एक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर
यूँ तो यह नाम मनमोहन सिंह से जुड़ा है, लेकिन शब्दशः ऐक्सिडेंटल प्राइम मिनिस्टर तो राजीव गांधी ही थे। छोटे भाई की मृत्यु ने राजनीति में लाया, और माँ की मृत्यु ने प्रधानमंत्री बना दिया। ऐसा संयोग भला किसकी इच्छा होगी? राजीव अब परिवार में अकेले रह गए थे। जिस कारण से इंदिरा गांधी की हत्या हुई, वह ज्यों का त्यों मौजूद था। राजीव परिवार अब भी ख़तरे में था। उनके बेटे राहुल और बेटी प्रियंका तो पहले ही देहरादून से लौट चुके थे। जो देश विरासत में मिली, उससे अशांत और अस्थायी देश शायद ही किसी प्रधानमंत्री को मिला हो। असम, पंजाब और कश्मीर जल रहे थे। देश अपनी घिसी-पिटी आर्थिक नीतियों के सहारे रेंग रहा था। दुनियाँ इक्कीसवीं सदी के लिए कमर कस रही थी, और भारत के कई गाँव अभी अठारहवीं सदी में ही थे। ऐसी परिस्थिति में एक महज़ चालीस साल का युवा प्रधानमंत्री भला क्या कर लेगा? उस नौसिखिए को तो पार्टी के क़द्दावर खेले-खिलाए बुजुर्ग ही खा जाएँगे। बुजुर्गों का तो पता नहीं, लेकिन पार्टी के युवाओं ने तो उसी दिन देश जलाना शुरू कर दिया था, जिस दिन इंदिरा गांधी की हत्या हुई।
1 नवंबर, 1984. तीनमूर्ति भवन
इंदिरा गांधी का पार्थिव शरीर तीनमूर्ति भवन में जनता के अंतिम दर्शन के लिए लाया गया। लेकिन, यह आश्चर्य था कि भारत की सबसे शक्तिशाली प्रधानमंत्री कही जाने वाली इंदिरा गांधी को देखने अपेक्षाकृत कम ही भीड़ उमड़ी। इससे अधिक लोग तो उनके बेटे संजय गांधी को देखने आए थे। इसका कारण था डर का माहौल!
दिन-दहाड़े देश के प्रधानमंत्री की ही गोली मार कर हत्या कर दी जाए, तो जनता का दुबकना वाज़िब है। आखिर कौन सुरक्षित महसूस करेगा? अफ़वाहबाजों ने अफ़वाह उड़ा दी कि सिखों ने दिल्ली के पानी में जहर मिला दिया है। कई लोगों ने पानी पीना बंद कर दिया। किसी ने कहा कि सिख गुरुद्वारों से आक्रमण करने वाले हैं, जगह-जगह बम फेंकने वाले हैं। जबकि सिख तो स्वयं छुप कर बैठे थे कि उन पर जनता का गुस्सा न उमड़ पड़े। टैक्सियाँ चल नहीं रही थी, बसें बंद पड़ी थी। ऐसे में कोई तीनमूर्ति भवन पहुँचे कैसे? वहाँ तो कांग्रेसी कार्यकर्ता ही आए होंगे।
तीनमूर्ति भवन में इंदिरा गांधी के शव के सामने ही कुछ युवकों ने नारे लगाने शुरू कर दिये थे,
‘खून का बदला खून’
यह नारा धीरे-धीरे ऊँचा होता गया, और भीड़ संगठित होने लगी। वहाँ से निकल कर उन्हें मालूम था कि कहाँ जाना है। जो दिल्ली का भूगोल थोड़ा-बहुत जानते हैं, उन्हें अंदाज़ा लग गया होगा कि कहाँ गये होंगे। गुरुद्वारा रकाबगंज में जुलाई 2019 में मैं भी खड़ा था, और यह दृश्य सोच कर काँप उठा था।
तीनमूर्ति भवन से एक उन्मादी भीड़ संसद भवन के ठीक सामने स्थित प्रतिष्ठित गुरुद्वारे की ओर बढ़ रही थी। पुलिस का क़ाफ़िला वहाँ मौजूद था, ACP कौल नेतृत्व कर रहे थे, लेकिन इस भीड़ के सामने हाथ पर हाथ धरे बैठे थे। उनके सामने ये लोग गुरुद्वारे में घुसे, सिखों की पगड़ियाँ उतार कर फेंकी, और उनके बाल खींचे। दो सिखों के गले में टायर डाल कर उन्हें जिंदा जला दिया। पुलिस यह सब देखती रह गयी।
जब भीड़ यह कुकृत्य कर लौट रही थी, तो एक एम्बैसेडर गाड़ी के बाहर सफेद कुर्ते में खड़े एक व्यक्ति हाथ से इशारा कर रहे थे। भीड़ रुक गयी। उसके बाद वह भीड़ तितर-बितर हो गयी। बस एक जादुई इशारे पर। पत्रकार संजय सूरी यह सब देख रहे थे, बाद में कमीशन के सामने गवाही दी।
कमीशन ने माना कि सिखों की भीड़ द्वारा हत्या हुई, लेकिन इसके पीछे किसका हाथ था, यह सिद्ध नहीं हो पाया। वह सफेद कुर्ते में खड़े व्यक्ति तो यूँ भी भीड़ को रोक ही रहे थे, उकसा नहीं रहे थे। अब यह तो सामान्य ज्ञान है कि जिस व्यक्ति के एक इशारे पर भीड़ रुक जाती है, उसके इशारे पर ही वह अंदर भी गयी होगी। वे उसके अपने ही लोग होंगे। मुमकिन है कि वही लेकर भी आया हो। सबसे बड़ी बात कि वह वहाँ कर क्या रहे थे?
वह तो मध्यप्रदेश के छिंदवारा के एक युवा कांग्रेसी सांसद थे, जिनकी रकाबगंज गुरुद्वारा के बाहर होने की कोई वजह उस वक्त नहीं थी। हालाँकि, उन्होंने कहा कि उन्हें राजीव गांधी ने ही भीड़ को शांत करने भेजा था। उन्होंने कमीशन को यह भी कहा कि भीड़ को शक था कि गुरुद्वारे के अंदर हिन्दुओं को कैद कर रखा गया है। गुरुद्वारे के अंदर ऐसी किसी गतिविधि की जानकारी नहीं मिली। न ही यह सिद्ध हो सका कि सांसद द्वारा तीनमूर्ति भवन से यह भीड़ भड़का कर भेजी गयी थी, और वह उनके पीछे अपनी गाड़ी से आये थे। रकाबगंज गुरुद्वारा के पास एक और युवा सांसद रामविलास पासवान का घर था, जिनसे भी खास जानकारी नहीं मिली सकी। खैर, उन सफेद कुर्ते वाले सांसद का नाम कमल नाथ था, जो बाद में केंद्रीय मंत्री और मध्य प्रदेश के मुख्यमंत्री भी बने।
मंगोलपुरी
उसी दिन मंगोलपुरी इलाके में पालम रेलवे मुख्य मार्ग पर सांसद सज्जन कुमार एक भीड़ को कह रहे थे,
‘इन सिखों ने हमारी माँ की हत्या की है। जो भी इन सपोलों को मारेगा, उसे ईनाम दिया जाएगा। रोशन सिंह और बाग सिंह को मारने वाले को पाँच-पाँच हज़ार, बाकी सिखों को मारने वाले को एक-एक हज़ार। तीन तारीख को मेरे पी.ए. जय चंद जमादार से मिल कर अपने-अपने पैसे ले लेना’
यह भाषण मोती सिंह नामक एक सिख कांग्रेसी नेता ने सुना। उसके ठीक बाद ब्रह्मानंद गुप्ता नामक सुल्तानपुरी के एक कांग्रेस नेता ने किरासन तेल बाँटे, जिससे सिख घरों में आग लगाए गए। शकरपुर में सूचना प्रसारण मंत्री एच. के. एल. भगत कथित रूप से श्याम त्यागी नामक एक कांग्रेसी नेता को दंगे के लिए पैसे और शराब की व्यवस्था कर रहे थे। दिल्ली ही क्या, बोकारो में पी. के. त्रिपाठी नामक कांग्रेसी नेता अपने ही पेट्रोल पंप से पेट्रोल बाँट रहे थे। इस भीड़ को भला कौन कहाँ रोकता? रोकने वाले भी तो मिले हुए थे।
कुसुमलाल मित्तल रिपोर्ट के अनुसार,
‘SHO श्री भट्टी और हेड कॉन्स्टेबल जय चंद ने पहले सिखों को घर में बंद रहने को कहा कि अन्यथा गोली मार दी जाएगी। जैसे ही वे घर में बंद हुए, भीड़ ने आकर उनको चुन-चुन कर मार डालना शुरू किया’
भले ही अधिकतर आरोपी बरी होते चले गये, लेकिन इसमें कोई दो राय नहीं कि यह कांग्रेसी कार्यकर्ताओं की भीड़ थी। ऐसा संगठन और सामान इतनी जल्दी जुटाना भला और कैसे संभव होता? यह गवाही तो कई सिखों ने दी है कि सज्जन कुमार के भड़काए लोग ही यह सब कर रहे थे।
उस समय जाँच कर रहे पुलिस अफ़सर वेद मरवाहा ने संजय सूरी को दिये साक्षात्कार में कहा,
‘एक सिख महिला अपने पति को अपने सामने जिंदा जलता हुआ देख रही थी। वह पूरे मुहल्ले में गुहार लगाती रही, लेकिन कोई भी मदद के लिए नहीं आया। उनके पति ने उनके सामने दम तोड़ दिया’
त्रिलोकपुरी
त्रिलोकपुरी में तो राजस्थानी सिख थे, जिनका पंजाबी सिखों से लगभग कोई रिश्ता नहीं। वे दलित या मजहबी सिखों में कहे जा सकते हैं। मैं उस इलाक़े को करीब से जानता हूँ, और वहाँ पास ही लंबे समय रहा हूँ। यह संजय गांधी का बसाया इलाका है। जब तुर्कमानी गेट के मुसलमानों की बस्तियाँ तोड़ी गयी, उनको उठा कर यहाँ यमुना पार पटक दिया गया। बाद में यहाँ गरीब हिन्दू और सिख भी आकर बस गये। इन गरीबों को मारना या जलाना क्या मुश्किल था? सैकड़ों को मौत के घाट उतार दिया गया, और वह भी त्रिलोकपुरी थाने से बस कुछ ही दूर। पालम, सुल्तानपुरी और त्रिलोकपुरी में सबसे अधिक हत्यायें हुई। ये तीनों ही इलाके गरीब और मध्यम-वर्गीय सिखों के थे। यह भी माना जाता है कि अगर जाट सिखों या रसूखदार सिखों की हत्यायें अधिक होती, तो पंजाब में इसका बदला जरूर लिया जाता। ख़ास कर जब अभी स्वर्ण-मंदिर का जख्म भरा भी नहीं था, पंजाबी हिन्दुओं के लिए यह बदला भारी पड़ता। दूसरा कारण यह भी माना जाता है कि पंजाबी हिन्दुओं ने दिल्ली में सिखों को शरण दी, और उनकी मदद की। इसलिए उनसे बैर न रहा।
दिल्ली में 31 अक्तूबर से रात से जब दंगे हो रहे थे, तो ऐसा भी नहीं था कि दिल्ली पुलिस सो रही थी। दिल्ली पुलिस में ऐसे लोग थे, जो जाग रहे थे। यह और बात है कि उन्हें भी सुलाने की कोशिश हो रही थी।
मैक्सवेल परेरा
उस पूरी रात एडिशनल DCP मैक्सवेल परेरा सिखों की सुरक्षा के लिए लगे रहे। उन्हें दंगों से बचा कर सुरक्षित स्थान पहुँचाते रहे। अगली सुबह उन्हें दिल्ली के पुलिस कमिश्नर का फोन आया।
‘मैक्सी! तुम फौरन तीनमूर्ति भवन पहुँचो। तुम्हें प्रधानमंत्री की सुरक्षा के लिए रखा जा रहा है’
‘लेकिन सर! यहाँ तो दंगे हो रहे हैं। मेरा यहाँ रहना बहुत जरूरी है’
‘वह हम संभाल लेंगे। तुम्हें जो कहा जा रहा है, वह करो’
‘ठीक है सर!’
परेरा तीनमूर्ति भवन पहुँचे। वहाँ पहले से भारी सुरक्षा मौजूद थी। इंदिरा गांधी के शव को दर्शन के लिए भीड़ जमा थी। परेरा का वायरलेस लगातार बज रहा था। चाँदनी चौक के पास बिजली उपकरणों के सबसे बड़े बाज़ार भगीरथ पैलेस में आग लगायी जा रही थी।
दिल्ली में बिजली का पूरा व्यवसाय हमेशा से सिख-बहुल रहा है। उस वक्त तो यह सभी दुकानें उनकी ही थी। परेरा तीनमूर्ति भवन की शांति में बेचैन हो रहे थे।
उन्होंने कमिश्नर को कहा,
‘सर! मैं यहाँ क्या कर रहा हूँ? वहाँ मेरे क्षेत्र में आग लगायी जा रही है, और मैं यहाँ चुपचाप इंदिरा जी की शव के सामने खड़ा हूँ? मुझे जाने दीजिए’
कमिश्नर को लग गया कि परेरा नहीं मानेंगे।
उन्होंने कहा, ‘ठीक है। जाओ! लेकिन जैसे ही मैं बुलाऊँ, वापस आ जाना’
परेरा वहाँ से निकल कर सीधे लाल किले के पास पहुँचे, जहाँ उन्मादी भीड़ भगीरथ प्लेस जला रही थी। उनके पहुँचते-पहुँचते यह पहले ही जल चुकी थी। परेरा के साथ बस कुछ लाठी लिए कॉन्स्टेबल थे, जिनके सामने सैकड़ों की भीड़ थी।
उन्होंने देखा कि चांदनी चौक से भीड़ शीशगंज गुरुद्वारा की ओर बढ़ रही थी। गुरुद्वारा के बाहर कुछ सिख तलवार लिए रक्षात्मक मुद्रा में खड़े थे। वे वाहेगुरु का नाम लेकर इस भीड़ से लड़ने की ताकत जुटा रहे थे।
गुरुद्वारा शीशगंज
शीशगंज कोई साधारण गुरुद्वारा नहीं था।
जितनी महत्ता स्वर्ण मंदिर की है, उसके समकक्ष ही दिल्ली के शीशगंज की भी मानी जाती है। यह वही स्थान है जहाँ सिखों के नौवें गुरु तेग बहादुर को औरंगज़ेब के आदेश पर मारा गया था। यह शहीदी से जुड़ा गुरुद्वारा है। यहाँ अगर भीड़ प्रवेश कर सिखों की हत्या करती, तो इसकी आग देश के कोने-कोने तक पहुँच जाती। लेकिन ये पुलिस के चंद सिपाही क्या इस गुरुद्वारे की रक्षा कर पायेंगे? ख़ास कर तब, जब उनके अपने ही सीनियर अफ़सर कान में रुई डाले तीनमूर्ति भवन में सलामी दे रहे हैं।
परेरा ने पहले सिखों को गुरुद्वारे के अंदर जाने के लिए कहा। उसके बाद वह लाउडस्पीकर से भीड़ को रुकने के लिए कहने लगे। भीड़ अब भी चांदनी चौक के आस-पास की दुकानें जलाती हुई आ रही थी। परेरा के सिपाही आँसू गैस के गोले फेंकने लगे। भीड़ कुछ देर तितर-बितर होकर वापस जमा हो गयी। जाहिर है यह इंदिरा गांधी के धुर-समर्थकों की भीड़ थी जो सिखों से खून का बदला लेना चाहती थी। जब भीड़ गुरुद्वारे के निकट आयी, परेरा ने अपने कॉन्स्टेबल को एक मामूली रिवॉल्वर से गोली चलाने कहा। एक आदमी गोली खाकर वहीं मर गया।
परेरा ने एक लाउडस्पीकर पर कहा,
‘जो भी पुलिस कांस्टेबल इस दंगाई भीड़ के किसी भी आदमी को मारेगा, उसे ईनाम दिया जाएगा’
यह सुनते ही भीड़ कुछ घबरा गयी और वापस जाने लगी। आखिर परेरा यह गुरुद्वारा बचाने में कामयाब हुए।
कुछ ही देर में, अशोक विहार से ACP महाबीर सिंह का वायरलेस आया,
‘सर! यहाँ भीड़ ने दो सिखों के ऊपर किरासन तेल डाल दिया है…अब उसमें आग लगा दिया है…मेरे सामने ये जिंदा जलाए जा रहे हैं’
परेरा चिल्लाए,
‘तुम खड़े-खड़े मुझे कमेंट्री क्या सुना रहे हो? जो भी ऐसा करता है, उस पर गोली चलाओ। तुम्हारे सामने लोग जलाए जा रहे हैं, और तुम ऑर्डर का इंतजार कर रहे हो?’
’सर! लेकिन, यह बहुत बड़ी भीड़ है। गोली चलाने से कुछ नहीं होगा’
‘कुछ नहीं होगा? तुम कर क्या रहे हो? किसी भी तरह उन्हें बचाओ!’
रणबीर सिंह
जब परेरा शीशगंज गुरुद्वारे की रक्षा कर रहे थे, उसी वक्त करोलबाग के SHO रनबीर सिंह अकेले हाथ में रिवॉल्वर लिए दंगाइयों के बीच पैदल ही घुस कर लड़ रहे थे। उनकी जीप खराब हो गयी थी, और वह भीड़ में फँस गए थे। रनबीर सिंह सिख नहीं थे, लेकिन उनका नाम आज भी सिखों के जेहन में दर्ज है। उन्होंने लगभग चार सौ सिखों की रक्षा की। बल्कि, दिल्ली के इस क्षेत्र में सबसे कम (बीस) हत्यायें दर्ज हुई। जबकि पूरी दिल्ली में तीन हज़ार से अधिक हत्यायें हुई।
परेरा और उनके जैसे अफ़सरों की कोशिश के बावजूद भी सिख मारे जाते रहे। लाशों का अंबार लगता गया। यह जलती टायर गले में डाल कर की जाने वाली निर्मम हत्या भी इसी दंगे की छाप बनी। यह हत्या का सबसे साधारण और फूल-प्रूफ तरीका था।
अगर किसी व्यक्ति के गले में जलती टायर डाल दी जाए, तो वह चाह कर भी उससे निकल नहीं पाएगा। पिघलती टायर फैल कर उसे जकड़ लेगी और वह धीरे-धीरे दम तोड़ देगा। लेकिन, इतने टायर और इतने किरासन का इंतजाम करना एक संगठन ही कर सकता है। यह बताने की जरूरत नहीं कि वह कौन सा संगठन था!
इंडियन एक्सप्रेस के पत्रकार संजय सूरी एक स्पष्ट सबूत भी देते हैं। SHO रनबीर सिंह ने कई लोगों को लूट के सामान के साथ गिरफ्तार किया था। उसी वक्त करोलबाग से कांग्रेस सांसद धरमदास शास्त्री अन्य कांग्रेस नेताओं के साथ पहुँचे और कहा,
‘इन सबको छोड़ दो’
वहाँ DCP आमोद कंठ ने कहा,
‘लेकिन इन सबके पास लूट के सामान मिले हैं’
‘सामान बरामद कर लिया न? अब इन्हें छोड़ दो’
‘लेकिन सामान तो इनके पास से ही बरामद हुआ है? ये लोग अपराधी हैं’
‘अरे, कोई अपराधी नहीं है। आपको मालूम है क्या हालात है मैडम की डेथ के बाद? अभी यह मामला नहीं बढ़ाइए। आग और बढ़ जाएगी’
‘सर! आप अपराधियों का साथ क्यों दे रहे हैं?’
‘यह क्या भाषा है आपकी? तमीज नहीं है MP से बात करने की? मैं कह रहा हूँ, ये लोग बेकसूर हैं’
ACP हुकुमदेव जाटव भी पहुँच गए थे। उन लोगों ने सांसद को शांत किया, लेकिन यह तो सिद्ध हो ही चुका था कि इस लूट-पाट में जो लोग शामिल थे, वे सांसद के ही लोग थे।
जब बड़ा पेड़ गिरता है
दिल्ली की सड़कों पर यह तांडव पाँच दिनों तक चलता रहा। न्याय-व्यवस्था दम तोड़ रही थी, जब इंदिरा गांधी की चिता जल रही थी। यह तर्क दिया जाता है कि एक मातृशोक झेल रहे युवा प्रधानमंत्री के लिए इसे रोकना कठिन था। यह भी तथ्य मिलते हैं कि राजीव गांधी स्वयं दंगा-पीड़ित क्षेत्रों का मुआयना कर रहे थे, और दंगा रोकने के प्रयास कर रहे थे। 2 नवंबर को सेना भी बुला ली गयी थी। लेकिन, निष्कर्ष तो यही रहा कि न वे अपनी पार्टी के गुंडों को सँभाल पा रहे थे, न पुलिस-तंत्र को, और न अपने देश की जनता को।
दो हफ्ते बाद, 19 नवंबर को राजीव गांधी ने बोट क्लब में कहा,
’हमें याद रखना है की इंदिरा जी की हत्या क्यों हुई। कौन लोग इसके पीछे हो सकते हैं? हमें मालूम है की भारत की जनता के दिल में कितना क्रोध आया, कितना गुस्सा आया। कुछ दिन के लिए लोगों को लगा की भारत हिल रहा है। लेकिन, जब भी कोई बड़ा पेड़ गिरता है तो धरती थोड़ी हिलती है’
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इस भाषण की तुलना गोधरा कांड के बाद फरवरी, 2002 में दी गयी नरेंद्र मोदी के दूरदर्शन पर भाषण से की जाती है, जहाँ उन्होंने गुनाहगारों (कार सेवकों की ट्रेन जलाने वालों) को भयंकर सजा की बात की थी। एक तरफ़ वह लोगों को संयम रखने कह रहे थे, और उस वक्त कुछ ही दूर मुसलमानों की गुलबर्गा सोसाइटी जलाई जा रही थी। नरेंद्र मोदी के अनुसार इसकी जानकारी उन्हें उस वक्त नहीं थी, और भाषण के बाद ही मालूम पड़ी।
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ये दोनों ही भाषण यू-ट्यूब पर मौजूद हैं। मनसा और कर्म में साम्य हो सकता है, लेकिन वाचन में राजीव गांधी का भाषण सिख समाज को एक गहरी चोट देता है। शायद इसलिए राजीव गांधी के भाषण की रिकॉर्डिंग कई वर्षों तक दबा दी गयी, और इसे 2015 में AAP नेता एच. एस. फूलका और भाजपा नेता आर. पी. सिंह ने संयुक्त रूप से रीलीज किया।
उस वक्त राजीव गांधी ने इस दंगे और जनता को गुस्से को पूरी तरह भुनाना चाहा, और इसलिए आनन-फानन में दिसंबर, 1984 में ही चुनाव की घोषणा कर दी। उनकी नज़र हिंदू वोटों पर थी, और रिपोर्ट यह भी कहते हैं कि राजीव के साथ उस वक्त राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ भी था। नानाजी देशमुख ने ‘प्रतिपक्ष’ पत्रिका में राजीव गांधी को आशीर्वाद और सहयोग की बात तो कही ही, नागपुर के नेता बनवारीलाल पुरोहित का दावा है की उन्होंने राजीव की मुलाक़ात बालासाहेब देवरस से करायी। बदले में राजीव ने राम मंदिर शिलान्यास का वादा किया। सच जो भी हो, 1977 और 1984 के चुनावों में RSS ने अपना वजन सत्ता के गलियारों में डालना शुरू कर दिया था।
Author Praveen Jha narrates 1984 sikh riots based on book 1984- The Anti Sikh Riots and After.