यह किताब तो अब कई मेजों की शोभा बन चुकी होगी। पहली बार अंतरराष्ट्रीय बूकर में कोई हिंदी किताब पहुँची है, और पढ़ी-अनपढ़ी प्रतिक्रियाएँ खूब मिल रही हैं। लेकिन, मुझे शंका है कि यह पुस्तक एक युवा या पारंपरिक पाठक को लुभा पाएगी या बड़े मंचों तक ही रह जाएगी?
इस पुस्तक से एक महीने पूर्व मैंने पोलिश लेखक ओल्गा की पुस्तक ‘फ्लाइट्स’ पर लिखा था, जिसे 2018 में बूकर मिला। वह एक तारामंडल उपन्यास (constellation novel) कहा गया। मतलब क्या? मतलब यह कि आप एक रेस्तराँ में बैठे हैं, आपके पास काग़ज नहीं, आपने टिशू पेपर पर कुछ लिख दिया, और जेब में रख लिया। इसी तरह किसी अखबार के हाशिए पर लिख कर रख लिया। इस प्रक्रिया में आपके पास हज़ारों काग़ज जमा हो गए, और जब उन्हें जोड़ कर देखा तो एक अद्वितीय कृति बन गयी। बशर्तें कि आपका लिखा हर वाक्य, हर पद, हर पृष्ठ भी अद्वितीय हो और एक सोच के सातत्य (continuity of thoughts) से हो। आपने चार पृष्ठों का एक वाक्य पढ़ा है? इस पुस्तक में है!
मैं उपन्यासों का सस्पेंस नहीं खोलता, मगर यहाँ ज़रूरी लग रहा है। अन्यथा पाठक इस मोटे उपन्यास में धैर्य खो देंगे।
यह कथा केंद्रित है लगभग अस्सी वर्ष की औरत चंदा (चंद्रप्रभा) के जीवन पर, जिनका नाम आप पहली बार आधी किताब के बाद ही पढ़ेंगे। इस मध्य आप रीबोक जूतों से लेकर ‘ग्रेट इंडियन फैमिली’ और महिला पात्रों की चिल्ल-पों में ऐसे गुम हो जाएँगे कि यह मुख्य पात्र नेपथ्य में जा चुकी होगी।
चंदा विभाजन से पूर्व के भारत में एक मुसलमान अनवर से ‘कानूनन’ ब्याही थी। यह देश अलग होने और अंतर्धामिक विवाह सामाजिक-कानूनी पेंचों से पूर्व की बात थी। मगर यह बात भी आपको तीन चौथाई पुस्तक के बाद ही पता लगेगी। आप इस मध्य कौवों की काँव-काँव संसद में गुम हो चुके होंगे। बाक़ायदा कौवों के मध्य संवाद-विमर्श है, जो ज़ाहिर है एक बिंब की तरह है।
चंदा अपनी उभयलिंगी (transgender) बेटी (बेटा?) के साथ पाकिस्तान लौट कर जाती है। अपने पति को ढूँढने। मगर उन सरहदों के मायने बदल चुके होते हैं। यह बात शायद किताब के आखिरी पन्ने तक न समझ आए, क्योंकि आप जावेद मियाँदाद और श्रीलंका में हो रहे क्रिकेट मैच में उलझ चुके होंगे।”
इस पुस्तक ने मेरे मस्तिष्क को पिछले एक हफ्ते से बंदी बना लिया था, क्योंकि एक पढ़ाकू का अभिमान पाले हुए भी, मैं इस चंपू-गद्य या पद्यात्मक गद्य से पराजित था। मुझे समझ नहीं आ रहा था कि कथा कहाँ जा रही है। हिंदी में विनोद कुमार शुक्ल कुछ-कुछ मुझे इसी तरह उलझा चुके हैं, इसलिए मैं इस अतिशयोक्ति से बचना चाहूँगा कि ‘आज तक कभी हिंदी में ऐसा शिल्प नहीं मिला’। विश्व साहित्य में तो एक उदाहरण मैंने ऊपर ही लिख दिया।
इस पुस्तक के प्रमुख थीम से कुछ पंक्तियाँ-
1. स्त्री-विमर्श पर-
“अपने को बाहर निकल गयीं मानने वाली बेटियाँ जिस पल बस मिलने मिलाने अंदर जा रही होती हैं, भीतर वाली कोई — जैसे बहूरानी — रीबॉक ठुकठुकाती उसी पल बेटी की बगल से बाहर निकलती है। बेटी अन्दर जा रही है, बहू बाहर आ रही है। सर से पाँव तक हर अंग अलग भँवर में भँवरा जाता है कि अँय हँय कौन अंग किधर का किधर मुड़े और सन्तुलन बिगड़ जाता है।”
2. सरहदों पर-
“सरहद, माँ कहती हैं। सरहद? जानते हो सरहद क्या होती है? बॉर्डर। क्या होता है बॉर्डर? वजूद का घेरा होता है, किसी शख्सियत की टेक होता है। कितनी ही बड़ी, कितनी ही छोटी। रूमाल की किनारी, मेज़पोश का बॉर्डर, मेरी दोहर को समेटती कढ़ाई। आसमान की सरहद। इस बगिया की क्यारी। खेतों की मेड़। इस छत की मुंडेर। तस्वीर का फ्रेम।”
3. कथा के शिल्प, कहन और पाठ पर-
“कहानी वहीं की वहीं हो अभी, तो ज़ाहिर हो जाता है कि उस कहानी को और कहना है अभी। झाड़ बुहार के किनारे नहीं लगा सकते अभी। रुकना पड़ता है, टिकना पड़ता है, उसकी रफ़्तार को अपनी रफ़्तार बनाना पड़ता है अभी।”
मैं इस पुस्तक को पढ़ने का सुझाव नहीं दूँगा। मैं होता कौन हूँ? यह पुस्तक उन बेस्टसेलर, गुडरीड्स, रिकमेंडेशन आदि की सरहदें पहले ही लाँघ चुकी है।
Author Praveen Jha shares his reading experience about Man Booker International Prize 2022 winner Retsamadhi (Tomb of Sand)
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