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आसमान से गिरे, खजूर पर अटके।
कालीकट से भाग कर लौटते हुए पुर्तगाली जहाज तूफ़ानी मौसम के कारण पुराने रास्ते से अफ़्रीका नहीं लौट सके। वह भारत के पश्चिमी तट के किनारे ही आगे बढ़ने लगे। पहले वह वर्तमान केरल के ही किसी तट पर पहुँचे, जिसके विषय में उन्होंने लिखा-
“सोमवार, 10 सितंबर को हम कोम्पिया (Compia) पहुँचे जहाँ के राजा ब्याकोत्ते (Biaquotte) कालीकट के राजा के शत्रु थे। वहाँ कुछ मछुआरे हमारे जहाज पर बड़े आराम से मछली बेचने आ गए। वहाँ रुक कर तूफ़ान थमने पर हम आगे बढ़े”
*अंग्रेज़ी अनुवादक के अनुसार कोम्पिया कालीकट के उत्तर में कन्नूर (केरल) का क्षेत्र हो सकता है, जिनका कालीकट के समुत्री से विवाद था
वहाँ से उसी तट पर आगे बढ़ते हुए, वे पहले नेतरानी द्वीप पहुँचे। चूँकि मैंने स्वयं 2014 में इस तट के साथ-साथ यात्रा की थी, तो मुरुडेश्वर महादेव के निकट यह दिल के आकार का सुंदर द्वीप वाकई मनोहारी है। पंद्रहवीं सदी में यह जंगल रहा होगा। इसे स्थानीय लोग कबूतर द्वीप भी कहते हैं। पुर्तगाली यात्रा विवरण में इसका नामकरण सांता मारिया द्वीप किया गया है। कुछ और आगे बढ़ने पर उन्हें आखिर वह द्वीप मिला, जो उनका भविष्य था- अंजेदिवा द्वीप।
वर्तमान समय में यह द्वीप उत्तरी कर्नाटक के कारवार नौसेना बेस पर स्थित है, लेकिन सदियों तक इस पर पुर्तगालियों का क़ब्ज़ा रहा। शुरुआत लगभग उसी दिन हो गयी जब वास्को डी गामा के जहाज ने वहाँ लंगर गिराया।
वहाँ जहाज लगते ही एक स्थानीय युवक उनके पास आया तो उन्होंने अरबी में पूछा, “तुम मुसलमान हो?”
उसने कहा, “नहीं (मैं ईसाई हूँ)”
*पूरे यात्रा विवरण में ग़ैर-मुसलमानों को ईसाई और मंदिरों को गिरजाघर कहा गया है।
“यहाँ कहीं साफ़ पानी मिलेगा?”, उन्होंने पूछा
“हाँ! वहाँ पहाड़ों के बीच बहुत सुंदर झरना है”
“अच्छा? और भोजन? उसका भी प्रबंध है?”
वह भाग कर गया, और अपने चार साथियों के साथ कुछ सब्जियाँ और मुर्गे लेकर आया। उसने कहा कि सूअर का प्रबंध भी कर देगा। साथ ही उसने कुछ दालचीनी लाकर दी, और बताया कि जंगल में कई दालचीनी के पेड़ हैं। वे हैरान थे कि भला इस छोटे से द्वीप पर इतनी चीजें कैसे मौजूद है।
जंगल के विषय में वर्णित है-
“वहाँ एक पत्थर के गिरजाघर के अवशेष थे जिसे मुसलमानों ने तोड़ दिया था। सिर्फ़ एक छोटा पूजास्थल (chapel) बचा था, जिसके ऊपर फूस की छत थी। उसमें तीन काले पत्थर थे, जिसकी पूजा स्थानीय ईसाई कर रहे थे। उसके बगल में एक जलकुंड था जो पुराने गिरजाघर का हिस्सा था…
कुछ दिनों बाद वहाँ कुछ नावों पर लोग आए। हमें लगा कि वे लुटेरे हैं। जब हमने उन पर बंदूक तानी, वे कहने लगे- ताम्बरम! ताम्बरम!…
हमें मालूम पड़ा कि वहाँ के ईसाई ताम्बरम कहलाते हैं”
*यहाँ भी संभवतः वह तीन शिवलिंगों का वर्णन कर रहा था। ताम्बरम मलयाली संबोधन है। उसका ईसाई से कोई संबंध नहीं।
इन विवरणों को पढ़ कर यही बात पक्की होती है कि यूरोपीय ईसाइयों के लिए क्रूसेड खत्म नहीं हुआ था। भारत में भी उनकी नज़र में मुख्य शत्रु मुसलमान थे। बाकी सभी लोगों को वे मनमर्ज़ी ईसाई कोष्ठक में रखते जा रहे थे।
वह द्वीप उन्हें इतना पसंद आया कि वे वहाँ दो हफ़्ते जम गए। एक दिन उनके पास एक सफेद दाढ़ी वाला लगभग चालीस वर्ष का व्यक्ति आया। उसने आश्चर्यजनक रूप से वेनिस की भाषा में अभिवादन किया। हालाँकि यह कोई बड़ी बात नहीं थी, क्योंकि कालीकट से वेनिस तक कारोबार चलता ही था।
वास्को डी गामा ने कहा, “इसे बंदी बना लो। यह ज़रूर कालीकट का ख़ुफ़िया है”
उसने कहा, “नहीं नहीं। मैं तो दरअसल आपकी ही ज़मीन का हूँ, जो ग़लती से यहाँ आकर फँस गया। यह बात सही है कि अब मैं उन सुल्तान आदिल शाह का सेवक हूँ, जिनकी चालीस हज़ार की सेना है। मैं मुसलमान बन चुका हूँ, मगर मेरे दिल में अब भी आपके परमेश्वर हैं।”
यह आदमी इस पूरी घटना का सबसे फ़िल्मी कैरेक्टर है। यह कौन था, यह रहस्य ही है। कुछ उसे पोलैंड का यहूदी कहते हैं, जो येन-केन प्रकारेण भारत आ गया। विवरण पढ़ कर यही लगता है कि वह शिया के साथ शिया और सुन्नी के साथ सुन्नी हिसाब-किताब का आदमी था।
उसने आगे कहा, “मुझे खबर मिली कि कालीकट में कुछ विदेशी आए हैं जिनकी भाषा समझ नहीं आ रही। मैं भागा हुआ आया कि ज़रूर अपने मुल्क से, अपने धर्म का कोई आया है। मैंने अपने सुल्तान से जब कहा तो उन्होंने आपके लिए तोहफ़े दिए और यह भी कहा कि किसी चीज की ज़रूरत हो, हम मदद करेंगे”
पाओलो डी गामा ने कहा, “यह तो अच्छी बात है। मगर तुम्हें हमसे क्या चाहिए?”
उसने चापलूसी करते हुए कहा, “आपके पास तो सब कुछ है। मगर मुझे अगर थोड़ा चीज (cheese) मिल जाता तो…न जाने कितने साल हो गए देखे हुए”
पाओलो ने कहा, “ठीक है। यह लिए जाओ। और कुछ?”
“नहीं नहीं। और कुछ नहीं। यह तो अपने एक दोस्त को दिखाना है, जिससे मैंने कई बार चर्चा की। उसे भरोसा ही नहीं होता कि ऐसी भी कुछ वस्तु है। मैं तो बस आपके साथ कुछ दिन गुजारना चाहता हूँ”
वह वहीं द्वीप पर उनको कहानियाँ सुनाता रहता, जिनमें कुछ अविश्वसनीय थी, और कुछ विरोधाभासी। वास्को डी गामा को शक होने लगा कि यह कोई बहुरुपिया ही है। उसने कुछ स्थानीय लोगों से तलब की।
उन्होंने कहा, “इसे कौन नहीं जानता? यह तो इस इलाके का ठग है, जो मीठी-मीठी बातें कर लोगों को लूट जाता है”
वास्को ने अपने लोगों से कहा, “यह जो भी है, हमारे काम का हो सकता है। इसे हम पुर्तगाल लेकर जाएँगे। आखिर यह कहता तो है कि सुल्तान का आदमी है, तो ज़रूर उनके रहस्य भी जानता होगा।”
पाओलो ने कहा, “क्या पता वह बात भी झूठी हो”
वास्को ने हँस कर कहा, “हो तो सकता है। मगर यह बातूनी आदमी हमारे राजा को खूब पसंद आएगा। आखिर कोई ऐसा तो हो, जो झूठी ही सही, मगर पूरब की कहानियाँ सुनाए”
यह आदमी बाद में वास्को डी गामा का पटशिष्य बना, और उसका नामकरण गैस्पर डी गामा कर दिया गया। उम्मीद के मुताबिक़ उसने पुर्तगाल के राजा मैनुएल का दिल जीता, और भारत की जहाज़ी यात्राओं की योजना बनायी। वह पुर्तगालियों के भारत में पैर जमाने की महत्वपूर्ण कड़ी बना। अगर वह आदिल शाह के भेजा भेदिया था तो वह ऐसा डबल एजेंट बना जिसने पुर्तगालियों के लिए गोवा का रास्ता कुछ हद तक साफ़ किया।
वास्को डी गामा की यह पहली यात्रा किसी नयी खोज की तरह नहीं, बल्कि उस समय के जियोपोलिटिक्स को समझने के लिए देखनी चाहिए।
पुर्तगालियों के बाद यूरोपीय देशों के जहाज़ आते चले गए। पुर्तगाली धीरे-धीरे उसी परिधि में सिमट कर रह गए जहाँ गामा पहली बार आया था। लेकिन बाकियों के जाने के बाद भी वे अंत तक जमे रहे। वास्को डी गामा का गाड़ा खूँटा अब भी पूरी तरह सूखा नहीं है। पुर्तगाली गोवा के भारतीय वंशज आज भी पुर्तगाल की नागरिकता ले सकते हैं, और ले रहे हैं। अगर वास्को डी गामा न होता तो क्या यह सब कुछ न हुआ होता?
इतिहास में ऐसे सवालों का कुछ मतलब ही नहीं।
इसी नोट के साथ वास्को डी गामा की पहली यात्रा पर शृंखला का अंत होता है
In last part of Vasco Da Gama series, Author Praveen Jha narrates the events around first landing of Vasco Da Gama in Goan territory.
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