मैंने गाड़ी चलाते हुए यह किताब सुनी। शुरुआत में ही कहीं एक पंक्ति थी ‘अरुण अस्ताचल हो रहा था’। मैंने एक पल के लिए सोचा कि यह अरुण कौन है? ऑडियोबुक जैसी विधा में तत्सम-निष्ठ भाषा सुनने का पहला ही अनुभव था। इसमें कथावाचक की भी परीक्षा रही होगी। हेमा जी ने मनोयोग से यह कथा पढ़ी है। जब वह ‘वल्कल’ शब्द कहती हैं, तो ऐसा लगता है कि वह इसका अर्थ जानती हैं, यूँ ही नहीं पढ़ रहीं।
शर्मिष्ठा कोई अनसुनी कथा नहीं है। देव्यानी, शर्मिष्ठा और राजा ययाति की कथा अधिकांश लोगों ने सुनी होगी। लेकिन, इस कथा का कहन अलग-अलग होता है। यही कथा मैं किसी को सुनाऊँ तो इन्हीं तीन किरदारों के संतुलन बिठाने में ग़लती कर बैठूँगा। इस कथा को सुन कर भी देव्यानी और शर्मिष्ठा में श्वेत-श्याम अंतर करना कठिन है कि किसका पलड़ा भारी है। इस मामले में इसका शिल्प आधुनिक लगता है। संभवत: भविष्य में नाटक-मंचन के लिए संवाद लिखे गए हैं।
लेखक अणुशक्ति सिंह को तो सिर्फ़ उनकी भाषा के लिए पढ़ा जा सकता है। यह क्लिष्ट नहीं, मनोहारी भाषा है। तत्सम शब्द लिखने वाले कई लोग होंगे, लेकिन उनमें से चुन-चुन कर प्रयोग करने वाले कम होंगे। मैं यह नहीं कह सकता कि इस पुस्तक का एक भी अंतरा कभी लिख पाऊँगा, लेकिन जो भाषा-प्रेमी मसिजीवी हैं, उनको यह प्रयास करना चाहिए। कम से कम एक पौराणिक अथवा मध्ययुगीन लेख, कथा, कविता या उपन्यास।
अणुशक्ति ने इस बहुपठित कथा में कुछ नए विमर्श भी सम्मिलित किए हैं। दोनों स्त्रियों का पारस्परिक द्वंद्व पितृसत्ता से स्फुटित नज़र आता है। शर्मिष्ठा और देव्यानी में से शर्मिष्ठा के प्रति सहानुभूति जन्म ले सकती है, लेकिन एक स्त्री रूप में देव्यानी भी कोई वैम्प या खलनायिका नहीं है।
ऑडियो में यह कहानी लंबी नहीं है। लेकिन, मेरी यात्राएँ छोटी रही, और ऑडियो सिर्फ यात्रा में ही सुन सका, इसलिए वक्त लगा। एक चार-पाँच घंटे की यात्रा में यह पूरी सुनी जा सकती है। यूँ भी यह जिस काल की कथा है, उस समय कथाएँ लिखी-पढ़ी से अधिक सुनी-सुनाई जाती थी। ऑडियो पर कथाएँ सुन कर मैं नए जमाने में नहीं, बल्कि आदिकालीन श्रुति परंपरा में लौट रहा हूँ।
शनै: शनै:।
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