वास्को डी गामा – खंड 3 – अरबी बनाम पुर्तगाली

Poster of vasco da gama part 3
सेंट हेलेना में ईसाई क्रॉस लगाते नाविक
अफ़्रीका के तटों पर इस्लाम राज था। वास्को डी गामा को लिए यह चुनौती थी कि भारत पहुँचने में मदद कैसे ली जाए। कहीं लड़ाई, कहीं कूटनीति, और कहीं झूठे वादे उसका पथ प्रशस्त कर रहे थे। भारत का रास्ता दिखाने वाला सबसे उचित व्यक्ति आख़िर कौन हो सकता था? तीसरे खंड में पुर्तगाली और अरबी लोगों की मुलाक़ात पर बात

खंड 2 से आगे

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लगभग तीन महीने इस पागल समंदर में बिताने के बाद नाविकों की हालत खस्ता हो चुकी थी। उल्टियों से जहाज दुर्गंधित था, और भोजन की इच्छा खत्म हो चुकी थी। इस अग्निपरीक्षा में वे भी हिम्मत हार रहे थे, जो पहले बार्तालामू डायस के साथ यह यात्रा कर चुके थे। तभी नवंबर का महीना आया। उन्हें अचानक कुछ खाड़ी के जंगली घास दिखने शुरू हुए, और आसमान में पंछी। ये सबूत था कि अब वे तट के निकट हैं, और अगर सभी गणित ठीक हैं, तो वह अफ्रीका के आखिरी छोर के पास हैं। जैसे-जैसे ये तीनों जहाज इसकी ओर बढ़ रहे थे, ‘केप ऑफ गुड होप’ अपना नाम साकार कर रहा था। यह लंबा रास्ता दरअसल ‘शॉर्ट-कट’ निकला। पुर्तगाल के इस कमांडर में एक प्राकृतिक इंस्टिंक्ट था, जो बिना मानचित्र के रास्ता ढूँढती जा रही थी। दक्षिण अफ्रीका के सेंट हेलेना बे, जिसका नामकरण जहाजियों ने ही किया, पर 8 नवंबर 1497 ई. को लंगर गिरा दिया गया।

वहाँ के निवासी कौतूहल में जहाज देखने आ गए। पहले तो वास्को डी गामा ने कुछ तोहफ़े दिए, और सब ठीक चलता रहा। लेकिन स्थिति तब बिगड़ी जब एक जिज्ञासु नाविक फर्नाओ वेल्लोसो उनके गाँव चला गया। वहाँ उसने कुछ ऐसी हरकत की, उसे उन्होंने खदेड़ कर मारा, और जहाजियों पर धावा बोल दिया। पुर्तगाली पलटन के पास हथियार बेहतर थे, और रणनीति भी। आदिवासियों ने कुछ चोटें जरूर पहुँचाई, लेकिन ख़ास हानि नहीं पहुँचा सके।

वहाँ से ‘केप ऑफ गुड होप’ पहुँच कर फिर से एक स्थानीय टोली से भिड़ंत हुई। उन्होंने पहले कुछ सोने के कड़ों के बदले में भोजन के लिए बैल खरीदे। जब पुर्तगाली जहाज पर पानी भरने लगे, तो वहाँ के निवासी भड़क गए। उनके लिए शायद यह जल बेशकीमती था, जिसे यूँ पीपों में नहीं भरा जा सकता। उन्होंने वास्को डी गामा के गाड़े पवित्र क्रॉस के झंडे को उन्हें छिन्न-भिन्न कर दिया। गामा भी अब लड़ने की मनोस्थिति में नहीं था, और वह ऐसे सफर पर निकल चुका था जिस पर आज तक कोई भी यूरोपीय नहीं गया।

25 दिसंबर, 1497

क्रिसमस का दिन। जहाज धीरे-धीरे हिंद महासागर में प्रवेश कर रहा था, और जो सरजमीं उनके सामने थी, उसका नाम उन्होंने यीशु के जन्म पर रखा- नेटल या नटाल। पूर्वी अफ्रीका में वास्को डी गामा के जहाजों का शाही स्वागत हुआ। उन्हें इस बात का अहसास नहीं था कि यही फिरंगी उनके भविष्य में शोषक बनेंगे। गामा के लिए वे सभी ‘अच्छे लोग’ थे, वहाँ की नदियाँ ‘शुभ संकेत’ और इतनी कठिन जहाजी यात्रा के बाद वह स्वर्ग था। लेकिन तभी एक आपदा आयी। कई जहाजियों के होंठ और जोड़ फूल गए। वे स्कर्वी नामक रोग से ग्रसित होते जा रहे थे। लेकिन, वास्को द गामा ने रुकने के बजाए आगे बढ़ते रहना ठीक समझा। जहाजी कराहते रहे, जहाज बढ़ता रहा।

जहाज जब मोजाम्बिक पहुँचा, तो पहली बार उन्हें धनी और शक्तिशाली मुसलमान व्यापारी मिले। मस्जिदों और पक्की सड़कों से सुसज्जित शहर। गहनों से लदे अमीर। यूरोपियों की आँखें इतना वैभव देकर चौंधिया गयी। वहीं एक आशा की किरण भी दिखी कि वे समृद्धि के पथ पर हैं। आज जो संपत्ति अरबों के पास है, कल उनके पास होगी। उन अरबी अमीरों ने उन्हें दो भारतीय ग़ुलाम तोहफ़े के रूप में दिए, जिन्होंने पवित्र क्रॉस के सामने सर झुकाया। गामा को लगा कि शायद पूर्व में भी कहीं ईसाई सत्ता मौजूद है। अगर पूर्व और पश्चिम के ईसाई एक हो जाएँ, तो मुसलमानों पर जीत निश्चित होगी।

मोम्बासा के दुर्ग और बाहर खड़े भव्य जहाजों को देख कर गामा को लग गया कि वह फिर किसी शक्तिशाली साम्राज्य में पहुँच चुका है। उस वैभव के सामने उसके टूटे-फूटे मलिन पड़े जहाज कुछ भी नहीं थे। अब तक कई जहाजी स्कर्वी से मर भी चुके थे, और गामा की हालत खस्ता थी। जैसे ही जहाज खड़ी हुई, मोम्बासा से हथियार लिए दर्जनों रक्षकों की फौज ने गामा के जहाज पर धावा बोल दिया। गामा ने क्षमा माँगी कि उन्हें यहाँ के नियम-कानून नहीं मालूम था और इसलिए जहाज लगा दिया। वे रक्षक भी हथियार लेकर लड़ने नहीं आए थे। सुल्तान का संदेश लेकर आए थे-

“आपलोग बेझिझक हमारे रियासत में आएँ। यहाँ कई ईसाई भी रहते हैं।”

“ईसाई? वाह! यह तो बड़ी अच्छी खबर दी आपने। हम यह सोच ही रहे थे कि इतवार की इबादत किसी गिरजाघर में करें।”

सुल्तान ने गामा के लिए तोहफ़े भिजवाए और एक बेशकीमती अंगूठी भी। बदले में गामा ने भी मूँगे की माला भिजवाई, और अपने दो जहाजियों को सुल्तान से मिल कर धन्यवाद देने भेजा। यहाँ यह बताना जरूरी है कि ऐसे कार्यों के लिए गामा किसी पुर्तगाली कैदी को भेजता था, कि अगर वे पकड़े भी गए तो कोई नुकसान न हो। ये जहाज़ी सुल्तान के पास ले जाए गए, उन्हें शहर घुमाया गया। उनको कुछ व्यापारियों से मिलाया गया जो उनके अनुसार ईसाई थे। लेकिन उनके रंग-ढंग यूरोपीय ईसाईयों से अलग थे। वे ख़ास शक्तिशाली भी नहीं नजर आ रहे थे। वह एक इस्लाम साम्राज्य था। सुल्तान ने यह भी संदेश भिजवाया कि उनके पास ढेरों मसाले और सोना-चाँदी है, जो वे पुर्तगालियों के जहाज पर लदवा देंगे अगर जहाज मोम्बासा तक ले आया जाए। गामा और उसके साथी यह खबर सुन कर उत्साहित हो गए, और जहाज मोम्बासा की ओर ले जाने लगे कि तभी जहाज फिर से एक उथले पत्थर से टकरा कर रुक गया। 

उसी वक्त दोनों अरबी नाविक समंदर में कूद कर भागने लगे। कुछ अफ्रीकी ग़ुलाम भी भाग गए। यह देख कर गामा को शक हुआ कि कुछ तो दाल में काला है। आखिर यह सुल्तान इतने प्रलोभन क्यों दे रहा है?

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गामा ने मोजाम्बिक से पकड़े एक ग़ुलाम के शरीर पर उबलता हुआ तेल डाल दिया, और कहा, “सच-सच बताओ! माजरा क्या है?”

“नहीं। मुझे छोड़ दीजिए। मैं सच बताता हूँ। यहाँ मोजाम्बिक के सुल्तान ने खबर भेज दी होगी कि आपके जहाज पर कब्जा कर लिया जाए।”

गामा ने यह सुनते ही, बचा हुआ उबलता तेल भी उसके शरीर पर डाल दिया, और वह कराहता हुआ समंदर में कूद गया। उसकी यह हालत देख एक दूसरे ग़ुलाम ने भी समंदर में छलाँग लगा दी, और दोनों डूब कर मर गए।

पुर्तगाली जहाज भगा कर आगे निकल गए। उन्हें एक और समृद्ध शहर नजर आया। यह पड़ाव उनके भारत की खोज की महत्वपूर्ण कड़ी होगी। आज के केन्या का पोत- मालिन्दी।

मोम्बासा और मालिन्दी के मध्य गामा के जहाज ने एक छोटे जहाज को लूटा। उस जहाज में उन्हें सत्रह मुसलमान और सोना-चाँदी मिले। यूँ तो सभी मुसलमान समुद्र में कूद गए थे, लेकिन पुर्तगालियों ने एक वृद्ध दंपत्ति को पकड़ लिया। उन्हें उस इलाके की समझ थी।

मालिन्दी एक आधुनिक नगर नजर आ रहा था। तार के पेड़ों की शृंखला, सुंदर स्वच्छ समुद्री तट, और खुली छत वाले खूबसूरत मकान। यह अन्य अफ्रीकी शहरों से भिन्न और सुशासित दिख रहा था। पंद्रह अप्रिल को ईस्टर था, जब गामा का जहाज मालिन्दी के करीब पहुँचा। मोम्बासा के धोखे के बाद गामा फूँक-फूँक कर कदम रख रहा था।
“कप्तान! यह मालिंदी शहर है। हम वहीं से लौट रहे थे, जब आपने हमारे जहाज को पकड़ा…वहाँ मैंने भारत से आए दो जहाज देखे”, उस बुजुर्ग ने कहा, जिसे गामा ने पकड़ा था।

“मैं अब तुम लोगों के झाँसे में नहीं आऊँगा। तुम मुसलमान कपटी होते हो।” गामा ने कहा। 

“देखिए कप्तान! मोम्बासा में जो हुआ, यह मैं नहीं जानता। लेकिन, आपके पास मेरी बात मानने के सिवा और क्या विकल्प है? मैं यहाँ के सुल्तान को जानता हूँ। उनका मोम्बासा से यूँ भी छत्तीस का आँकड़ा है। आप मोम्बासा के दुश्मन हैं, तो उनके दोस्त बन सकते हैं। मुझे एक बार जाने दें।”

“एक शर्त पर। तुम्हारी पत्नी हमारे पास गिरवी रहेगी”

भोजनोपरांत वह वृद्ध व्यक्ति कई तोहफ़ों और सुल्तान के जत्थे के साथ वापस लौटे। उनकी बात ठीक थी कि मालिन्दी के सुल्तान मोम्बासा से लड़ने के लिए कोई शक्तिशाली सहयोगी ढूँढ रहे थे। इन यूरोपीय जहाजियों में उन्हें आशा की किरण दिखाई दी, और उन्होंने गामा को दरबार में मिलने का आमंत्रण दिया। गामा ने संदेश भेजा कि उसे किसी भी दरबार में जाने से उसके राजा ने मना किया है। वह समुद्र में ही मिल सकता है। सुल्तान अपनी नाव लेकर आए और दोनों की बीच समुद्र में ही वार्ता हुई।

गामा ने वादा किया कि वह भारत से लौट कर सहयोग करेंगे, फिलहाल उन्हें ऐसे नाविक दिए जाएँ जो भारत के मार्ग जानते हों। मालिन्दी के राजा दस दिन तक आव-भगत करते रहे, और एक भी नाविक नहीं दिए। गामा ने तल्ख़ शब्दों में संदेश भिजवाया कि उन्हें जल्द से जल्द नाविक भिजवाए जाएँ। मालिन्दी के सुल्तान को भरोसा नहीं था कि पुर्तगाली एक बार जाने के बाद कभी लौटेंगे। खैर, उन्हें नाविक भेजे गए, जो भारत के समुद्री रास्ते से सुपरिचित थे। वे भारतीय ही थे!

वे नाविक वास्को डी गामा को ज्ञान देने लगे। उनके अनुसार गामा के जहाज की नैविगेशन तकनीक पुरानी थी और उनके पास बेहतर यंत्र थे। गामा ने जहाज का नेतृत्व उन्हें दे दिया। इस तरह एक भारतीय ने अपनी काबिलियत दिखाते हुए अपने ही देश की लूट का रास्ता प्रशस्त कर दिया।

Mombasa port
मोम्बासा तट की आधुनिक तस्वीर

(आगे की कहानी खंड 4 में)

In Part 3 of Vasco Da Gama series, author Praveen Jha describes journey along east coast of Africa and search for clues to India.

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