Open letter written by Mohandas K Gandhi. Translated by Praveen Jha.
असेंबली और काउंसिल के सम्माननीय सदस्यों के नाम खुली चिट्ठी
19 दिसंबर, 1894. डर्बन
महोदय,
अगर यह चिट्ठी बेनाम लिखना संभव होता, तो मैं प्रसन्न रहता। लेकिन जिस तरह के कथन मैं लिखना वाला हूँ, उसमें अपना नाम छुपाना, कायरता होगी। लेकिन मैं यह स्पष्ट कर दूँ कि यह चिट्ठी मैं स्वार्थ या अहंकार में नहीं लिख रहा। मेरा ध्येय मात्र अपने देश भारत की सेवा है, जहाँ संयोग से मेरा जन्म भी हुआ। मेरा ध्येय अफ़्रीका में रह रहे भारतीयों और यूरोपीय लोगों में बेहतर संबंध स्थापित करना है। यह शुभ कार्य तो आप जैसे लोग ही कर सकते हैं, जिनका इस उपनिवेश पर अधिकार है।
अगर यूरोपीय-भारतीय द्वंद्व चलता रहा, तो इसके जिम्मेदार आप ही होंगे। अगर वे कंधे से कंधे मिला कर मिल-जुल कर रहेंगे तो इसका श्रेय भी आप ही को जाएगा। जनता पूरी दुनिया में अपने नेतृत्व की ही तो सुनती है। आधा इंग्लैंड ग्लैडस्टोन की बात मानती है तो आधा सैलिसबरी की। पारनेल की बात पूरा आयरलैंड मानता है।
कहावत है – बुद्धिमान जो निर्णय लेते हैं, वही अल्पबुद्धि मानते हैं।
इसलिए, इस पत्र के लिए मैं कोई क्षमा नहीं मांगूँगा। क्योंकि यह पत्र तो इस देश के सबसे बुद्धिमान और शक्तिशाली लोगों के लिए है, जिन पर यहाँ का उत्तरदायित्व है।
इंग्लैंड में विरोध करने से यहाँ तनाव ही बढ़ेगा। इसलिए आवश्यक है कि यहाँ, अफ़्रीका में, आप सबके मध्य यह बात रखी जाए। यह कितनी बड़ी विडंबना है कि आपके काबिल गृह मंत्रालय होने के बावजूद यूरोपीय भारतीयों से बुरा बर्ताव कर रहे हैं। मैं अब मुद्दे पर आता हूँ।
यह बात छुपी नहीं कि भारतीयों की दुर्गति का कारण उनसे नस्लीय नफरत है। बात बस रंग की होती, तो और बात थी। भारतीय कितने भी साबुन मल लें, वह गोरे तो नहीं हो जाएँगे। लेकिन, यूरोपीय उनके आचरण-व्यवहार और संस्कृति से भी नफरत करते हैं। किंतु आपके लिए यह असंभव है कि यहाँ बसे चालीस हज़ार भारतीयों को निकाल बाहर करें। ऐसा कोई कानून नहीं कि इन्हें और इनके परिवार को देश से निकाला जा सके। यह आप पर निर्भर है कि आप अगर उस संस्कृति को निम्न समझते हैं, तो उसे उठाएँ; और अगर ऊँचा समझते हैं तो उसके बराबर आएँ। मन में नफ़रत पाल कर आखिर क्या मिलेगा? आप इस नफ़रत को बढ़ाने के प्रयत्न करते रहे हैं, जबकि आप चाहें तो यह नफरत घट सकती है।
मैं चार सीधे प्रश्न रखता हूँ-
1. क्या आप चाहते हैं कि भारतीय यहाँ के नागरिक बनें?
2. अगर नागरिक नहीं, तो वे आखिर क्या हैं?
3. क्या वर्तमान बर्ताव ब्रिटिश कानून और ईसाई धर्म के मुताबिक है?
4. अगर भारतीय यहाँ से चले गए तो क्या आपका उपनिवेश आर्थिक रूप से टिक पाएगा?
पहले प्रश्न के संबंध में मैं यह कहना चाहता हूँ कि यहाँ अधिकतर भारतीय गिरमिटिया मजदूर हैं। यह सिद्ध हो चुका है कि उनकी इस उपनिवेश में जरूरत थी। भले ही वह खेत में काम करें, साहेबों के निजी बगीचे सँवारे, रसोई सँभाले, या सब्जी बेचें। यहाँ के बाशिंदे भी न उनकी तरह कुशल हैं, न उतने कर्मठ। आज दक्षिण अफ़्रीका को सँवारने में इन भारतीयों का ही खून-पसीना लगा है। आप बिना भारतीयों के गन्ने के बागानों की कल्पना कर के देखिए। माना कि यहाँ की जमीन उर्वरा है, लेकिन इस जमीन को पहचान तो भारतीयों ने ही दी। उससे पहले यह जंगल था। अब खदान आ गए, तो उनमें भी भारतीय ही खुद को झोंक रहे हैं।
भारतीयों को इसके बदले में आपने क्या दिया? आपने दिया एक नाम- कुली! क्या यही आपका संस्कार है?
दूसरी तरह के भारतीय हैं – व्यापारी। आप उन्हें ‘अरबी’ कह कर पुकारते हैं और वह खुश हो जाते हैं। महोदय! वे भारतीय हैं, अरबी नहीं। उन्हें उसी संबोधन से पुकारिए।
आप उन पर इल्जाम लगाते हैं कि वह यूरोपीय व्यापारियों से प्रतियोगिता कर रहे हैं, उनके व्यवसाय में अड़चन डाल रहे हैं। आप एक बार दीवालिएपन की पड़ताल करें कि कौन किस हालत में है।
मान लिया कि प्रतियोगिता कर ही रहे हैं, तो क्या बुरा है? व्यापारी और क्या करेगा? यह तो उसकी पहचान ही है कि धंधे में दूसरे व्यापारी से स्वस्थ प्रतियोगिता करे। यूरोपीय क्यों हार रहे हैं, इसकी जड़ में जाइए। भारतीय व्यापारी सादा जीवन जीते हैं, शराब नहीं पीते। वह रईसी नहीं करते, पसीना बहाते हैं। वे सिगरेट नहीं पीते, जुआ नहीं खेलते, आठ घंटे कड़ी मेहनत करते हैं। आप कहें तो वे सभी पश्चिमी बुरी आदतें डाल लें, और आपके उपनिवेश का भट्ठा बैठ जाए।
आपका यह भी आरोप है कि भारतीय स्वच्छ नहीं रहते। मुझे यह कहते हुए गुरेज नहीं कि यह बात कुछ हद तक सच हो भी सकती है। लेकिन, यह उन्हें उपनिवेश से निकालने के लिए सही कारण नहीं। स्वच्छता एक सतत प्रक्रिया है। आप स्वच्छता के विधान बनाइए जो सभी पालन करें।
महोदय! एक गिरमिटिया मजदूर, जो खदानों और खेतों में पसीना बहाता है, आखिर कैसे स्वच्छ रहे? उसके पास न समय है, न सुविधा। जहाँ तक व्यापारियों की बात है, मुझे यह बात मालूम है कि वे नियमित धर्मनिष्ठता से स्नान करते हैं। उनमें कई मुसलमान हैं जो कम से कम चार बार नमाज़ पढ़ते हैं।
किसी भी कारण से वे देश पर राजनैतिक खतरा नहीं उत्पन्न करते। कुछ उत्पाती अगर भारत से आए भी हैं तो महोदय! उन्हें आपके ही एजेंट तो कलकत्ता से जहाज पर बिठा कर लाए हैं। उनके पुलिस रिकॉर्ड जाँच लेने चाहिए थे। आप नटाल अल्मानाक पलट कर देखें।
वहाँ लिखा है, “हिंदुस्तानी कानून को मानने वाली कौम है।”
इन तमाम दलीलों से यह स्पष्ट है कि भारतीयों में कोई ऐसा अवगुण नहीं, जिनकी वजह से उन्हें यह देश छोड़ना पड़े। बल्कि उनकी आपको जरूरत है।
मेरी गुजारिश है कि आप उन्हें यूरोपीय लोगों की तरह शिक्षा और सम्मान दें। निश्चित ही भारतीय इस देश के सबसे सकारात्मक और जुझारू नागरिक कहलाएँगे। यह बताना बहुत आवश्यक हैं क्योंकि भारतीयों के साथ बुरे बर्ताव की वजह भारत के विषय में आपका अज्ञान है।
मैं यह चिट्ठी पूरे होश में लिख रहा हूँ, भले ही आपको यह बुरा लगे। आप भारत के विषय में बहुत कुछ जानते होंगे, लेकिन सब कुछ नहीं जानते। यहाँ अफ़्रीका आए चंद भारतीयों को देख कर आप भारत को नहीं समझ सकते। लेकिन इन्हें समझने के लिए आपको भारत को समझना होगा।
आपको नस्ल का अहम् है तो पहले यह स्पष्ट कर दूँ कि आप यूरोपीय और हम भारतीय एक ही नस्ल हैं- इंडो-आर्यन। आपको मुझ पर विश्वास न होगा, इसलिए सर हंटर की किताब ‘द इंडियन एम्पायर’ की कुछ पंक्तियाँ लिख रहा हूँ,
“ब्राह्मण, राजपूत और अंग्रेज़ एक ही नस्ल हैं, जिन्हें आर्य कह सकते हैं। इनका मूल स्थान केंद्रीय एशिया था। यहीं से पूर्व और पश्चिम की ओर शाखाएँ निकली। पश्चिमी शाखा का एक हिस्सा फ़ारस और ग्रीस गया, दूसरा हिस्सा इटली। ग्रीक, रोमन, अंग्रेज़ और हिन्दू कभी एक ही भाषा बोलते थे, एक ही देवता पूजते थे। ये अलग बाद में हुए, पहले ये एक थे।”
इतने बड़े ब्रिटिश इतिहासकार की पंक्तियों को ग़ौर से पढ़िए। मैं इतिहासकार नहीं, इसलिए इतिहास जानने के लिए किताबें पढ़ता हूँ। जिस विषय में अज्ञान हो, उसमें अपने विचार बिना जाने-पढ़े नहीं बना लेता। आप भी न बनाएँ।
आप भारतीयों को अफ़्रीकी जंगलों में रहने वाले आदिवासियों से कुछ ही बेहतर मानते हैं। जबकि भारतीय आपकी एंग्लो-सैक्सन नस्ल से संस्कृति में रत्ती भर कम नहीं। चाहे बुद्धि की बात हो, आर्थिक समझ की बात हो, या राजनीति की।
मैं अपनी बात को सिद्ध करने के लिए मैक्समूलर, शॉपेनहॉर, सर मेन, सर विलियम, सर कार्नेगी, बिशप हेबर, पिनकॉट, और जैकॉलियट की पंक्तियाँ लगा रहा हूँ। ये सभी यूरोपीय बुद्धिजीवी भारत को ऊँचे दर्जे की सभ्यता कह चुके हैं। महोदय! आप क्यों नहीं मानते?
यह भी न भूलें कि आपके इतिहासकार ही बुद्ध को विश्व का सबसे पवित्र मानव लिखते हैं, और यीशु मसीह के समकक्ष कहते हैं। आपके भारतीय राज ने यह स्वीकारा है कि वह अकबर की राजस्व नीतियों का पालन कर रहे हैं। यानी ब्रिटिश प्रशासन अकबर से सीख रहा है। भारत में जन्मे क्रिस्टोदस पॉल को पूरे ब्रिटिश राज का सबसे काबिल पत्रकार कहा गया। मोहम्मद और मुथुकृष्णन नायक को सर्वश्रेष्ठ न्यायाधीशों का खिताब मिला। बदरुद्दीन, बनर्जी और मेहता जैसे लोगों ने तो ब्रिटिश संसद में अपने भाषण का लोहा मनवाया।
तो ऐसा है भारत। आपको अब यह अतिशयोक्ति लग रही होगी, पर यही विश्वस्त तस्वीर है। भारत और यूरोप को मिल कर काम करना है, शासक-शोषित जैसे नहीं। भारतीयों को असभ्य कहना बंद करिए। भारत हर पहलू से एक विकसित सभ्यता है जिनसे आप भी कुछ सीख सकते हैं।
आपके अखबारों ने भारतीयों को क्या-क्या कहा, ग़ौर करिए। ‘रीयल कैन्कर’, ‘सेमी बारबरस’, ‘रेचेड’, ‘पैरासाइट’, ‘कर्स्ड हिन्दू’, ‘रामासामी’, ‘कुली’।
ट्राम में भारतीय नहीं बैठ सकते। रेल में थर्ड क्लास में ही बैठ सकते हैं। होटल वालों ने भारतीयों के लिए दरवाजा बंद रखा है। यहाँ तक कि सार्वजनिक स्नानागार में नहा भी नहीं सकते। अगर मैं गिरमिटिया मजदूरों पर हो रहे अत्याचार का दस प्रतिशत भी लिख सकूँ, तो आपके मानवाधिकार हनन की पोल खुल जाएगी।
महोदय! मैं फिर से कहूँगा कि न आप लोग अपने सरकार के संविधान से चल रहे हैं, न अपने धर्म से।
– मोहनदास करमचंद गांधी
Author Praveen Jha translates one of the First Open Letters to Britishers written by Mohandas K Gandhi.
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