यह ‘मिनट्स ऑफ एजुकेशन’ है जो कलकत्ता में शिक्षाविद थॉमस मेकाले ने 2 फ़रवरी, 1835 को प्रस्तुत किया-
“मुझे बताया गया कि यहाँ की शिक्षा 1813 के ब्रिटिश अधिनियम के तहत निर्धारित की गयी है, जिसमें कोई भी बदलाव संवैधानिक माध्यम से ही संभव है।
फ़िलहाल एक ख़ास रकम साहित्य के प्रचार-प्रसार के लिए मुहैया की गयी है। यहाँ साहित्य का अर्थ वे तमाम संस्कृत और अरबी ग्रंथ हैं। मैं पूछता हूँ, क्या यहाँ के लोगों को मिल्टन की कविताएँ और न्यूटन की भौतिकी नहीं पढ़नी चाहिए? क्या वे कुश-घास से देवताओं की पूजा करना ही सीखते रहेंगे? अगर हम मिस्र का उदाहरण लें, तो वहाँ भी कभी समृद्ध सभ्यता थी। अब वे कहाँ हैं? क्या उन्हें भी आदि काल के चित्रलेख (हीरोग्लिफिक्स) ही पढ़ाए जाएँ?
मुझे तर्क दिया गया कि यहाँ के समाज को ध्यान में रखते हुए यह निर्णय लिया गया। लेकिन, क्या अरबी और संस्कृत जैसी भाषाएँ अब यहाँ के समाज में भी मृतप्राय नहीं है? मैं धर्म के साथ छेड़-छाड़ नहीं करना चाहता, लेकिन शिक्षा में बदलाव तो अपेक्षित है। क्या जेनर द्वारा स्मॉल पॉक्स के टीका खोजे जाने के बाद भी इन्हें टीका सिर्फ इसलिए नहीं दिया जाए क्योंकि यहाँ की संस्कृति नहीं है?
आज भारत में बोली जाने वाली एक भी ऐसी भाषा नहीं, जिसमें कोई उत्तम साहित्य रचा जा रहा हो, या जो अनुवाद योग्य हो। उन्हें एक ऐसी भाषा में शिक्षा देनी होगी, जो सर्वथा मानक है। कमिटी के आधे लोग अरबी-संस्कृत के पक्ष में हैं, आधे अंग्रेज़ी के। आप ही बताएँ कि तीनों में सबसे उपयुक्त कौन सी भाषा है?
मुझे संस्कृत और अरबी का कोई ज्ञान नहीं, किंतु मैंने अनुवाद पढ़े हैं और विद्वानों से विमर्श किया है। मैं यह ताल ठोक कर कहता हूँ कि तमाम अरबी और संस्कृत साहित्य मिला कर वह ज्ञान नहीं दे सकते, जो आज यूरोपीय पुस्तकालय का मात्र एक कोना दे सकता है। संस्कृत के सभी ग्रंथों से मिला ज्ञान तो हमारे प्राथमिक विद्यालयों के पाठ्यक्रम के समकक्ष है।
हमें उन्हें अंग्रेज़ी में शिक्षा देनी ही होगी, जो विश्व की भाषा बनती जा रही है। तमाम साहित्य, इतिहास, विज्ञान, तत्त्वमीमांसा, संस्कृति अध्ययन अंग्रेज़ी में हो रहा है। भारत का शासक-वर्ग अंग्रेज़ी पढ़ता और जानता है। यहाँ के समृद्ध परिवार के लोग अंग्रेज़ी ही पढ़ते हैं।
दूसरी बात यह कि हम इन्हें यूरोपीय विज्ञान पढ़ाएँगे। इनके पुस्तकों में है क्या? एक तीस फ़ीट के राजा मिलते हैं, जो तीन हज़ार वर्ष जीते हैं? एक समुद्र मिलता है, जो मक्खन से भरा है?
हम इन्हें अरबी और संस्कृत पढ़ाने के लिए अपने खजाने से खर्च करते रहे हैं, फिर भी कम लोग पढ़ने आते हैं। इन भाषाओं की किताबें आपने छपवाई, मगर कितनी बिकी? मैंने तो रसीद देखे हैं, अब तक कुछ हज़ार रुपए से अधिक की किताबें बिकी ही नहीं। यहीं के रईस अंग्रेज़ी पढ़ने के लिए फ़ीस भर कर हमारे खजाने में धन डालते रहे हैं। इसी से स्पष्ट है कि यहाँ की जनता क्या चाहती है। अगर हम इन्हें अंग्रेज़ी की शिक्षा देने पर खर्च करें, तो गरीब भी यह भाषा पढ़ पाएँगे।
इतना ही नहीं, इन्हें अरबी और संस्कृत पढ़ा कर आप अपनी अंग्रेज़ी शिक्षा के ख़िलाफ़ एक विपक्ष खड़ा कर रहे हैं। ये जब एकजुट होंगे, फिर इनकी ताकत आपको मालूम पड़ेगी, जो हमारे शासन को हिला कर रख देगी।
मैंने हिन्दुओं में यह बात ग़ौर की है कि वह जितनी आसानी से अंग्रेज़ी सीख लेते हैं, उतनी आसानी से संस्कृत नहीं पढ़ पाते। मुझे ऐसे हिन्दू मिले जिन्हें मिल्टन की कविताएँ कंठस्थ हैं। मुझे नहीं लगता कि यह भाषा उनके लिए कठिन होगी।
मुझे मालूम है कि अभी हमारे पास इतना धन नहीं कि पूरे भारत को शिक्षित कर सकें। मगर हमें एक ऐसा भारतीय वर्ग तैयार करना है, ‘जिसका रंग भारतीय हो, रग़ों में भारतीय खून दौड़ता हो, लेकिन उसका स्वाद अंग्रेज़ों जैसा हो। जो नीति और बुद्धि से अंग्रेज़ हो’। वह वर्ग ही शेष भारत को धीरे-धीरे अपने रंग में ढालेगा।
मेरा बस चले तो मैं आज ही सभी अरबी और संस्कृत के प्रेस बंद कर दूँ। कलकत्ता के मदरसों और संस्कृत कॉलेज पर ताला लगा दूँ। सिर्फ बनारस का संस्कृत महाविद्यालय और दिल्ली का मुस्लिम कॉलेज रहने दिया जाए। जिन्हें रुचि होगी, वहाँ पढ़ लेंगे।
अगर आपकी कमिटी मुझ से सहमत नहीं, तो मैं सदस्यता से इस्तीफ़ा देता हूँ। मैं यहाँ की भाषाओं में लिखे वाहियात विज्ञान और इतिहास को पढ़ाने के लिए सरकारी ख़ज़ाना खर्च करने के समर्थन में क़तई नहीं। यहाँ के लोग वर्तमान शिक्षा-पद्धति में पढ़ते रहे, तो भविष्य में भूखे मरेंगे। मैं इस पाप का भागी नहीं बनना चाहता”।
Author Praveen Jha narrates and quotes the speech by Lord Macaulay given in 1835 in his hindi translation.
यह भाषण पुस्तक रिनेशा में उद्धृत और विश्लेषित है। प्रवीण झा की पुस्तक ख़रीदने के लिए क्लिक करें।