हुए, और उनमें एक ही बड़े प्रकाशक से थे। वह कवि मंचों पर बोलना भी कम पसंद करते थे। वह अपनी सराहना और प्रशंसाओं पर असहज हो जाते थे। उनका कहना था- ‘कलाकार को सराहना मिलने पर सतर्क हो जाना चाहिए’
एक बार किन्ही आलोचक ने उनसे समीक्षा के लिए किताब माँगी। उन्होंने मना कर दिया और बाद में कहा- अगर वह मेरी किताब पर लिखना चाहते हैं, तो उसकी व्यवस्था स्वयं करें।
इसका कारण यह नहीं कि वह अक्खड़ मिज़ाजी थे। एक स्थान पर कवि मंगलेश डबराल उनके विषय में लिखते हैं- ‘वीरेन कविता को इतना पवित्र मानता है कि अक्सर उसे लिखता ही नहीं है’
आलोचक को भले प्रति न दें, किंतु पुस्तक में उद्धृत एक कविता है-
“कवि का सौभाग्य है पढ़ लिया जाना,
जैसे खा लिया जाना
अमरूद का सौभाग्य है”
वहीं आज की कविताओं पर एक रघुवीर सहाय की टिप्पणी उद्धृत है
“आजकल किताब फूलगोभी सी नरम है
और फूलगोभी है आजकल की किताब सी नीरस”
इस पुस्तक में सच्चाई दिखती है, सहजता दिखती है, दैवीय नहीं मनुष्य रूप दिखता है। इसे इस कारण भी पढ़ना चाहिए।
कवि एक स्थान पर प्राइवेट अस्पतालों से खिन्न होकर लिखते हैं-
“और डॉक्टर साहब
अब हटाइए भी अपना टिटिम्बा
नलियाँ और सुइयाँ
छेद डाला आपने इतने दिनों से
इन्हीं का रुतबा दिखा कर आप
मुनाफ़ाख़ोरों के बने हैं दूत”
मुझे इच्छा थी कि इस पतली किताब को बार-बार पढ़ने के लिए साथ लेता जाऊँ। लेकिन, इसी किताब में एक सूत्र यह भी दिखा कि मोह त्याग दूँ और अगले पाठक को पकड़ा दूँ। मुझे यहाँ से दो सौ किलोमीटर दूर एक पाठक मिल गए, जहाँ यह किताब अब जा रही है।