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माँझल रात

मुझे इस पुस्तक की सबसे रोचक कहानी लगी- लालजी पेमजी। उसका एक हिस्सा अपने शब्दों में सुनाता हूँ- “जैसलमेर में एक सुविख्यात चोर हुए लालजी भाटी। जब वह वयोवृद्ध हुए, उन्हें यह चिंता सताने लगी कि चौर्यकला अब लुप्त हो रही है।
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Idea Parde Ramkumar Singh
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आइडिया से परदे तक

ऐसी किताबें पसंद आती है, जिसमें खामखा आडंबर नहीं होता और किसी प्राथमिक शिक्षक की तरह बेसिक से शुरू कर खेल-खेल में समझाया जाता है। लेखक समझाते हैं कि उपन्यास या अन्य गद्य के पाठक किताबों में रुचि वाले पढ़ाकू लोग हैं, जबकि फ़िल्म तो कोई भी देख लेता है।
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Jhansi Rani Mahashveta Devi
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झाँसी की रानी

वह नवयुवती, जिन्होंने कभी कोई किताब नहीं लिखी थी, बंगाल से कम निकली थी, वह बुंदेलखंड से मालवा की यात्रा पर निकल पड़ी। लक्ष्मीबाई को झाँसी में जाकर ढूँढा, लोगों से कहानियाँ सुनी, दस्तावेज़ों से मिलान किए, सब परख कर फिर से अपनी किताब शुरू की
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कश्मीरनामा

पाठकीय रुचि चरम पर होती है जब शेख़ अब्दुल्लाह और आजादी का समय आता है। यहीं से तमाम भ्रांतियों का निवारण भी होता है। और यहीं लेखकीय परीक्षा भी है कि निष्पक्ष रहें तो रहें कैसे?
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Kothagoi Prabhat Ranjan
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बलमा हमार फियेट कार ले के आया है

मुज़फ़्फ़रपुर का चतुर्भुजस्थान एक बदनाम रेड लाइट एरिया रहा है। लेकिन वह अपने-आप में एक सांस्कृतिक केंद्र भी रहा जहाँ शरतचंद्र चटर्जी तक के संबंध रहे। मुन्नी बदनाम हुई जैसे गीतों का मूल रहा। प्रभात रंजन अपने लच्छेदार गद्य में उस इतिहास को बतकही अंदाज़ में सुनाते हैं
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Kashi Ka Assi Kashinath Singh
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साली-बहनोई का रिश्ता अस्सी और काशी का

काशी का अस्सी कुछ लोग इसलिए उठाते हैं कि इसमें खूब छपी हुई गाली-गलौज पढ़ने को मिलेगी। ऐसे शब्द जो किताबों में कम दिखते हैं। मगर इस पुस्तक का दायरा कहीं अधिक वैचारिक, सामाजिक और राजनीतिक हो जाता है, जब हम इसे पढ़ कर खत्म करते हैं।
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नीम का पेड़

आधा गाँव’ देश के विभाजन और ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति के समय की कहानी है। कटरा बी आरज़ू देश में आपातकाल लगने के समय की कथा है। जबकि नीम का पेड़ इन दोनों काल-खंडों से गुजरते हुए समाजवाद के उदय की कथा है, जब एक दलित उठ कर संसद में पहुँच जाता है।
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जूठन

इसमें बदलते भारत को भी दिखाया गया है। जिस ठाकुर ने उन्हें बचपन में प्रताड़ित किया, उन्हीं का परिवार उनके साथ उठने-बैठने भी लगता है। समाज में जैसे आर्थिक या राजनैतिक परिस्थिति बदली, वर्ग-भेद घटता गया। कम से कम एक कछुए की तरह इस भेद-भाव ने अपनी गर्दन ज़रूर अंदर छुपा ली।
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चित्रलेखा

जो कथा का क्लाइमैक्स है, वह अकीरो कुरोसावा की फ़िल्म ‘राशोमोन’ की याद दिलाती है, जहाँ एक ही घटना को भिन्न-भिन्न पात्र अलग नज़रिए से देखते हैं। आप क्या देख रहे हैं, यह उस पर निर्भर है कि आप कहाँ खड़े हैं।
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वैशाली की नगरवधू

इस किताब को एक इतिहास मान लेना भी भूल होगी। इसमें तीन चौथाई से अधिक हिस्सा लेखक की कल्पना है। कुछ अंश तो आधुनिक विज्ञान के हिसाब से सीधे नकारे भी जा सकते हैं।
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