वास्को डी गामा खंड 5 – बड़े बेआबरू होकर निकले

Vasco
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पुर्तगालियों के पास देने के लिए कुछ नहीं था। वे अरबी व्यापारियों से संपत्ति के मामले में कमजोर दिखे। लेकिन, कहीं न कहीं यह आकलन अधूरा था और भविष्य में इसकी क़ीमत चुकानी पड़ी। इस खंड में उस घटनाक्रम का विवरण है, जब वास्को डी गामा को कालीकट छोड़ कर भागना पड़ा।

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कालीकट के समुत्री ने इशारा किया कि वास्को डी गामा सामने लगे पत्थर के बेंच पर बैठ जाएँ। उनके लिए फल लाए गए।

“आप जो भी कहना चाहते हैं, हमारे दरबारियों के सामने कहिए। यह सभी मेरे विश्वासपात्र हैं।” समुत्री ने कहा

“महामहिम! मुझे कहने में कोई हर्ज नहीं। लेकिन मैं यहाँ पुर्तगाल के राजा का दूत बन कर आया हूँ। उनका आदेश है कि मैं सिर्फ आपके समक्ष ही अपनी बात रखूँ।”

“ठीक है। फिर आप मेरे साथ कमरे में आइए।”

समुत्री (समुतिरी) और वास्को डी गामा एक कमरे में चले गए। अंदर पहुँच कर वास्को डी गामा ने पुर्तगाल की एक झूठी बनावटी तस्वीर पेश की। ऐसी तस्वीर जिससे यह आभास ही न हो कि उसे भारत की संपत्ति में क्यों रुचि है।

गामा ने कहा,

“महामहिम! मैं पुर्तगाल के राजा मैनुएल का मुलाज़िम हूँ। मेरे राजा कई प्रांतों के राजा है, और उनसे अधिक संपत्ति दुनिया में किसी की नहीं। उन्हें सोने-चाँदी की कोई तलब नहीं, क्योंकि वह तो उनके राज्य में ही अकूत है। उन्हें मात्र उस पूरब के ईसाई साम्राज्य की तलाश है, जिसे ढूँढने के लिए वह साठ वर्षों से जहाज भेज रहे हैं। अगर मैं उन राजा को नहीं ढूँढ सका तो मेरा सर कलम कर दिया जाएगा। राजा ने ख़ास आपसे मित्रता का संदेश भेजा है।”

* वास्को डी गामा के जहाज़ी जर्नल में वर्णित इस कथन से यह अनुमान लगता है कि गामा को संदेह था कि समुत्री ईसाई ही हैं। पुर्तगाली उन्हें राजा ज़ामोरीन (Zamorin) पुकारने लगे थे। 

समुत्री ने कहा, “अवश्य! मुझे आपके यशस्वी राजा से मित्रता मंजूर है।”

“धन्यवाद! यह बेहतर होगा कि आपके कुछ दूत भी मेरे साथ पुर्तगाल चलें और आपका संदेश वही दें। मेरे राजा को भी भरोसा होगा कि हम वाकई भारत पहुँचे थे।”

“हाँ! क्यों नहीं? अवश्य।”

“महामहिम! अब रात हो गयी है। आपकी आज्ञा हो तो हम कहीं विश्राम करना चाहेंगे।”

“अवश्य! मैं इसकी व्यवस्था करने कह देता हूँ। आप किनके साथ रहना पसंद करेंगे? विदेशी मुसलमानों के साथ?”

“हम तो किसी को नहीं जानते महाराज। बेहतर होगा, अगर हमारी व्यवस्था अलग से की जा सके।”

“हाँ हाँ! अलग से भी हो जाएगी। आप हमारे मेहमान हैं।”

वास्को डी गामा और उनके साथियों को लेकर राजा के एक मुसलमान अधिकारी राजमहल से दूर जंगलों के रास्ते ले गए। रास्ते में बारिश तेज हो गयी, तो वह कुछ देर अपने बंगले पर ले गए। वहाँ से घोड़े पर बैठ कर जाने की योजना थी। चूँकि उस घोड़े में पैर रखने की ज़ीन (सैडल) नहीं थी, गामा असमंजस में पड़ गया कि आखिर चढ़ूँ कैसे। उसने कहा कि वह पैदल ही जाएगा। विश्राम-स्थल पर पहले से पुर्तगाली जहाज़ी पहुँच चुके थे। गामा के पहुँचते ही बिस्तर लगाए जाने लगे। जहाज़ से कई तोहफ़े उतार लिए गए थे जो समुत्री को पेश करने थे।

सुबह उठते ही गामा ने अपने तोहफ़े सजा कर रख लिए।

एक दर्जन यूरोपी कपड़े, चार लाल रंग के कनटोपे (हुड), छह टोपियाँ, चार मूँगे जड़े धागे, छह हाथ धोने के पात्र, एक डब्बा शक्कर, दो डब्बे तेल और दो डब्बे शहद।

उसने कालीकट के वली और मुसलमान दरबारी को दिखा कर पूछा, “क्या यह तोहफ़े हम राजा को पेश कर सकते हैं?”

यह तोहफ़े देख कर ही वे हँसने लगे, “यह क्या ले आए हो? यह तो अरब का ग़रीब से ग़रीब व्यापारी न लाए। हमारे राजा सोने के अलावा कोई तोहफ़ा लेंगे ही नहीं। ये किसी काम के नहीं।”

गामा का चेहरा उतर गया। उसने कहा, “सोना तो मैं लेकर आया ही नहीं। मैं तो साधारण राजदूत हूँ, आपकी तरह व्यापारी नहीं। यह सब तो मैंने अपनी ओर से इकट्ठे किए हैं। मैं वादा करता हूँ कि जब लौट कर आऊँगा, सोने के तोहफ़े ही लेकर आऊँगा।”

“तुम्हें ये रद्दी की टोकरी लेकर जानी है, तो जाओ। हमें क्या?”

“आप अपने मित्रों से भी पूछ लीजिए।”

“हाँ! अभी बुलाता हूँ। सुनो भाईयों! देखो! यह क्या तोहफ़े लेकर आए हैं।” उन्होंने अन्य मुसलमान व्यापारियों को आवाज दी।

सभी तोहफ़े देख कर उपहास करने लगे। गामा शर्म से गड़ गया। उसे पहली बार अहसास हुआ कि वह एक ग़रीब मुल्क़ का मुलाज़िम है।

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उस दिन वह समुत्री से मिल नहीं सका। अगले दिन उसे राजमहल ले जाया गया, लेकिन वहाँ पहले से कई मुसलमान व्यापारी मौजूद थे। गामा चार घंटे तक राजा के दरवाजे के बाहर बस मुलाकात का इंतजार करता रहा। द्वारपाल उसे अंदर जाने नहीं दे रहे थे, और बाकी लोग आ-जा रहे थे। आखिर गामा को बुलाया गया।

“मैं तो कल आपकी राह देख रहा था।” समुत्री ने कहा।

“महामहिम! क्षमा चाहता हूँ। हम लंबे सफर में थक गए थे, तो एक दिन आराम कर लिया।”

“हमें खबर मिली कि आपके पास हमें देने के लिए कुछ भी नहीं है। आप तो कह रहे थे कि आपके राजा दुनिया में सबसे धनी हैं।” समुत्री ने तंज में कहा।

“हम दरअसल खोज करने निकले थे। ऐसी खोज पहले भी होती रही है, और असफल रही है। इसलिए महाराज तोहफ़े नहीं भेजते।”

“क्या खोजने निकले थे? पत्थर या आदमी? अगर आदमी खोजने निकले थे तो फिर तोहफ़े क्यों नहीं लाए?”

“मैं वादा करता हूँ महामहिम कि मैं अगली दफ़ा ढेरों तोहफ़े लाऊँगा।”

“आपके राजा ने कोई चिट्ठी तो दी होगी या यूँ ही भेज दिया?”

“चिट्ठी दी है महाराज! मैं अभी पेश करता हूँ लेकिन मेरी इच्छा है कि उन चिट्ठियों को कोई ईसाई पढ़ कर सुनाए। आपके मुसलमान दरबारियों पर मुझे भरोसा नहीं।”

“ठीक है। खुर्रम को बुलाता हूँ। वह ईसाई है।”

चिट्ठी पुर्तगाली और अरबी भाषा में थी। पुर्तगाली चिट्ठी गामा ने खुद पढ़ कर सुनाई, और अरबी चिट्ठी खुर्रम ने पढ़ी और समुत्री को सुनायी। वह चिट्ठी सुन कर प्रसन्न तो हुए लेकिन अब भी गामा पर उन्हें भरोसा नहीं हो रहा था। 

“मुझे मालूम पड़ा है कि तुम्हारे जहाज़ पर सोने की मूर्ति है।” राजा ने पूछा।

“वह हमारी देवी सांता मरिया की है, और सोने का बस मुलम्मा चढ़ा है। क्षमा करें! देवी की मूर्ति यूँ मैं किसी को दे नहीं सकता।”

“ठीक है। देनी भी नहीं चाहिए। यह बताओ, तुम्हारे देश की कुछ पैदावार है?”

“हाँ! मक्का, कपड़े, लोहे, काँसे। कई चीजें हैं।”

“कुछ लेकर आए हो?”

“हाँ! आप कहें तो हम अभी लेकर आते हैं। तब तक हमारे लोगों को विश्राम-स्थल में रुकने की आज्ञा दें।”

“मैं क्या करूँगा तुम्हारे मक्के और कपड़े लेकर? तुम अपने सभी लोगों के साथ जहाज पर लौट जाओ। वहीं बाज़ार लगाओ। बेचो और निकलो।” राजा ने तल्ख़ी से कहा।

वास्को डी गामा टका सा मुँह लेकर लौट गया। लेकिन जहाज पर वापस लौटने में मुसलमानों का दल बाधा डालने लगा। उन्होंने उसे विश्राम-स्थल में घेर कर रख लिया। 

गामा ने उन्हें कहा, “मुझे कोई जाने की जल्दी नहीं। राजा ने हमें जहाज पर लौटने कहा है। अगर वह चाहें तो मुझे रोक सकते हैं। अन्यथा आप हमें जाने दें।”

“रोकना तो हम भी नहीं चाहते। लेकिन तुम्हें जाने भी नहीं देंगे।”

“यह कैसी शर्त है? हम तो भूखे मर जाएँगे।”

“उसकी हमें परवाह नहीं। तुम यहाँ से नहीं जा सकते।” मुसलमानों ने कहा।

“लेकिन मेरे भाई तो अब भी जहाज पर हमारा इंतजार कर रहे हैं।”

“तुम उनके नाम एक चिट्ठी लिख कर दो। वे भी यहीं जहाज लेकर आ जाएँ।”

“वे मेरी चिट्ठी से नहीं आएँगे। उन्हें अंदेशा हो चुका होगा कि हमें पकड़ लिया गया है।” गामा ने कहा। 

धीरे-धीरे कई सैनिकों ने गामा को घेर लिया, और वह बुरी तरह फँस गया। अगले दिन कालीकट के वली (governor) उससे मिलने आये।

उन्होंने कहा, “गामा! अपने लोगों से कह दो कि जहाज का सारा माल नीचे उतार दें। राजा का नियम है कि जो भी जहाज आए, वह सौदा पूरा कर ही लौटे। तुम्हें सब कुछ यहाँ बेच कर ही जाने की इजाजत है।”

“जरूर! हम सारा माल यहीं उतार देंगे। मैं अभी चिट्ठी देता हूँ।”

गामा ने माल तो उतरवा दिया लेकिन राजा को संदेश भिजवाया कि उसे जबरन रोक लिया गया था। राजा यह सुन कर भड़क गए और आदेश दिया कि गामा को कोई हानि न पहुँचाई जाए और उसका माल खरीद लिया जाए। कुछ मुसलमान व्यापारी माल देखने आए भी लेकिन ‘पुर्तगाल पुर्तगाल’ कहते हुए थूक कर चले गए। 

गामा ने एक नयी चाल चली। जहाज वहीं तीन महीने तक टिकाए रखा। पुर्तगाली दो-तीन के समूह में उतर कर स्थानीय निवासियों से संपर्क साधने लगे। कुछ हल्की-फुल्की खरीद-फरोख़्त कर मित्रता बढ़ाते। वे स्थानीय संस्कृति को अधिक से अधिक समझ कर दर्ज़ करते जा रहे थे।

13 अगस्त 1498 को गामा ने समुत्री को संदेश भिजवाया –

“हम अब पुर्तगाल लौट रहे हैं। राजा अगर अपने किसी दूत को पुर्तगाल साथ भेज सकें, तो हम भी अपने दो लोगों को यहाँ गिरवी छोड़ जाएँगे। गुज़ारिश है कि हमारे राजा को सबूत देने के लिए कुछ लौंग और दालचीनी भी साथ भेजें”

समुत्री ने जैसे ही पुर्तगाली संदेश-वाहक को देखा, चिढ़ कर कहा, “यहाँ क्या करने आए हो? मैं कोई संदेश पढ़ने वाला मुंशी दिखता हूँ? अपने कप्तान से जा कर कहो कि इतने दिनों का कर – कुल 600 अशर्फ़ी जमा कर जाए।”

उस संदेश-वाहक के निकलते ही उसे कुछ आदमियों द्वारा बंदी बना लिया गया। जब यह खबर गामा तक पहुँची, उसने भी चार दिन बाद अठारह स्थानीय मछुआरों को एक नाव से पकड़ कर जहाज पर बंदी बना लिया। उसने शर्त रखी कि अगर उसके आदमी को नहीं लौटाया तो उन अठारह लोगों का सर कलम कर देगा।

समुत्री ने उस बंदी व्यक्ति डियोगो डायस को बुलवाया और कहा, “यह काम मेरा नहीं था। यह मेरे किसी बदमाश सेवक का था। मैं कभी ऐसी घिनौनी हरकत नहीं करता कि अपने घर आए मेहमान को बंदी बना लूँ। तुम अपने कप्तान को संदेश भेज दो कि वह सभी बंदियों को छोड़ दे, और पुर्तगाल लौट जाए…तुम यहीं रुक कर अपने माल की देख-भाल करो, क्योंकि सौदा अभी पूरा नहीं हुआ।”

समुत्री ने पुर्तगाल के राजा के नाम एक ताल-पत्र पर चिट्ठी लिख कर दी, “आपके राज्य से वास्को डी गामा नामक व्यक्ति मुझसे मिला। मुझे खुशी हुई। हमारे राज्य में ढेरों लौंग, दालचीनी, अदरक, काली मिर्च और बेशकीमती पत्थर हैं; जिसे आप सोने, चाँदी, जवाहरात देकर खरीद सकते हैं।”

वास्को डी गामा ने डियोगो डियास से यह चिट्ठी ली लेकिन उसे वापस नहीं भेजा। उसके बदले छह पुर्तगाली कैदियों को तट पर उतार दिया। एक ट्यूनिसिया का व्यापारी जो सबसे पहला मित्र बना था, वह भी गामा के जहाज पर चढ़ गया। उसके जान के पीछे कुछ मुसलमान पड़ गए थे, क्योंकि उसने गामा से दोस्ती की थी। गामा ने बंदी बनाए अठारह भारतीयों को वापस नहीं किया। 

जब गामा के जहाज ने लंगर उठाया और जाने लगे, तो कई सैनिक आक्रमण करने आए। पुर्तगालियों ने जहाज से गोलियाँ दागनी शुरू की और आखिर भागने में सफल हुए।

गामा बड़ा बेआबरू होकर कालीकट से निकला, लेकिन उसने वहाँ की राजनीति को कुछ हद तक समझ लिया। वहाँ एक धनी राजा था, जो मुसलमान व्यापारी दरबारियों से घिरा हुआ था। उसे इस समीकरण पर किसी तरह फ़तह पानी थी।

(आगे की कहानी खंड 6 में)

In part 5 of Vasco Da Gama series Author Praveen Jha describes the rejection of Portugese by Zamorin of Calicut, and narrow escape of Vasco Da Gama.

Books by Praveen Jha


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