दुनिया में क्या चल रहा है? यह सवाल बड़ा ही जेनेरिक लगता है, क्योंकि दुनिया में कोई एक चीज तो चल नहीं रही। फिर इसका जवाब क्या हो?
सवाल घुमा कर पूछा जाए- आज दुनिया की मुद्रा क्या है? सोना, काग़ज का कोई नोट जिसका मूल्य डॉलर के सापेक्ष है, या भविष्य की कोई क्रिप्टो मुद्रा? वह कौन सी एक धुरी है, जो दुनिया का बाज़ार नियंत्रित कर रही है? क्या वह मुद्रा एनर्जी यानी ऊर्जा हो सकती है? बिना किसी ऊर्जा-स्रोत के यह आधुनिक दुनिया नहीं चल सकती। बिना आग के तो खैर आदम दुनिया भी नहीं चल पाती।
इस किताब की शुरुआत एक घटना से होती है, जब अमरीका में एक जियोलॉजी ग्रैजुएट व्यवसायी ईंधन तलाशने निकलते हैं। वह पत्थर में एक कुआँ खोदते हैं, कि कहीं गैस निकल जाए। वह इसके अंदर पानी डालते हैं, ताकि दरारें पड़ जाएँ। भारत से ग्वार मंगा कर उसके गोंद से पानी गाढ़ा करते हैं, और एक दिन- बूम! अमरीका को प्राकृतिक गैस का ख़ज़ाना मिल जाता है।
यह साधारण सी घटना विश्व का मानचित्र ही बदल देती है। अमरीका जो कभी तेल और गैस आयात करने लगा था, वह मात्र एक दशक के अंदर सबसे बड़ा उत्पादक बन जाता है। न सिर्फ़ वहाँ ईंधन सबसे सस्ता हो जाता है, बल्कि वह द्रव रूप में दुनिया को गैस बेचने भी लगता है। यह कोई बहुत पुरानी बात नहीं, बस इसी दशक की बात है।
ज़ाहिर है खाड़ी देशों का एकल प्रभुत्व घटने लगता है, हालाँकि खत्म नहीं होता। इस मध्य रूस न सिर्फ़ यूरोप, बल्कि चीन के लिए गैस की पाइपलाइन बना डालता है। इस पूरी प्रक्रिया में रूस के राष्ट्रपति पूतिन के मेयर ऑफिस में रहे दो पुराने सहकर्मियों की कंपनियाँ बड़ी भूमिका निभाती है। वहीं इस पाइपलाइन के एक चेयरमैन जर्मनी के भूतपूर्व चांसलर होते हैं!
मगर रूस-यूरोप के मध्य तो सोवियत काल से ही पाइपलाइन थी, फिर यह नयी पहल क्यों?
वे पुरानी पाइपलाइन यूक्रेन से होकर गुजरती थी (अब भी गुजरती है)। रूस का आरोप था कि यूक्रेन पाइपलाइन से गैस ‘चुरा’ लेता है! एक पहलू यह भी कि यूक्रेन के ईंधन कंपनी के एक बोर्ड मेंबर का नाम हंटर बाइडेन है, जिनके पिता अमरीकी राष्ट्रपति चुनाव में खड़े थे! (अब बन चुके)
रूस-अमरीका के मध्य यह गैस बेचने की रस्साकशी शुरू तो हो गयी, मगर गैस खरीदेगा कौन?
दो बड़ी अर्थव्यवस्थाएँ चीन और भारत की ज़रूरतें चक्रवृद्धि से बढ़ती चली जाती है। जहाँ चीन दुनिया की सबसे बड़ी फैक्ट्री बन चुकी है, जो सुई से लेकर जहाजी इंजन तक बना रही है; वहीं भारत की इकॉनॉमी भी प्रगति-पथ पर है। दोनों के लिए आज भी कोयला ही सबसे महत्वपूर्ण ईंधन है। अधिक से अधिक वे तेल खरीद लेंगे, मगर इन्हें गैस किस तरकीब से बेचा जाए?
फिर आता है पर्यावरण-विमर्श। कोयला तो प्रदूषण बहुत फैलाता है, दुनिया बर्बादी के कगार पर जा रही है। तेल का भी वही हाल है। परमाणु ऊर्जा उत्पादन में दो बड़ी दुर्घटनाएँ हो चुकी है। सबसे कम प्रदूषक तो ले-दे कर गैस ही है। अब वे रूस से खरीदें, या अमरीका से।
जब पत्थर ड्रिल कर ही गैस निकालना है तो चीन या भारत खुद क्यों नहीं निकाल लेते? वे भी अमरीका की तरह ऊर्जा-स्वतंत्रता क्यों नहीं हासिल कर लेते? प्रयास कर रहे है। चीन तो पूरी दुनिया का सबसे बड़ा और सस्ता सोलर बैटरी सप्लायर बन गया, मगर भारत अभी इस नवीन ऊर्जा चक्र में इतना ऊपर नहीं पहुँचा कि मानचित्र में जगह मिले। जो ग्वार पहले अमरीका जाती थी, वह भी कम हो गयी, क्योंकि उन्हें बेहतर विकल्प मिल गया। ऊर्जा के मामले में भारत अभी मुख्यतः आयातक और कंज्यूमर ही है।
यह किताब जितनी नीरस मुद्दे पर लगती है, उससे कहीं अधिक थ्रिलर है। आप नयी दुनिया के नये समीकरण से रू-ब-रू होंगे जो सतह से कहीं नीचे पक रहा है। लगेगा कि ये युद्ध, ये महादेशों की आपसी कूटनीति, ‘पृथ्वी’ बचाने के संकल्प, और आधुनिक विज्ञान से पृथ्वी का दोहन सब जुड़े हुए हैं। अगर हम कहीं और उलझे हैं, तो मानचित्र में ठौर तलाशते रह जाएँगे। लेकिन, अगर पश्चिमी तट, असम या कच्छ में ख़ज़ाने ढूँढे जाते रहें, वैज्ञानिक चेतना लाएँ, तो पासा पलटते देर नहीं लगेगी।
आज की दुनिया को समझने पर एक रोचक किताब। नाम है- The New Map
Author Praveen Jha discusses the geo-politics of energy from the book by none other than Daniel Yergin himself.
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