एक चर्चा हुई कि ‘राजनटनी’ उपन्यास एक मैथिली कथा की नकल है। मुझे कौतूहल हुआ कि ऐसी कौन सी कथा है, जो नकल की जा रही है। अगर इतिहास है, फिर तो उस पर सैकड़ों कथाएँ लिखी ही जा सकती हैं। वे नकल नहीं कहलाती। यहाँ तक कि वैश्विक कॉपीराइट नियम किसी सोच को भी सर्वाधिकार नहीं देता। बिना संदर्भ के हू-ब-हू (कॉपी-पेस्ट) नकल करना ही कॉपीराइट का उल्लंघन है। जिज्ञासा शांत करने के लिए तो बैठ कर मिलान करना ही उपाय था।
कथा सारांश:
मीनाक्षी कार्नाट वंश के राजा गंग देव की राजनर्तकी थी, जिसके सौंदर्य और महिमा से बंग देश के युवराज बल्लाल सेन प्रभावित/आकर्षित थे। उन्होंने मीनाक्षी को हासिल करने के लिए मिथिला पर आक्रमण कर दिया। हालांकि युद्ध का मुख्य उद्देश्य मिथिला के ग्रंथों और पांडुलिपियों पर कब्जा था। यह भी एक अद्भुत् तथ्य है कि उस समय पुस्तकों के लिए युद्ध हो जाते थे और युद्ध का ध्येय ही किताबें लूट कर एक विशाल पुस्तकालय बनाना था। उसके बाद क्या हुआ, और मीनाक्षी की क्या भूमिका रही, यह राज़ फ़िलहाल राज़ ही रहने देता हूँ।
मैथिली कथा क्या थी और किसने लिखी?
मुझे जानकारी मिली कि स्व. मनमोहन झा ने 1953 ई. में ‘मीनाक्षी’ कथा लिखी, जो ‘संचयिता’ में प्रकाशित हुई। उन्होंने इसे एक इतिहास ही कहा है। उनके मैथिली भूमिका के अंश का मैं हिन्दी अनुवाद प्रस्तुत कर रहा हूँ,
‘प्रस्तुत कथा मिथिला के गौरवशाली इतिहास का एक दुखद पृष्ठ मात्र है…मीनाक्षी (प्रसिद्ध मनकी) मिथिला की प्रसिद्ध वेश्या थी और इसका वास-स्थान सरिसब गाँव के पश्चिम अंचल पर आज भी मौजूद है’
उनकी कथा कुल चौदह पृष्ठ की है, जबकि ‘राजनटनी’ उपन्यास (राजपाल प्रकाशन) कुल 160 पृष्ठ की है। इसलिए, इनकी तुलना कठिन है। भाषा भिन्न है, फलक का अंतर है, और शैली में कोई साम्य नहीं। यह अवश्य है कि मूल इतिहास लगभग एक ही है।
लेखिका ने चार पुस्तकों का संदर्भ दिया है। उनके दिए प्रथम संदर्भ ‘सिरजनहार’ उपन्यास (पृ. 32-37) में यह पात्र और कथा वर्णित है। लेखिका ने उपन्यास के प्रारंभ में ही यह लिख दिया है- ‘वरिष्ठ साहित्यकार उषा किरण खान जिन्होंने यह कथा दी, उन्हीं को समर्पित’। इसलिए यह विवाद भी वहीं समाप्त हो जाता है। इसके अतिरिक्त तीन अन्य पुस्तकों के भी संदर्भ हैं।
एक और जानकारी मिली कि दशकों पहले लोहना पाठशाला (बिहार) में ‘राजनर्तकी’ नामक नाटक मंचित हुआ था, जो इसी कथा पर आधारित था। इस तरह यह इतिहास भिन्न विधाओं में दोहराया गया।
कैसे अलग है गीताश्री की राजनटनी?
गीताश्री ने इस कथा को एक सम्यक् ऐतिहासिक रूप दिया है। मसलन मीनाक्षी के माता-पिता का बंजारों के रूप में मिथिला क्षेत्र में आकर बसना अन्य कथा में वर्णित नहीं। कई अन्य पात्र जैसे मीनाक्षी की सखियाँ, और कथानक में उनकी प्रमुख भूमिका, इसे एक नया आयाम देती है। उन्होंने कई संस्कृत श्लोकों, लोकगीतों, विजय-गान को सम्मिलित किया है, जो कथा को सांस्कृतिक संपूर्णता देती है। उनके उपन्यास का एक मुख्य पात्र है सौमित्र मिसिर (मिश्र), जो अन्य किसी कथा में नहीं। गीताश्री ने बौद्ध-शैव संघर्ष का भी चित्रण किया है, जो उस समय के युद्धों का एक महत्वपूर्ण कारक था।
मनमोहन झा की कथा से दो-तीन समानांतर अवश्य हैं। जैसे वह एक स्थान पर बल्लाल सेन द्वारा मिथिला में ‘नि:शंकपुर’ स्थाप्ना की चर्चा करते हैं। यह युवराज को मिली पदवी ‘नि:शंक’ के आधार पर था। जबकि गीताश्री के उपन्यास में इसे ‘संग्रामपुर’ कहा गया है, और इसकी कथा अलग दिशा में वर्ण-संरचना से जुड़ी है। दोनों कथाओं के अंत में एक वर्णन है कि नायिका मीनाक्षी बंग देश का जल लेने से इंकार करती है। मनमोहन झा की कथा अलंकृत समृद्ध भाषा में एक धरोहर है, जिसका हिन्दी/अंग्रेज़ी अनुवाद किया जाना चाहिए।
एक मूलभूत अंतर तो यही है कि मनमोहन झा की कथा में मीनाक्षी को वेश्या कहा गया है, और लिच्छवी गणतंत्र की आम्रपाली से तुलना की गयी है। जबकि गीताश्री के संपूर्ण उपन्यास में वह स्वाभिमानी नटनी है, गणिका नहीं।
मुझे लगता है कि विवादों से परे, यह कथा बारम्बार उल्लेखित और वर्णित की जानी चाहिए। गीताश्री की रचना को नकल नहीं, पुनर्जीवित करना कहा जाना चाहिए। यह क्यों आवश्यक है?
बल्लाल सेना और मिथिला का ही एक उदाहरण देता हूँ। नीहार रंजन रे ने बंगाल के इतिहास में ‘रागतरंगिणी’ और उसके रचयिता लोचन को बल्लाल सेन का दरबारी बताया है। यही बात बहुप्रचारित भी है कि वह बंगाल से थे। किंतु ‘रागतरंगिणी’ से यह प्रमाणित है कि उनका बल्लाल सेन से कोई संबंध नहीं था, बल्कि सदियों बाद वह शुभंकर ठाकुर के समय मिथिला में थे। इस बात को संगीत अध्येता गजेंद्र नारायण सिंह ने तर्क सहित स्थापित किया। इसलिए, इतिहास को अलग-अलग रूपों में दोहराने की जरूरत है। बातें स्पष्ट हो जाती है।
उपन्यास में वर्णित है कि पहले मिथिला में ग्रंथ मिट्टी के नीचे दबा कर रखे जाते थे कि कोई चुरा न ले। अब वह युग नहीं रहा। अब तो प्रचारित-प्रसारित करने का समय है। विवाद का भी महत्व है ही। विवाद हुआ, तभी तो मेरे जैसे आम पाठक भी रुचि लेकर पढ़ गए कि आख़िर माजरा क्या है। इतनी सुंदर कथाएँ पढ़ने को मिली, जो कहीं न कहीं मेरा भी इतिहास है।
Author Praveen Jha shares his experience about book Rajnatni by Geeta Shree
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