मैं आजकल कहाँ हूँ?

Jon Fosse
Jon Fosse

1

हाल में संदेश मिलने शुरू हुए कि मैं कहाँ हूँ। संदेश पढ़ कर मैंने सोचा कि मैं तो यहीं हूँ। वहीं, जहाँ था। जो लोग पूछ रहे थे, वे भी वहीं होंगे। सभी जहाँ-जहाँ थे, वहीं वहीं होंगे। 

बहरहाल, हाल में नॉर्वे के एक नाटककार, कवि, उपन्यासकार इत्यादि योन फोस्से को नोबेल पुरस्कार मिला। जब पुरस्कार मिला, तो आम नॉर्वेजियन उनकी किताबें ढूँढने लगे। मैं भी ढूँढने लगा। मैं अपने शहर की दुकान में गया, जो जाहिर है नॉर्वे में ही है। नोबेल घोषणा की अगली शाम तक उनके पास मात्र दो किताबें थी। उन्हें उन्होंने हड़बड़ी में बनाए एक पोस्टर के साथ लगा रखा था— उठा लो! उठा लो! योन फोस्से की किताबें आज ही उठा लो। उसमें एक किताब पचास पृष्ठों की थी, और मूल्य पाँच सौ क्रोनर। आम तौर पर पाँच सौ पृष्ठों की किताब दो-ढाई सौ क्रोनर में मिल जाती है। दूसरी किताब एक सप्तक शृंखला का दूसरा हिस्सा थी, बाकी हिस्से उनके पास नहीं थे। 

हाँ! शहर के पुस्तकालय में उनके किताबों से भरा एक छोटा किताबघर बना रखा था, जहाँ उनकी कुछ पच्चीस किताबें थी। उनमें अधिकांश इतनी पतली थी कि मैं डेढ़ घंटे में तीन बाँच गया। जैसे एक अस्सी पृष्ठों की किताब थी, जिसमें हर पृष्ठ पर बीस वाक्य थे। हर वाक्य में चार-पाँच शब्द। और एक वाक्य कई पन्नों में दोहराया-तिहराया-चौराया…चौंसठवाया जा रहा था। लेखक की यह विशेषता भी है, जिसे पुनरावृत्ति शैली कह सकते हैं।

उनकी किताबें नीनॉर्स्क भाषा में हैं, जो मैं अच्छी तरह पढ़-समझ लेता हूँ। वह पश्चिमी नॉर्वे की भाषा है। नॉर्वे के नामचीन लेखकों जैसे क्नूट हाम्सुन आदि ने भी इसी भाषा के किसी न किसी रूप में लिखी। यह वर्तमान नॉर्वे की अधिक लोकप्रिय लिखित भाषा बुकमॉल से कुछ अलग है।

पहली किताब जो मैंने बाँची उसका शीर्षक है- ‘नोको षेम तिल ओ कोम्मे’ यानी ‘कोई तो आएगा ही’।

कोई तो आएगा ही। आएगा ज़रूर कोई। कोई तो पक्का आएगा। अइबे करेगा। आएगा ही आएगा। तुम बच कर कहाँ जाओगे, बच्चू! आने वाला आएगा। आएगा आने वाला। 

अगर मैं उनकी पुस्तक का अनुवाद करता तो कुछ ऐसे ही वाक्य बन पड़ते। बारम्बार। 

इस पुस्तक में तीन किरदार हैं। एक वह (पुरुष)। दूसरी वह (स्त्री)। तीसरा वह (कोई)।

पहला वह और दूसरी वह समंदर किनारे वीराने में एक घर खरीदते है, जहाँ वे चैन से रहेंगे। जहाँ कोई नहीं आएगा। सिर्फ़ वे दोनों, और उनका घर। उनका घर और वे दोनों। सिर्फ़ और सिर्फ़ वही। और कोई नहीं। 

मगर जनाब! क्या यह मुमकिन है?

इस दुनिया से मुक्ति मरने के बाद ही मिलेगी। वह भी मिलेगी या नहीं, शंका है। मोक्ष का भी तो पेंच है।

उस कथा में एक आदमी आता है। जो यह जानने आया है कि आखिर यह घर खरीदा किसने। बरसों से तो इसका कोई खरीदार नहीं था। इस घर में उसकी बूढ़ी दादी रहती थी, जिससे वह मरते वक्त भी मिल न सका। मरने से पहले भी कई सालों तक नहीं मिला। उसकी दादी नॉर्वे की तमाम दादियों की तरह एक दिन अकेली मर गयी। उसी घर में। जहाँ कोई नहीं आता।

वह आदमी तलब कर लौट गया। मगर उसे (स्त्री) लगता रहा कि वह वहीं कहीं है। दरवाजे के बाहर। वह देख रहा है। वह अब तक नहीं गया। कोई तो है, जो उन्हें अकेले नहीं रहने देगा। उसने पहले ही कहा था, “कोई तो आएगा ही”। और वह आ ही गया। 

जैसे उस घर में पड़ा एक पात्र, जिसमें पुराना पेशाब ‘रखा’ है। किसी ने पेशाब कर छोड़ दिया, और वह वहीं सालों तक पड़ा रह गया। इससे पहले कि वह उस पात्र को खाली कर पाती, वह मर गयी। चूँकि वह अकेली मरी, उसके बाद भी किसी ने उसे खाली नहीं किया। वह बिस्तर के नीचे रह गया। घर बेचने वाले दलाल का ध्यान नहीं गया। वह पेशाब एक मृत व्यक्ति का नहीं था, क्योंकि मृत तो पेशाब कर ही नहीं सकते। वह एक जीवित व्यक्ति के अंग का ही अंश था, जो दफ़्न नहीं हुआ। वह वहीं उसी घर में उन दोनों के साथ मौजूद था, जिन्होंने सोचा था कि वीराने में बंद दरवाजे के अंदर वे अकेले होंगे। कोई नहीं आएगा।

भला ऐसा भी कभी हुआ है कि कोई आए ही नहीं। हम सोशल मीडिया बंद कर लें, फिर भी लोग ताकते-झाँकते पहुँच ही जाएँगे। क्या हुआ गुरु? मर तो नहीं गए? जिंदा हो तो मुझसे बच नहीं पाओगे। कहाँ हो? बाहर निकलो! 

2

सितंबर 2023 की ग्यारह तारीख़ को नॉर्वे में चुनाव हुए। स्थानीय चुनाव। अधिकांश छोटे-छोटे यूरोपीय देशों में दो चुनाव होते हैं। चार-चार साल की अवधि पर। संसद का चुनाव 2021 में हुआ था, और अगला चुनाव 2025 में होगा। स्थानीय चुनाव 2023 में हुए, अब 2027 में होंगे।

संसद में फ़िलहाल लेबर पार्टी (आरबाइदरपार्टी) की सरकार है। उसी पार्टी से मैं स्थानीय प्रत्याशी था। यह चयन उन्होंने अनुमोदन और साक्षात्कार के आधार पर किया था। कुल पैंतीस सीटें थी, जिसमें चुने जाने पर मुझे एक सीट मिलती। लेकिन, यह चुनाव भारतीय चुनावों से काफ़ी अलग है। इसमें हर प्रमुख दल ने अपने पैंतीस प्रत्याशी खड़े किए और ये सभी पैंतीस एक ही क्षेत्र में साथ घूम-फिर कर चुनाव प्रचार कर रहे थे। इसी तरह अन्य दलों के प्रत्याशी भी।

हम सभी दल क्षेत्र के प्रमुख स्थलों पर अपना-अपना तंबू लगा कर खड़े होते और आते-जाते लोगों को अपने दल की योजना बताते। भले दलों में राजनीतिक विवाद हो, मगर वहाँ सभी मिल-जुल कर एक दूसरे का तंबू लगाने में मदद करते। साथ कॉफी पीते बतियाते। हँसी-ठट्ठा। कई बार ऐसा भी होता कि लोगों से बतियाते हुए लगता कि इनके लिए हमारे दल से बेहतर दूसरा दल होगा, तो उन्हें उनके तंबू की तरफ़ भेज देते। जैसे एक महाशय आए और कहा कि हमें तो कम्युनिस्ट सरकार चाहिए। हमने कहा कि मगर हम तो कम्युनिस्ट पार्टी नहीं, आप पहले फलाने तंबू की तरफ़ जाएँ। अगर वहाँ बात न जमे, तो हम से भी दो टूक बतिया लें।

यूक्रेन युद्ध आदि के बाद जो ब्याज दरों पर प्रभाव पड़ा है, उसके कारण केंद्र सरकार से लोग ख़फ़ा चल रहे हैं। यानी लेबर पार्टी से। हालाँकि हमने यह समझाने की कोशिश की कि स्थानीय चुनाव अलग है, संसद अलग। मगर इसे समझाना कठिन तो है ही। और वह भी समझे-बूझे लोगों को आखिर कोई क्या समझाए।

स्थानीय चुनावों में लेबर पार्टी को पिछले सौ सालों की सबसे बड़ी हार मिली। सौ सालों में पहली बार वह स्थानीय चुनावों में सबसे बड़ी पार्टी बन कर नहीं उभरी। अन्यथा पिछले सौ सालों से वह सबसे बड़ी ताकत थी। जिस जनकल्याणकारी समानतावादी राज्य के रूप में नॉर्वे ख्यात है, वह उसी की देन है। मगर यह भी सच है कि जो दल पचास वर्ष पूर्व था, वह वैसा का वैसा आज तो नहीं है।

पैंतीस सीटों में सरकार बनाने के लिए अठारह सीटें चाहिए थी। हमें मात्र सात मिली। मगर ज़रा रुकिए। यूरोप में सात सीटें बहुत होती हैं, क्योंकि दल भी तो दर्जन से अधिक होते हैं। हमसे अधिक सीटें जिन कंज़रवेटिव खेमे को मिली, उन्हें भी दस सीटें ही मिली। अठारह के आँकड़े से वह भी दूर ही थे। आखिर सेंटर पार्टी जो इन दोनों के बीच का दल है, उन्होंने अपनी छह सीटें मेज पर रखी। यह तय हुआ कि वे दस सीटों वाले दल के साथ सरकार बनाएँगे। यानी कंज़रवेटिव के साथ। (हालाँकि केंद्र सरकार में वही सेंटर पार्टी लेबर पार्टी के साथ गठबंधन में है)

मेरा क्या हुआ?

जो सात सीटें लेबर पार्टी को मिली, उसमें छठे नंबर पर सबसे अधिक मेरे मत थे। इन मतों के आधार पर मैं चुन लिया गया। यह आश्चर्यजनक था क्योंकि पूरे पैंतीस में मैं अकेला ही ग़ैर-नॉर्वेजियन प्रतिनिधि हूँ। क्षेत्र में भारतीयों की जनसंख्या एक प्रतिशत से भी कम है। ऐसे में एक भारतीय प्रत्याशी को चुन लिया जाना एक अजूबी घटना तो थी। मगर मेरे दल के मित्रों ने चुनाव के पहले भी यह कहना शुरू कर दिया था कि मैं उनका महत्वपूर्ण प्रत्याशी हूँ। ऐसा शायद इसलिए भी क्योंकि अखबार में मेरे भिन्न-भिन्न मुद्दों पर नियमित स्तंभ आ रहे थे। ये स्तंभ नॉर्वेजियन भाषा में थे, और मैंने अपने मौखिक संवाद भी खुल कर नॉर्वेजियन में ही रखे थे। इस कारण मैं पूरी तरह ‘बाहरी’ व्यक्ति नहीं था। भाषा का यह महत्व तो है ही, कि वह हमें जोड़ देती है। 

भले मेरे दल को बहुमत नहीं मिला, लेकिन नॉर्वे के संविधान के अनुसार विभाग विपक्षी दलों को भी दिया जाता है। इसमें कोई विवाद नहीं था कि स्वास्थ्य विभाग में मुझे सम्मिलित किया जाए। आखिर मैं इकलौता चिकित्सक प्रत्याशी भी हूँ, और वह कार्य तो अब भी नियमित करता ही रहूँगा।

बहरहाल राजनीतिक पद के साथ एक ज़िम्मेदारी यह भी आती है कि जो भी लिखूँ-बोलूँ, उसकी ज़िम्मेदारी अधिक लूँ। इस कारण हल्के-फुल्के आधे-अधूरे, इधर-उधर के संवादों से दूरी बनानी पड़ सकती है। छोटे देशों की मीडिया भी छोटी-छोटी बातों पर ग़ौर करती है, और बात का बतंगड़ बन जाता है।

3

मैंने देवनागरी में थोड़ा-बहुत लिखा है। कुछ लोगों ने कहा कि कुछ अधिक ही लिखा। रोज लिखा। दो-चार सौ मामूली बोल-चोल भाषा में लिखे शब्द। जो भी पारंपरिक गद्य-पद्य है, उससे अलग। न कोई उपन्यास। न कोई कविता। मगर अलग-अलग प्रकाशकों को लगा कि छपनी चाहिए। कुछ पाठकों को लगा कि पढ़नी चाहिए। और कई लोगों को लगा होगा कि क्या पढ़ना। काफ़ी कुछ ब्लॉग आदि में भी लिखता गया, जैसे अब लिख रहा हूँ। शायद इसलिए भी कि मैं जहाँ पिछले कुछ वर्षों से हूँ, वहाँ नॉर्वेजियन में ही बात करता और लिखता हूँ। इसलिए जहाँ नहीं हूँ, वहाँ अपनी बात वहाँ की भाषा में रखता हूँ।

कुछ प्रकाशकों के पास पिछले एक-दो साल से पांडुलिपियाँ रखी हैं। करारनामा किया है। काम चल रहा है। न मुझे जल्दी है, न उन्हें। दुनिया में किताबों की इतनी कमी भी नहीं कि इसे फ़ौरन से पेश्तर पूरा कर लिया जाए। कुल मिला कर अगले पाँच साल तक हिंदी में एक शब्द न भी लिखूँ, तो भी कुछ किताबें शायद आती ही रहेगी। जिससे लोगों को लगता रहेगा कि मैं लिख रहा हूँ। ऐसा आभास पहले भी कुछ लोगों को होता रहा है कि मैं निरंतर लिखता जा रहा हूँ, छपता जा रहा हूँ। पता नहीं यह सब क्यों हो रहा है। रुक क्यों नहीं जाते?

तो फ़र्ज़ करिए कि मैं रुक गया। मैंने हिंदी में पुस्तक-निमित्त लिखना कुछ सालों के लिए बंद कर दिया। अब कहीं कुछ नहीं। मेरा सोशल मीडिया भी वीरान है। मैं भी मौजूद नहीं।

मगर साल-दो साल बाद मेरी लिखी किताब छप कर आ जाती है। जो मैंने साल-दो साल पहले लिखी। उस वक्त फिर से वही आभास होगा। 

कोई तो आएगा ही

आएगा ही कोई तो

कहाँ बच कर जाएँगे

किससे बच कर रह पाएँगे

Something is going to come.

Nokon kjem til å komme. 

3 comments
  1. 😁
    कभी तो लौट कर आएगा ही!
    बहरहाल, बहुत-2 बधाईयाँ राजनीति के नए पड़ाव की।

  2. अगर आप यहाँ होते तो आपको झप्पी देते और कहते, मिठाई नहीं खिलानी थी तो नहीं खिलाते, इतनी जलेबी काढ़ने की क्या जरूरत थी। मगर लेखक जलेबी न काढ़े तो क्या लिखे।
    खैर बधाई पर आपका हक बनाता है। आपको बधाई मिलनी ही चाहिए। एक नहीं दो नहीं, कई कई मिलनी चाहिए। पहली नोबल उस भाषा के लेखक को मिला है जिसमें आप लिखते पढ़ते हैं। जिसे आप समझते हैं, और आज न कल जिस भाषा सी आप सीधे ही हिन्दी और अङ्ग्रेज़ी और शायद मैथिली-भोजपुरी में अनुवाद भी करेंगे ही। आपके देश के लेखक को नोबल मिला है, यह भी बधाई की बात है। आज राजनीति में उतरे तो हमें लगा वामा गांधी के वक़्त का जुनून है, चल पड़ा। फिर लगा नहीं आप तो हमेशा की तरह धुर धुत्त गंभीर हैं। तो बधावा मन में बजा ही रहे थे। अब तो आप जीत गए। उसकी बधाई बनती है। फिर स्थानीय स्वास्थ्य मंत्री भी बन ही गए हैं। बधाई तो इस बात की भी बनती है। बधाई तो बहुत बहुत बनती है। आपकी बधाई मिलनी ही चाहिए।

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