राजतरंगिणी – कल्हण

कश्मीर पर विजय पुण्य की शक्ति से ही की जा सकती है, शस्त्र से नहीं। इसलिए कश्मीर-वासी परलोक से डरते हैं, शस्त्र से नहीं
रचयिता: कल्हण; पाठ (सरलीकरण/रूपांतरण): प्रवीण कु. झा

प्रथम तरंग

1

कल्प के 6 मन्वंतर बाद हिमालय के बीच एक ‘सतीसर’ नाम की बड़ी झील थी। सातवें यानी वैवस्वत मन्वंतर में कश्यप ऋषि ने सभी देवताओं के सहयोग से उस झील में बसे असुर जलोद्भव को मरवा डाला। उस झील की भूमि में कश्मीर की संरचना की। यह प्रदेश वितस्ता नदी की धारा और नागराज श्री नीलनाग द्वारा पालन किया जाता है।

वितस्ता में अमृत और विष दोनों के गुण हैं। इसकी कंदराओं में पार्वती गणेश को दूध पिलाती थी। इस कारण इसमें दूध के गुण हैं। इसकी धारा में साँप आकर जल पीते हैं, इसलिए उसमें नागों के विष का गुण भी है। तमाम रत्न वाले साँपों से सुसज्जित यह देश कुबेर की नगरी लगती है। गरूड़ के भय से इन साँपों की रक्षा के लिए इस प्रदेश में पहाड़ों की दीवार खड़ी की गयी।

यहाँ पापसूदन तीर्थ में लकड़ी (काठ) के बने शिव की पूजा से भोग और मोक्ष, दोनों की प्राप्ति होती है। यहाँ एक निर्जल पर्वत है, जहाँ अगर पुण्यात्मा जाती है तो जल मिल जाता है, लेकिन पापियों को नहीं मिलता। यहाँ धरती से आग की ज्वालाएँ भी निकलती है, जैसे गण हवन कर रहे हों।

यहाँ भेड़ पर्वत पर एक झील है जहाँ से गंगा का उद्भव हुआ, वहाँ कई हंस विचरण करते हैं। नन्दीक्षेत्र में एक शिव-मंदिर है, जहाँ देवों द्वारा शिव की पूजा की गयी थी। आज भी उस मंदिर में चंदन-बिन्दु दिखते हैं। यहाँ माँ शारदा के दर्शन से कवियों के द्वारा सेवित दो नदियों- मधुमती और मधुरवाणी की प्राप्ति होती है। कश्मीर में चक्रधर, विजयेश, ईशान, आदिकेशव इत्यादि तीर्थ-स्थल तो हैं ही, यहाँ एक भी ऐसा स्थान नहीं जो तीर्थ नहीं।

‘कश्मीर पर विजय पुण्य की शक्ति से ही की जा सकती है, शस्त्र से नहीं। इसलिए कश्मीर-वासी परलोक से डरते हैं, शस्त्र से नहीं।’

यहाँ ठंड के समय स्नानागारों में गरम जल मिलता है, और गर्मी के समय नदियों में शीतल जल। चूँकि इस स्थान का निर्माण सूर्य के पिता कश्यप ने किया, वो यहाँ कभी भी भीषण गर्मी नहीं लाते। यहाँ बड़े-बड़े विद्या-भवन, शीतल स्वच्छ जल और अंगूर जैसे दुर्लभ फल भी साधारण ही माने जाते हैं।

तीनों लोक में पृथ्वी श्रेष्ठ है, उसमें भी उत्तर दिशा, उस दिशा में श्रेष्ठ हिमालय, और हिमालय में सबसे रम्य स्थान है कश्मीर।

कलियुग में इस देश में कौरव-पांडव के समकालीन तृतीय गोनन्द तक कुल 52 राजा हुए। लेकिन उन राजाओं के अत्याचार से कवि या लेखक पनप नहीं पाए। यहाँ के राजा प्रतापी हुए और कश्मीर को सुरक्षित रखा, पर इनका नाम लेने वाला कोई नहीं रहा। जिनके राज में हाथियों के दल थे, धन की वर्षा थी, सुंदरियों का विहार था, और गगन-चुम्बी भवन थे, उन्हें आज कोई याद नहीं करता।

‘इसी लिए कवि से महत्वपूर्ण कोई नहीं। उनके बिना संसार अंधा है।’

कश्मीर में गोनन्द आदि 52 राजाओं नें 2268 वर्ष तक राज किया। जो लोग यह मानते हैं कि महाभारत कलियुग में नहीं, द्वापरयुग के अंत में हुआ, वो मेरी काल-गणना से असहमत हो सकते हैं। पर यह तो सच है ही कि लगभग कलियुग में जितने वर्ष बीते हैं, उतने ही वर्ष राजाओं ने अब तक शासन किया है।

नोट- कलियुग के 653 वर्ष में कौरव-पांडव हुए। अभी शककाल के 1070 वर्ष बीत चुके हैं। तीसरे गोनन्द के समय से आज तक 2330 वर्ष बीत चुके। एक दूसरी गणना भी है। सप्तर्षि एक नक्षत्र से दूसरे नक्षत्र लगभग 100 साल में घूमते हैं। जब युधिष्ठिर का शासन था, वो मघा नक्षत्र में थे, जो शक-काल 2556 था।

प्रथम तरंग की काल-गणना में अधिकतर टीका लिखने वालों और स्वयं कल्हण को संदेह है। वह पक्की नहीं कही जा सकती।

2

चंचल गंगा नदी जब बहती थी, तो वह कैलाश पर्वत का उपहास करती, राजा गोनन्द की सेवा में हाज़िर रहती। शेषनाग का विष भरा मस्तक त्याग यह धरती राजा गोनन्द के रत्न-सज्जित भुजाओं के आश्रय में चली गयी।

राजा गोनन्द जरासंध के मित्र थे। वह कृष्ण से लड़ने के लिए मथुरा पहुँचे। उन्होंने मथुरा को चारों ओर से घेर लिया। वहीं यमुना किनारे अपनी सेना को ठहराया, अपने आतंक से यादव स्त्रियों का हास किया; और यादव सैनिकों का मनोबल तोड़ा। जब यादव सेना हारने लगी तो बलराम रक्षा के लिए आए। लेकिन इन दोनों वीरों में युद्ध चलता रहा और लंबे समय तक कोई विजयी न हो सका। आखिर गोनन्द शस्त्रों से छलनी हुए, और वीरगति को प्राप्त हुए।

गोनन्द के बाद दामोदर कश्मीर के राजा बने, जिनके मन में यादवों से बदले की आग सुलगती रही। जब गांधार-नरेश ने अपनी कन्या के स्वयंवर में राजाओं को निमंत्रण भेजा, तो दामोदर भी अपनी सेना लेकर यादवों से लड़ने निकल पड़े। दामोदर ने जब इस स्वयंवर के लिए आए वीरों पर आक्रमण किया तो भला स्वयं-वर कैसे होता? आखिर कृष्ण ने अपने सुदर्शन से दामोदर का वध कर दिया। कृष्ण ने ही दामोदर की गर्भवती पत्नी यशोमती का राज्याभिषेक कराया।

लेकिन उस वक्त स्त्री को राजा बनते देख मंत्रियों में असंतोष फैल गया। कृष्ण ने उन्हें शांत कराया कि कश्मीर तो पार्वती का ही स्थल है।

यह सुन कर लोग जो स्त्रियों को भोग्य मानते थे, देवी रूप मानने लगे, और यशोमती को राजमाता। दसवें महीने में यशोमती के बेटे का जन्म हुआ। उसका नाम रखा गया- गोनन्द (द्वितीय)। यहाँ की वितस्ता नदी और कश्मीर की धरती भी इस बालक की उप-माताएँ बनी।

यह बच्चा जब किलकारी करता और खेलता, उसके साथ खेलते राज-अनुचर पारितोषिक पाते। अगर कोई मंत्री उस बालक की बात नहीं समझ पाता, तो खुद को अपराधी समझता। जब वह बाल-नरेश सिंहासन पर बैठते, तो उनके पैर जमीन तक नहीं पहुँचते। बाल-नरेश को पंखा झलकर आराम करने दिया जाता, मंत्रीगण राज-काज सँभालते।

जब महाभारत युद्ध हुआ तो कौरवों या पांडवों ने इस बाल-नरेश को बच्चा समझ युद्ध के लिए आमंत्रित नहीं किया।

बाद में जो 35 राजा हुए, उनका इतिहास में वर्णन नहीं मिलता। उसके बाद लव नामक एक राजा हुए। वह एक यशस्वी राजा थे जिन्होंने शत्रुओं की नींद हराम की। उन्ही ने 84 लाख पत्थर लगवा कर ‘लोलोर’ और ‘लोलेर’ नामक नगर बसाए। इस प्रतापी राजा लव ने आखिर लेहरी नदी किनारे बसा गाँव लेवर ब्राह्मणों को दान कर दिया और स्वर्गवासी हो गया। लव के बाद कुश आए। कुश के बाद कुशेशय नामक राजा बना, जिसने कुरूहार नामक गाँव ब्राह्मणों को दिया। कुशेशय के बाद अगले राजा हुए – खगेन्द्र। उन्होनें खागी और खोनमुष नामक गांवों की स्थाप्ना की।

खगेन्द्र के पुत्र सुरेन्द्र के सामने तो देवराज इन्द्र भी लज्जित होते थे। उन्होंने दरद देश की सीमा पर सोरक नामक नगर बसाया। उन्होंने ही नरेंद्र भवन और सौरभ नामक दो विहार बनाए। राजा सुरेंद्र के पुत्र नहीं थे। इसलिए उनके बाद दूसरे वंश के राजा गोधर राज करने लगे।

राजा गोधर धार्मिक व्यक्ति थे। उन्होंने ब्राह्मणों को गोधर और हस्तिशाला नामक गाँव दिए। उनके बाद उनके पुत्र सुवर्ण राजा हुए, जो दानवीर थे। उन्होनें ही कराल देश में एक कृत्रिम नदी बहाई- भीष्म कुल्या। उनके बेटे जनक ने विहार और जालौन नामक गाँव बसाए। जनक के बाद उनके पुत्र शचीनर राजा हुए, जो क्षमाशील तो थे ही, पर उनकी आज्ञा कोई ठुकरा नहीं सकता था। इन्होंने शमांगार और शनार नामक दो गाँव बसाए। शचीनर के कोई पुत्र नहीं थे।

अगले राजा हुए अशोक, जो शकुनी के प्रपौत्र थे। ये एक पवित्र राजा थे, जिन्होंने जैन धर्म स्वीकारा। इन्होनें शुष्कलेत्र और वितस्तात्र में जैन-स्तूप बनवाए। वितस्तात्र के धर्मारण्य विहार का बना जैन-मंदिर तो विशालकाय था, जिसकी ऊँचाई देखने वाली थी।

इसी राजा अशोक ने 96 लाख भवनों से बना श्रीनगर बसाया।

राजा ने हिंदू विजयेश्वर मंदिर जो चूने का बना था, उसे तुड़वा कर पत्थर का भव्य जैन मंदिर बनवाया। विजयेश्वर के अतिरिक्त अशोकेश्वर नाम से दो मंदिर पास ही और बनवाए।

अशोक के समय ही कश्मीर पर म्लेच्छों का आक्रमण हुआ, जिनके समूल नाश के लिए राजा अशोक ने शिव की तपस्या प्रारंभ की। इस तपस्या के पश्चात् उन्हें एक यशस्वी पुत्र प्राप्त हुए- जलौक, जो अगले राजा बने। उनकी पवित्रता देख कर तो देव-गण भी आश्चर्य-चकित थे। इस राजा ने पारद (मर्करी) आदि धातुओं से स्वर्ण (या सोने सरीखे धातु) बनाने की शक्ति पाई, और इससे पूरी धरती को स्वर्ण-मय बनाने की उनमें इच्छा जागी।

राजा जलौक नागसरोवर में नाग-कन्याओं से यौन-संबंध भी स्थापित करते रहे। इस राजा ने कई बुद्धिमान बौद्धों को परास्त भी किया। ये शिव-भक्त थे और नन्दीश क्षेत्र के श्रीज्येष्ठचेश्वर में प्रतिदिन शिव की आराधना करते थे। यह यात्रा लंबी थी, लेकिन इस यात्रा में पूरे रास्ते राजा के साथ एक नाग चलता था, और इसलिए हर गाँव में घोड़े की ज़रूरत नहीं होती।

उस वीर राजा ने आख़िर म्लेच्छों के दल को हर जगह परास्त कर खत्म कर दिया।

जिस जगह से म्लेच्छों को उखाड़ फेंका गया, उसका नाम ‘उज्झटडिम्ब’ नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसी राजा ने कान्य-कुब्ज और अन्य देशों को जीत कर कश्मीर में विद्वान पंडितों और चारों वर्णों के लोगों को बुलाया। इनकी मदद से राज्य-प्रबंधन में सुधार किए गए।

पहले राज्य में सात अधिकारी होते थे- धर्माध्यक्ष, कोषाध्यक्ष, सेनापति, धनाध्यक्ष, विदेश सचिव, पुरोहित और ज्योतिषि। अब युधिष्ठिर के राज की तरह आठवाँ विभाग जुड़ा- कार्य-विभाग!

राजा जलौक ने ही वारबल आदि गाँव ब्राह्मणों को दिए। उसकी रानी ईशान देवी ने कश्मीर और अन्य देशों के द्वारों पर प्रभावशाली मातृ-चक्र की स्थापना की। राजा जलौक ने व्यास से जब नन्दी-पुराण सुना तो उसके मन में नन्दीश क्षेत्र के अलावा सोदर तीर्थ में पूजन की इच्छा जगी। हालांकि उसने श्रीनगर में ही भगवान् ज्येष्ठचेश की स्थापना की थी, लेकिन सोदर तीर्थ जाकर ही पूजा करने की उसकी इच्छा प्रबल हो गयी थी। सोदर तीर्थ उसके निवास से काफी दूर था, तो एक दिन वो व्यस्तता की वजह से जा न सका। इस कारण वो बहुत परेशान हुआ।

लेकिन तभी जमीन से बिल्कुल सोदर-तीर्थ जैसी ही जल-धारा निकलने लगी। उसमें जब उसने स्नान किया तो लगा सोदर तीर्थ यहीं उठ कर आ गया। इस बात की जाँच के लिए उसने एक पात्र मूल सोदर तीर्थ में रख दिया। वो बह कर इसी जल-धारा में आ गया। इससे सिद्ध हो गया कि यह जल-धारा सोदर तीर्थ से ही आ रही है। यह संभव है कि राजा जलौक नन्दीश (शिव) का ही अवतार था। नहीं तो भला ऐसे चमत्कार कैसे होते?

एक समय राजा जलौक विजयेश्वर जा रहे थे, तो रास्ते में एक स्त्री ने भोजन माँगा।

राजा ने पूछा, ‘तुम क्या खाना पसंद करोगी?’

‘मुझे नर-मांस खाने की इच्छा है’, यह कहते हुए स्त्री ने भयंकर रूप धारण कर लिया।

‘मैं किसी की हत्या तो नहीं कर सकता। तुम मेरा मांस खा लो’

’आपका मांस? यह कैसे संभव है? हे राजा! मैनें आज आप में बोधिसत्व देख लिया। आप महान् हैं’

‘बोधिसत्व का क्या अर्थ है?’

‘अब आपको मैं सारी बात कहती हूँ। मुझे आपके द्वारा परास्त किए बौद्धों ने भेजा है। मैं लोकालोक पर्वत के समीप अंधकार में रहने वाली डायनों में से हूँ। हम अपने पापों से मुक्ति के लिए बोधिसत्वों के शरण में रहते हैं। बोधिसत्व महात्मा बुद्ध के बाद जो भी बौद्ध ज्ञानी पुरूष हुए, वे लोग हैं। वे अपराधियों पर क्रोधित नहीं होते, उन्हें क्षमा कर देते हैं। वे संसार का कल्याण करते हैं। एक बार एक बौद्ध-विहार में बज रहे वाद्य-यंत्रों से आपकी नींद में खलल पड़ गया, तो आपने सारा विहार ही तहस-नहस कर दिया। इसी का बदला लेने बौद्धों ने मुझे आपके पास भेजा’

‘अच्छा। आगे कहिए’

‘उन्होनें मुझसे कहा कि राजा महाशाक्य है, और इसलिए उसे मैं पीड़ा नहीं दे सकती। आपके दर्शन से मुझे सद्गति मिलेगी। कुछ दुष्टों ने आपका मन मलिन कर रखा है। मैं आपको असंख्य सोने के सिक्के देती हूँ। आप बौद्ध-विहार पुन: बनवा दें। इससे उन दुष्टों का प्रायश्चित हो जाएगा, जिसने आपको इस विहार को तोड़ने के लिए कहा था। मैनें आपसे भोजन माँग कर आपके सत्व की परीक्षा ली थी। अब मैं भी पाप-मुक्त हो जाऊँगी। आपका कल्याण हो। मैं अब जाती हूँ’

यह कह कर वो अदृश्य हो गयी।

राजा ने उस कृत्या (डायन) के लिए एक कृत्याश्रम विहार बनवाया, और उसकी पूजा करने लगा।

राजा जालौक ने ही नन्दीश क्षेत्र में भगवान् भूतेश का विशाल रत्न-सज्जित पत्थरों का मंदिर बनवाया। इसी राजा ने ज्येष्ठेश भगवान् की पूजा के लिए सौ नाचने-गाने वाली स्त्रियों को रखा था। अंत में राजा जलौक अपनी पत्नी के साथ कनकवाहिनी नदी के किनारे चीर-मोचन में तपस्या करने को बैठे। आखिर उनकी मृत्यु हुई और वो शिव रूप में लीन हो गए।

राजा जालौक के बाद राजा दामोदर आए। वो किस वंश के थे, यह कहना कठिन है। यह राजा भी संसार में प्रसिद्ध और धन से इतने संपन्न रहे कि देवता कुबेर भी उनके मित्र थे। उन्होनें अपने हजारों यक्षों को लगाकर एक ‘गुड्ड’ नामक बांध बनवाया। इस बांध से दामोदरसूद नामक उसके बसाए नगर में पानी पहुँचता था। लेकिन इस बाँध में एक बड़ा विघ्न आने वाला था।

उस वक्त ब्राह्मणों को नाराज करना राजाओं के लिए एक पाप था। एक बार राजा दामोदर वितस्ता नदी की ओर नहाने जा रहे थे, उनके पास कई भूखे ब्राह्मण पहुँच गए और भोजन मांगने लगे। राजा बिना ध्यान दिए आगे बढ़ने लगे, तो ब्राह्मणों ने अपनी शक्ति से वितस्ता नदी को ही सामने ला दिया और कहा कि यह रही नदी! अब भोजन दो। राजा ने फिर भी ध्यान नहीं दिया और कहा कि नहाने के बाद ही भोजन देंगे। इतना ही नहीं, राजा ने उन्हें वहाँ से चले जाने को कह दिया।

ब्राह्मण नाराज होकर बोले, ‘जा राजन! तू साँप बन जा!’

’नहीं! मुझे क्षमा कर दें’

‘अब जब एक दिन में संपूर्ण रामायण सुनेगा, तभी तू मुक्त होगा’

उस दिन के बाद वो राजा साँप बन गया, और आज भी कश्मीर में कहीं भटक रहा है।

राजा दामोदर के बाद हुष्क, जुष्क और कनिष्क नामक राजा हुए, जिन्होंने हुष्कपुर, जुष्कपुर और कनिष्कपुर नामक नगर बसाए। इनमें से जुष्क ने जुष्कपुर और जयस्वामिपुर में बहुत से बौद्ध विहार बनवाए। यह वो वक्त था जब कश्मीर में बौद्ध-धर्म का बोलबाला था। महात्मा बुद्ध की मृत्यु तो डेढ़ सौ वर्ष पूर्व हो चुकी थी, पर नागार्जुन नामक बोधिसत्व ने बौद्ध-धर्म का प्रसार खूब किया था।

इन राजाओं के बाद आए- राजा अभिमन्यु। इन्होंने कण्टकोत्स नामक गांव ब्राह्मणों को दिया। इसी राजा ने अभिमन्युपुर नामक शहर बसा कर वहाँ शिव का मंदिर बनवाया।

अभिमन्यु के समय ही चंद्राचार्य नामक पंडित ने एक महत्वपूर्ण कार्य किया। पाणिनी और कात्यायन द्वारा स्थापित ‘महाभाष्य’ व्याकरण जो लुप्त हो रहा था, उसका पुन: प्रचार किया। उन्होंने चांद्र-व्याकरण नाम से एक अपने व्याकरण की भी रचना की।

इसकी महत्ता शायद इसलिए भी थी क्योंकि नागार्जुन द्वारा प्रसारित बौद्ध धर्म भारत में दिग्विजय कर रहा था। बोधिसत्वों ने शास्त्रार्थ में कई पंडितों को हराया और नीलमतपुराण के तर्कों को छिन्न कर दिया। लेकिन जब इस कारण बलि-प्रथा और अन्य कर्मकांड बंद होने शुरू हुए तो कश्मीर के नाग क्रुद्धित हो गए। उन्होंने बर्फबारी शुरू कर दी और कई लोग मरने लगे। पर इसमें मुख्यत: बौद्धों का ही नाश हुआ। बलिदान और होम करने वाले ब्राह्मण बच गए, बौद्ध मरते गए। ऐसी विकट परिस्थिति में राजा अभिमन्यु शीत काल के छह महीने दर्वाभिसार प्रांत में रहने लगे। बर्फबारी की वजह से श्रीनगर में रहना असंभव था।

नागों को प्रसन्न करने के लिए एक काश्यप-गोत्री ब्राह्मण चंद्रदेव ने तप प्रारंभ किया। जब रक्षक-नील नामक नाग आखिर खुश होकर प्रकट हुए तो बर्फबारी रूक गयी और उन्होंने नीलमत पुराण से पूजा करने के लिए कहा। इससे पहले विद्वान चंद्रदेव ने यक्षों के उपद्रव से मुक्ति दी थी। अब इस दूसरे विद्वान चंद्रदेव ने बौद्ध-भिक्षुओं से मुक्ति दिलाई।

3

अगले राजा बने- तृतीय गोनंद। उनके आने के बाद पुराने कर्म-कांड फिर से शुरू हो गए। नागपूजन, नाग-यज्ञ, नाग-यात्रा, सभी त्यौहार फिर से शुरू हो गए। बौद्ध प्रभाव से यह सब बंद हो गए थे। जब नीलमत-पुराण से पूजा शुरू हुई, तो बर्फबारी भी बंद हो गयी, और बौद्ध समस्या भी खत्म हुई।

कल्हण कहते हैं, “जो राजा प्रजा को कष्ट देते हैं, वो परिवार सहित नष्ट हो जाते हैं। और जो बिगड़े हुए देश में सुख-शांति की स्थापना करते हैं, उनकी कई पीढ़ी तक स्थिरता रहती है।”

शासनकाल (गोनंद तृतीय से युधिष्ठिर तक. सभी नाम उपलब्ध नहीं)

गोनंद तृतीय – 35 वर्ष
विभीषन – 53.5 वर्ष
इंद्रजीत – 35 वर्ष
रावण – 37 वर्ष
विभीषण द्वितीय – 35.5 वर्ष
किन्नर – 39 वर्ष 9 महीने
सिद्ध – 60 वर्ष
उत्पलाक्ष – 30.5 वर्ष
हिरण्याक्ष – 37 वर्ष 7 महीने
हिण्यकुल – 60 वर्ष
वसुकुल – 60 वर्ष
मिहिरकुल– 70 वर्ष
वक – 63 वर्ष 13 दिन
क्षितिनन्द – 30 वर्ष
वसुनन्द – 52 वर्ष 2 महीने
नर – 60 वर्ष
अक्ष– 60 वर्ष
गोपादित्य – 60 वर्ष 6 दिन
गोकर्ण – 57 वर्ष 11 दिन
खिखिलाण्य – 36 वर्ष 3 महीने 10 दिन
युधिष्ठिर

कुल 38 राजाओं का शासनकाल- 1014 वर्ष, 9 दिन

राजा किन्नर जब युद्ध जीत कर आते तो कई किन्नर उनके लिए गीत गाते। इस राजा ने कई अनर्थ किये। इसकी शुरूआत तब हुई जब उसकी एक पत्नी को एक बौद्ध-भिक्षु भगा ले गया। राजा ने गुस्से में आकर सैकड़ों बौद्ध-विहार जला दिए, और उनको दिए हुए गाँव छीन लिए। इस लूट-पाट से जमा किए धन से इस राजा ने वितस्ता नदी के किनारे एक खूबसूरत बागों से सजा एक शहर बसाया। इसी शहर के एक बगीचे में एक बड़ी झील थी। और उस झील में सुश्रुवा नामक एक नाग रहता था।

इसी झील के किनारे एक विशाखा नामक युवा ब्राह्मण बैठ कर सत्तू खा रहा था। जैसे ही वो सत्तू का निवाला लेने ही वाला था कि उसे पायलों की झनक सुनाई दी। जब उसने नजर दौड़ाई तो सामने दो सुंदर नाग-कन्यायें सामने दिख गई। कजरारी आँखें, और कानों में सुंदर झुमके। हवा में लहराते आंचल। उन नाग-कन्यायों को देखते ही उसका मन मचल गया, और वह सत्तू खाते उन्हें निहारता रहा।

तभी उसने देखा कि वो कन्यायें मकई की बालियाँ उखाड़ कर खाने लगी। ब्राह्मण यह देख कर आश्चर्यचकित् हो गया।

“इतनी सुंदर कन्याएँ और यह दरिद्र भोजन?” ब्राह्मण ने कहा, और उन्हें सत्तू खाने को दिया। एक पत्ते का दोना बनाकर पानी भी पिलाया।

खिला-पिला कर वो कमल के पत्तों से उन्हें पंखा झलने लगा, और पूछा,

“आपलोग किस जाति से हैं?”

“हम सुश्रुवा नाग की बेटियाँ है। अगर अच्छा भोजन न मिले तो क्या मकई की बालियाँ नहीं खा सकतीं? मेरा नाम इरावती है, और मेरी शादी विद्याधर चक्रवर्ती से होने वाली है। यह मेरी बहन चित्रलेखा है।” नाग-कन्या ने कहा।

“लेकिन आपलोग इतने गरीब कैसे?”

“यह तो मेरे पिता ही बताएँगे। वो तक्षक नाग की यात्रा में यहाँ आएँगे। उनके माथे से हमेशा जल-धारा बहती रहती है। आप आसानी से पहचान लेंगे। उनके साथ ही हम भी मिलेंगी।”

यह कह कर वो अदृश्य हो गयीं।

कुछ दिनों बाद तमाम नाटक-मंडलियाँ कश्मीर आई और तक्षक नाग-यात्रा प्रारंभ हुई। यहाँ वो विशाखा नामक ब्राह्मण भी सुश्रुवा को ढूँढता पहुँच गया। जब नागराज को उनकी बेटियों ने उस ब्राह्मण से परिचय कराया तो वो भी प्रसन्न हो गए।

“मुझे आपकी बेटियों ने आपकी गरीबी के बारे में बताया।”

“हाँ! यह बातें मैं किसी से कहता नहीं, पर आपको पता लग गया तो कह देता हूँ। हमारी समस्या का कारण वो सामने बैठा साधु है। वो जब तक इन खेतों से नई फसल नहीं खाता, नियमानुसार हम भी नहीं खा सकते। और यह साधु खाता ही नहीं। आप कुछ जुगाड़ लगा कर इसको नई फसल खिला दें तो बड़ी कृपा होगी।”

बस फिर क्या था। उस ब्राह्मण ने चुपके से उस साधु के बर्तन में नया अन्न डाल दिया, और उसकी तपस्या भंग हुई। नागराज खुश होकर ब्राह्मण को अपने घर ले गए, जहाँ उन कन्याओं ने उसकी खूब सेवा की। आखिर ब्राह्मण ने चित्रलेखा का हाथ मांग लिया। नागराज ने अपनी बेटी और खूब सारा धन देकर उसे विदा किया। ब्राह्मण भी वापस शहर लौट कर खूब धनी-सुखी रहने लगा। चित्रलेखा भी उसे खुश रखती थी।

एक दिन चित्रलेखा ने बाहर धान सूखने रखा था, तो एक घोड़ा आकर उसे खाने लगा। आस-पास नौकर नहीं थे तो वो स्वयं ही घोड़ा भगाने के लिए दौड़ी आई। वो अपने आंचल सँभालते घोड़े की पीठ पर हाथों से मार कर भगाने लगी। उसके सुनहरे हाथ के छाप घोड़े की पीठ पर अंकित हो गए।

राजा किन्नर ने पहले भी चंद्रलेखा की खूबसूरती की चर्चा सुनी थी। जब घोड़े की पीठ पर उसके हाथ के निशान दिखे, वो पागल ही हो गया। वो चंद्रलेखा के घर जाकर उसे सताने लगा, पर वो नहीं मानी। आखिर उसने उसके पति विशाखा से ही उसकी पत्नी का हाथ माँग लिया। वो नाराज हो गया, तो राजा ने बलात्कार की कोशिश की। इससे भागकर ब्राह्मण दंपति नागराज के पास पहुँचे। गुस्से में नागराज ने पूरे शहर को तहस-नहस कर दिया। हजारों लोग मारे गए। पूरी वितस्ता नदी खून के रंग की हो गयी।

नागराज की बहन रमण्या भी अपने भाई की सहायता के लिए पत्थर गिराती आई। इसकी वजह से लगभग चालीस कि.मी. (पांच योजन) तक की जमीन में पत्थर ही पत्थर बिखर गए। यह स्थान ‘रमण्याटवी’ कहलाता है।

नागराज स्वयं अपने स्थान को छोड़ कर एक सुंदर पर्वत पर चले गए। वहीं एक बड़ी झील बनाई (जो अमरनाथ के रास्ते में आज भी चक्रधर मंदिर के पास नजर आता है)। उनके जमाई भी ससुर की कृपा से नाग बन गए और वहीं पास में जामातुर सरोवर में रहने लगे।

(क्या किन्नर राजा के एक स्त्री के मोह के कारण पूरा शहर नष्ट हो जाना ठीक था? यह प्रश्न अब निराधार है। पर कल्हण के अनुसार एक ब्राह्मण से अन्याय का फल प्रलय ही है।) जब कश्मीर ध्वस्त हो रहा था, तब किस्मत से एक राजकुमार विजयेश्वर तीर्थयात्रा पर थे। राजकुमार सिद्ध ही अगले राजा बने और उन्होंने अपने पिता की गलती से सीख ली। वो शांतचित्त और शिव-भक्त राजा थे।

उस राजा ने अपने पुण्य से अपने पिता के पाप का प्रायश्चित तो किया ही, उसके शासनकाल में धर्म की विजय हुई। उसकी मृत्यु के बाद सभी देवताओं ने उसका स्वागत किया और स्वर्गलोक में सात दिन तक उत्सव हुआ।

राजा मिहिरकुल एक दुष्ट राजा था। उसके शासनकाल में म्लेच्छों का वर्चस्व होता गया, और उत्तर भारत अपने भयंकर काल में था। वो और उसके सैनिक नरभक्षी थे, जो शत्रुओं को मार कर उनका मांस खाते थे। जब उसकी सेना आती थी तो कौवे और गिद्ध मंडराने लगते थे। यहाँ तक कि उसके अंत:पुर में भी नरभक्षण चलता रहता था। वो राजा दिखता भी बेताल सा भयानक था। राजा बालकों के प्रति निर्दयी, स्त्रियों के लिए घृणा रखने वाला और वृद्धों का निरादर करने वाला था।

एक दिन उसने अपनी पत्नी को सिंहल प्रदेश (श्रीलंका) के सोने से सज्जित चोली पहने देखा तो क्रुद्ध हो गया। उसने जाँच की तो यह पक्का हो गया कि यह सोना सिंहल प्रदेश का ही है। क्रोध में उसने सिंहल पर आक्रमण की योजना बनाई। पागल हाथियों से भरी उसकी सेना ने सिंहल-नरेश पर आक्रमण कर उन्हें हरा दिया। वहाँ के राक्षस भी भयभीत हो गए जैसे रामचंद्र ने फिर से लंका पर आक्रमण कर दिया हो। वहाँ दूसरे राजा को बिठा कर वो सूर्य के चित्र वाला झंडा उठा कर ले आया।

सिंहल से लौटते वक्त उसने चोल राजा, कर्नाट राजा और लाट राजा को भी परास्त किया। वहाँ के सभी नगर और महल ध्वस्त करता वो कश्मीर लौटा। जब वो कश्मीर के द्वार पर पहुँचा तो एक हाथी पहाड़ से नीचे गिर गया। उस हाथी की चीत्कार से राजा इतना खुश हुआ कि उसने एक-एक कर सौ हाथी पहाड़ से गिरवा दिए, और उनकी चीख सुन ठहाके मारता रहा। कल्हण लिखते हैं कि उसके कई कुकर्म तो इतने घृणित थे कि वर्णित भी नहीं किए जा सकते।

लोग कहते हैं कि राजा मिहिरकुल इतना दुर्दांत बना, इसके पीछे कारण कुछ और था। एक भूरिश्रवा नामक नाग ने नगर तहस-नहस कर दिया था। उस वक्त खश जाति के लोगों ने नगर पर कब्जा कर लिया। उनका खात्मा करते-करते ही यह राजा नरसंहार में लुत्फ़ लेने लगा।

एक और कथा है कि चंद्रकुल्या नदी के प्रवाह को मोड़ने के लिए कार्य चल रहा था, लेकिन बीच में एक बड़ा पत्थर हिलाना असंभव सा था। राजा को स्वप्न आया कि उस पत्थर पर कोई यक्ष बैठा है। कोई पतिव्रता स्त्री अगर पत्थर को छूए तो पत्थर हिल जाएगा। कई स्त्रियों ने उसे छूआ, पर वो टस से मस न हुआ। आखिर एक कुम्हार की पत्नी चंद्रवती ने पत्थर छूआ तो वो चल पड़ा। पर कुम्हार की ऐसी जुर्रत देख कर राजा क्रोधित हो गया। उसने उसके परिवार को तो मार ही दिया, तीन करोड़ स्त्रियों को मरवा डाला।

हालांकि उस राजा ने कुछ पुण्य भी किए। श्रीनगर में मिहिरेश्वर की स्थापना की। होलाड क्षेत्र में मिहिरपुर शहर बसाया। गांधार के ब्राह्मणों को उसने एक हज़ार गांव बाँटे। यह दान उसने जयेश्वर तीर्थ में किया।

आखिर उस दुष्ट राजा की एक गंभीर बीमारी से मृत्यु हुई और धरती को चैन मिला। कल्हण के अनुसार उसने तमाम शस्त्रों को गरम कर उसके ऊपर अपना शरीर रख खुद को भस्म कर लिया। यह उसकी पाप-मुक्ति का मार्ग था।

राजा मिहिरकुल का पुत्र वक जब राजा बना तो प्रजा डर गई कि यह अपने पिता सा दुष्ट न हो। पर वो अपने पिता का ठीक विपरीत और धर्म-कर्म वाला राजा था। इस राजा ने वकश्वभ्र में वकेश्वर मंदिर बनाया। उसने वकवती नदी की धारा निकाल कर उसके किनारे लवणोत्स नगर बसाया।

राजा वक को एक योगिनी ने अपने रूप से मोह लिया, और तंत्र-मंत्र से उसे और उसके परिवार की बलि चढ़ा दी। इस बलि से उस योगिनी को आकाश-गमन की प्राप्ति हुई। खेरी मठ का शतकपालेश्वर मंदिर, मातृचक्र, और वो पत्थर जिस पर योगिनी के निशान हैं, वो इतिहास में इस घटना के साक्षी रहे।

हालांकि राजा वक का एक पुत्र क्षितिनन्द बच गया था, और वही अगला राजा बना।

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