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पुर्तगाल में ऐसा व्यक्ति मिलना लगभग असंभव था, जो इतने बड़े मिशन को कामयाब कर सके। जो मिलते भी, वह तीन-चार साल के इस कठिन जहाजी मिशन का नाम सुनते ही भाग खड़े होते। कई दिन भटकने के बाद राजा मैनुएल को अपने ही राजमहल में एक युवा टहलता मिला। पता नहीं क्यों, पहली नजर में ही राजा को लगा कि यही व्यक्ति सही है।
“क्या नाम है तुम्हारा युवक?”
“मैं वास्को डी गामा। आपके दरबार का ही मुलाजिम हूँ। मेरे पिता तो राजा जॉन के ख़ास थे।”
“हाँ हाँ! याद आया। तुम पाओलो के छोटे भाई हो?”
“जी। आपने ठीक पहचाना।”
“अपने बारे में बताओ। क्या शौक रखते हो? क्या करना चाहते हो?”
“इस रियासत में हर नौजवान का एक ही तो शौक है। मैं भी जहाजी नायक बनना चाहता हूँ। वह करना चाहता हूँ, जो आज तक कोई न कर सका।”
“आज तक कोई न कर सका? ऐसा एक काम तो है मेरे पास।”
“आप आदेश करें। मैं कुछ भी करने को तैयार हूँ। ख़ास कर अगर मुसलमानों के खिलाफ कुछ हो।”
“तुम तो मेरा मष्तिष्क पढ़ रहे हो। या तो तुम्हारी सोच आगे की है, या तुम हमारे बारे में बहुत कुछ जानते हो।”
“मेरी उम्र जरूर कम है महाराज, लेकिन मैंने और मेरे परिवार ने आपकी सेवा में ही जीवन बिताया है। इसलिए आपके दोनों कयास सही हैं।”
“तो मैं भी बता दूँ कि मैं तुम्हारे नस नस से वाकिफ़ था। न पहचानने का तो मैंने स्वांग किया था। तुम्हें गुस्सा बहुत जल्दी आता है, और अक्सर लड़ाईयाँ करते रहते हो। ध्यान रहे, यह ठंडे दिमाग का काम है।”
“आप निश्चिंत रहें। मेरा आधा दिमाग ठंडा और आधा दिमाग गरम है। जब जैसी परिस्थिति आती है, उस दिमाग का इस्तेमाल कर लेता हूँ।”
“मुझे अब कोई शक नहीं कि मुझे सही व्यक्ति मिल गया है। आज से तुम गामा नहीं, हमारे कप्तान गामा हो, और तुम हमारे लिए इंडिया जीत कर लाओगे।”
“धन्यवाद महाराज! मेरी बस एक गुजारिश है कि मेरे बड़े भाई पाओलो भी मेरे साथ रहें, और इस मिशन के लिए लोग भी हम ही चुनें।”
“अब तुम कमांडर हो। मैं तुम्हें खुली छूट देता हूँ कि तुम यह मिशन अपने तरीके से मुकम्मल कर सकते हो। लेकिन इंडिया में ईसाई झंडा फहराए बिना मत लौटना।”
और शुरू हुई जहाज़ी यात्रा (Sea voyage of Vasco Da Gama)
गामा ने इस जहाजी यात्रा के लिए जो पलटन तैयार की, वह वाकई काबिल-ए-तारीफ़ थी। जहाजी यात्राओं में विद्रोह आम था, और कप्तानों को सबसे अधिक दिक्कत अपने साथी विद्रोहियों से ही होती। बार्तालोमू डायस एक बेहतरीन नाविक तो थे, लेकिन उनकी लंबी यात्राओं में जहाज पर शांति नहीं रहती। उनकी बात मानने को लोग तैयार ही नहीं होते। यह भी एक वजह थी कि वह पूरा अफ़्रीका नापने के बावजूद भारत का रुख कभी न कर सके। वास्को डी गामा ने जो तीन जहाज तैयार किए, उसके कप्तान उसने परिवार से ही चुन लिए।
जहाज ‘बेरियो’ का कप्तान बना उसके परिवार से ही निकोलाउ कोएल्हो, ‘साओ राफेल’ का कप्तान बना उसका भाई पाओलो द गामा और ‘साओ गाब्रिएल’ जहाज के कप्तान बना स्वयं वास्को द गामा। उसके जहाज का मुख्य चालक था पीरो डी अलन्क्वेर, जो बार्तेलोमू डायस के जहाज का भी मुख्य चालक रहा था। उससे बेहतर अफ़्रीका के समुद्रों को भला कौन जानता था? और तो और बार्तोलोमू डायस का सगा भाई डियोगो डायस बना उसका मुंशी।
यह मुंशी सुनने में साधारण हिसाब-किताब वाला व्यक्ति लगता है, लेकिन जहाज का मुंशी पूरी यात्रा का सबसे काबिल दिमाग होता है। वास्को डी गामा के नेतृत्व पर इतिहासकार सवाल उठाते रहे हैं, लेकिन इस चयन में एक शातिर सरदार स्पष्ट झलकता है। उसने दो दुभाषिए भी चुने। एक मार्टिम अफॉन्सो, जो अफ्रीका की अधिकतर बोलियाँ जानता था और कोन्गो में लंबे समय रहा भी था। दूजा, फर्नाओ मार्टिन्स, जो अरबी भाषा बोलता था। यह उसने मोरक्को में कैदी रह कर सीखा था। यहाँ यह बताना जरूरी है कि उस समय व्यापार की भाषा अरबी ही थी, और इसे जान कर कहीं भी संवाद आसान था। भारत में भी।
इन सब से भी अधिक जरूरी था— लिस्बन के जेल से छुड़ाए बारह कैदी। इन कैदियों की महत्ता सफर में आगे समझ आएगी। ख़ास कर यह कि आखिर उनका भारत से क्या ताल्लुक होगा!
इनके अलावा भी कुछ डेढ़ सौ लोग इनके जहाजों पर था। कुछ सैनिक, कुछ मिस्त्री, कुछ नौकर, कुछ ग़ुलाम, कुछ लुहार, कुछ बढ़ई, कुछ खानसामे। इनमें से ही किसी एक गुमनाम व्यक्ति ने जहाज की पूरी कथा लिखी, जो मैं यहाँ सुना रहा हूँ। यह मान कर सुना रहा हूँ, कि उसने सत्य ही लिखा होगा। गुमनाम डायरियों पर विश्वास करना आसान होता है, क्योंकि उसमें लिखने वाले का स्वार्थ नहीं छिपा होता। सोचिए, अगर हम दुनिया के सबसे बड़े मिशन में शामिल होते, उसकी पूरी कहानी लिखते, तो क्या अपना नाम स्वर्णिम अक्षरों में न छपवाते?
अरे हाँ! मैं यह तो बताना भूल ही गया कि वास्को डी गामा की उम्र कितनी थी। दरअसल यह बात पक्के तौर पर मुझे भी मालूम नहीं। लेकिन लिखित अनुमानों के आधार पर गामा की उम्र 1497 ई. में 28 वर्ष रही होगी। एक युवक, जो लगभग कोलम्बस के उम्र का ही था। एक पश्चिम से अपना भारत ढूँढ चुका था, दूजा पूरब से ढूँढने जा रहा था।
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वास्को डी गामा अपने पूरे दल-बल के साथ राजा के दरबार में पहुँचा। राजा ने दरबारियों के सामने यात्रा की घोषणा की। पूरे दल ने राजा का हाथ चूम कर अभिवादन किया, और राजा ने गामा को पवित्र क्रॉस की रेशमी पट्टी पहनाई।
वास्को डी गामा ने शपथ लिया,
“मैं, वास्को डी गामा, आप के आदेशानुसार, आप जो दुनिया के सबसे महान् और शक्तिशाली राजा है, और मेरे मालिक हैं, इंडिया और पूर्व के समुद्रों की खोज में निकल रहा हूँ; मैं पवित्र क्रॉस पर हाथ रख कर शपथ खाता हूँ कि आपके और ईश्वर का नाम ऊँचा रखूँगा, और किसी काफ़िर, किसी दूसरे नस्ल के व्यक्ति के सामने समर्पण नहीं करूँगा; जल, अग्नि या तलवार की किसी भी ताकत से मरते दम तक लड़ता रहूँगा।”
राजा द्वारा वास्को डी गामा को तमाम चिट्ठियाँ दी गयी। उन अफ्रीकी राजाओं के नाम जिन्हें वह जानते थे। ख़ास कर प्रेस्टर जॉन के नाम, जो अब तक एक रहस्य थे। गामा ने न सिर्फ दल-बल की तैयारी की थी, बल्कि मार्को पोलो, और राजकुमार हेनरी के समय की गयी यात्राओं, पीरो की भेजी जानकारियों और तमाम मानचित्र भी इकट्ठे किए थे। गामा के लिए यह रास्ता भले अनजाना था, लेकिन उसके पास अपने से पहले के यात्रियों के सभी अनुभव मौजूद थे। अगर गामा पहला यात्री होता, तो शायद भारत नहीं पहुँच पाता। लेकिन गामा इस कड़ी का आखिरी सिरा था, जिसे कुछ टूटे तार जोड़ने थे। उसे विश्वास था कि यह कार्य वह न सिर्फ कर लेगा, वह सफलतापूर्वक भारत से व्यापार-संबंध स्थापित कर, मुसलमानों का पूरब से व्यापार का एकाधिकार समाप्त कर देगा।
जैसे भारत में शुभयात्रा के लिए मंदिर में माथा टेकते हैं, उसी तरह यूरोप में भी यह रिवाज था। राजकुमार हेनरी ने कभी पुर्तगाल के बेलेम (बेथलहेम के नाम पर) गाँव में एक गिरजाघर बनवाया था, और हर समुद्री यात्रा से पहले लोग यहाँ माथा टेकते। वास्को डी गामा का दल भी वहीं माथा टेक कर शनिवार, 8 जुलाई, 1497 ई. को अपनी यात्रा पर निकला।
यात्रा के पहले पड़ाव में ही समस्या शुरु हो गयी। रात के अंधेरे में तीनों जहाज भटक कर एक-दूसरे से अलग हो गए। पाओलो द गामा अपना जहाज ‘साओ राफेल’ लेकर केप वर्दे द्वीप पहुँच गया। यही योजना भी थी, लेकिन बाकी जहाजों का अता-पता ही नहीं था। कुछ दिनों में छोटा जहाज ‘बेरियो’ नजर आ गया। जब बारह दिन के इंतजार के बाद आखिर वास्को डी गामा का जहाज ‘साओ गैब्रिएल’ भी पहुँचा, सबने राहत की साँस ली। यह एक अप्रत्याशित घटना लग सकती है कि एक जहाज बारह दिन विलंब से पहुँचा, लेकिन यह ध्यान रहे कि उस वक्त के पाल वाले जहाज हवा के रुख के हिसाब से चलते थे। दस-बारह दिन क्या, महीने का हेर-फेर भी आम था।
वहाँ से वे जैसे-जैसे दक्षिण की ओर बढ़ने लगे, यात्रा कठिन होती चली गयी। समुद्र की तरंगे विकराल और तूफ़ानी हो रही थी, जहाज पर रखे सामान एक कोने से दूसरे कोने लुढक रहे थे, यात्री अपने कदम नहीं रख पा रहे थे, पाल फरफरा कर गिर रहे थे और उनकी रोज मरम्मत हो रही थी। यह पागल समुंदर के आने की चेतावनी थी। हालांकि यह चेतावनी के साथ आशा की ज्योति भी थी कि अफ्रीका का वह रहस्यमय दक्षिणी छोर आ रहा है, जो भारत का द्वार है। वास्को डी गामा ने जो रास्ता अख़्तियार किया था, वह था भी कठिन। वह अफ्रीका के तट के किनारे-किनारे चलने के बजाय, बीच समुद्र में एक लंबा घुमाव ले रहे थे। इस विचित्र सोच की चाहे जो भी वजह हो।
उस वक्त नैविगेशन के लिए था ही क्या? राडार का जमाना था नहीं। ध्रुवतारा देख कर अंदाज़ा लगाया जाता कि कहाँ जा रहे हैं। जहाज के ऊपर पीतल की एक छल्ली होती, जिसे तारों से मिलाया जाता। यह भी पता करना असंभव था कि आखिर वे अफ़्रीकी तट से कितनी दूर आ चुके हैं, और कैसे अफ़्रीका के दक्षिणी छोर तक घूम कर पहुँचेंगे। एक और चीज उनके पास थी। पुर्तगाल के गणितज्ञों ने सूर्य से दिशा की गणना के लिए एक चार्ट बना कर दिया था।
यह एक धर्मनिष्ठ दल भी था, और इन उपकरणों से अधिक उन्हें ईश्वर पर भरोसा था। वे जहाज पर पूजा और बाइबल चर्चा में लगे रहते। इसकी तुलना आप आज के यूरोप से नहीं कर सकते। यह कट्टर ईसाई जत्था था, जो धर्मयुद्ध पर निकला था!
In Part 2 of the Vasco Da Gama series, Author Praveen Jha describes the beginning of sea voyage from Portugal and the members of his crew.
6 comments
एक बहुत ही नवीन और उम्दा शुरुआत | ऐसा लग रहा है कि , मैं , 1497 में वास्को -डी- गामा के साथ सफ़र कर रहा हूँ
धन्यवाद प्रवीण जी |
आप इतने सरल शब्दों में लिखते हैं कि पढ़ने का आनंद दुगुना हो जाता है। बहुत ही सुंदर..
आप इतिहास के टुकड़ों टुकड़ों में पढ़ी गई बातों को बेहद दिलचस्प तरीक़े से कहानियों में पिरो देते हैं।मैं तो बस दसवीं का छात्र बन जाता हूं और आपके साथ अतीत में जाकर दुनियां घूमने लगता हूं।कई किताबें आपकी पढ़ डाली हैं।
फिर एक बार बेहतरीन लिख रहे हैं।और हाँ आपके बिहारी होने पर थोड़ा सा गर्व भी महसूस कर लेता हूं!आपके हिन्दी में इतनी उम्दा लिखने पर बहुत बहुत धन्यवाद।
आपका बहुत बहुत धन्यवाद प्रवीण सर, इस वेबसाइट के माध्यम से इतिहास की महत्वपूर्ण घटनाएं हम सब तक पहुंचाने के लिए….
मैने आपकी कुली लाइंस, रिनेन्शा और रूस, रसिया रासपूतिन पढ़ी है, सचमुच आपके लेखन ने मेरी भी इतिहास में रुचि पैदा की है…
ऐसे ही आगे हमें इतिहास से परिचित कराते रहें..!!