जैसलमेर का जासूस- फेलू दा

Sone ka Kila
Sone ka Kila
सत्यजीत रे एक बेहतरीन फ़िल्मकार के साथ-साथ कहानीकार भी थे। उनके द्वारा बनाए गए जासूसी पात्र फेलू दा हमें रोचक यात्रा पर ले जाता है। ‘सोने का किला’ इसी कड़ी में उनकी एक कहानी है

आर्थर कॉनन डॉयल के किरदार शरलॉक होम्स ने जासूसों की एक स्थापित छवि बना दी। इसमें एक कम बोलने और ज्यादा समझने वाला जासूस होता, तो अपने मन में गिनतियाँ करता रहता। उसके साथ एक असिस्टेंट जिसके बिना जासूस की छवि पूरी नहीं होती। संगीत के वादी और संवादी स्वरों की तरह।

व्योमकेश बक्शी के असिस्टेंट अजीत। करमचंद जासूस के साथ किट्टी। सत्यजीत रे के प्रदोष चंद्र मित्रा उर्फ़ फेलू दा के साथ तोप्शे।

सत्यजीत रे के फेलू दा अपनी जासूसी के साथ-साथ गणित, विज्ञान, भूगोल, इतिहास, मनोविज्ञान से गुजरते रहते हैं। इसलिए बंगाल का शायद ही कोई बच्चा हो जो उनसे परिचित न हो। वह स्कूली शिक्षा के साथ ही जुड़ जाते हैं। मेरा फेलू दा से परिचय ऐसे ही एक बंगाली मित्र ने कराया था, हालाँकि उस वक्त मैंने बाल-कथा सोच कर इसे पढ़ना ज़रूरी नहीं समझा।

हाल में स्टोरीटेल पर फेलू दा की एक जासूसी यात्रा से गुजरा। यह बंगाल से हमें राजस्थान की यात्रा पर ले जाती है। वह भी पूरी डिटेलिंग के साथ कि जयपुर, जोधपुर, बीकानेर, पोखरन और जैसलमेर की यात्रा में कौन सी ट्रेन और कौन से स्टेशन मिल सकते हैं। चित्तौड़गढ़ के किले और जैसलमेर के किले की नक्काशी में क्या अंतर है।

यह कहानी बंगाल के एक बच्चे की है जो पूर्व जन्म में राजस्थान में था, और वह सोने के किले की बात करता है। मुझे लगा कि सत्यजीत रे कहाँ पिछले जन्म जैसी अवैज्ञानिक बातें करने लगे! 

मगर कहानी बड़ी ख़ूबसूरती से वैज्ञानिक होती जाती है। इसमें एक परा-मनोविज्ञानी डॉ. हाज़रा की इंट्री होती है। एक लुगदी जासूसी उपन्यासकार जटायु भी आ जाते हैं। ये सभी लोग उस बच्चे के साथ वह सोने का किला तलाशने चलते हैं, जहाँ एक ख़ज़ाना गड़ा है।

यहाँ तक तो यह एक परी-कथा ही नज़र आती है, मगर इसके साथ ही कहानी उलझने लगती है। हर घटना, हर पात्र, हर बारीक डिटेल पर ध्यान देना पड़ता है। षडयंत्र और हत्या का प्लॉट दिखने लगता है। अपने फ़िल्मों में दृश्य-चित्रों के उस्ताद सत्यजीत रे राजस्थान के मरुस्थल के मध्य जब उस ‘वास्तविक’ सोने के किले तक पहुँचते हैं, यह रोमांच से भर देता है।

आखिर यह पूर्व जमाना का ख़जाना मिलता है या नहीं? इसे गणित और विज्ञान सत्यापित करते हैं या नहीं? आखिर कौन है जो इस पूरे पटकथा का संचालक है? फेलू दा इसकी जड़ों तक कैसे पहुँचते हैं?

इन प्रश्नों के उत्तर के लिए तो यह कहानी पढ़नी पड़ेगी। प्रिंट में इसका हिंदी अनुवाद राजकमल प्रकाशन ने प्रकाशित किया। स्टोरीटेल पर तो यह मौजूद है, और कम समय में सुनी जा सकती है। 

Author Praveen Jha shares his experience about book Shonar Kella (Sone ka kila) by Satyajit Ray. 

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