इस पुस्तक का एक एजेंडा है, और ‘एजेंडा’ का प्रयोग यहाँ सकारात्मक रूप में है। जैसे मीटिंग का एजेंडा। आप एक ख़ास प्रश्न उठाते हैं, और उस प्रश्न के हलों को लिखते हैं। जैसे इस पुस्तक से पूर्व आपने विद्यार्थियों की एक स्टडी सर्कल रखी, उसमें कुछ इस तरह के प्रश्न रखे–
१. क्या भारत का राष्ट्रगान ‘वंदे मातरम’ उचित था या ‘जन गण मन’? क्या जन गण मन में प्रयुक्त भारत भाग्य विधाता ब्रिटिशों को संबोधित है?
२. क्या भारत की राष्ट्रभाषा हिंदी रखे जाने पर कोई विमर्श हुआ?
३. क्या देश का झंडा बदला गया? अगर हाँ तो क्यों?
४. क्या पटेल प्रधानमंत्री चुने जाने थे, और नेहरु चुन लिए गए? ऐसा क्यों किया गया?
५. क्या कश्मीर नेहरु की असफलता थी? वह नहीं चाहते थे कि भारत में रहे? क्या पटेल ऐसा चाहते थे? क्या संयुक्त राष्ट्र में ले जाने या जनमत संग्रह की बातें नेहरु ने की थी?
६. क्या सुभाष चंद्र बोस और नेहरु के मध्य तकरार थी? क्या पटेल और नेहरु के मध्य विवाद थे?
७. क्या कांग्रेस जिसे गांधी भंग करना चाहते थे, उसे उनकी मृत्यु के बाद जारी रखना गांधी की अवहेलना थी? क्या नेहरू देश को गांधी से अलग मार्ग पर जान–बूझ कर ले गए? क्या उनकी ग्राम स्वराज में रुचि नहीं थी?
८. क्या नेहरु अपने विपक्षियों को दबा कर चुनाव जीतते रहे?
९. क्या रूस या चीन से संबंध या गुटनिरपेक्ष रहना ग़लत निर्णय था? नेहरु ने ऐसा क्यों किया?
इसी प्रकार के अन्य प्रश्न। मैंने विद्यार्थियों के स्टडी–सर्कल की बात इसलिए की, क्योंकि यह सोशल मीडिया पर मुमकिन नहीं। चूँकि ये प्रश्न देश और इतिहास से जुड़े हैं, इन्हें हल्के में नहीं लिया जाना चाहिए। परीक्षाओं के हिसाब से भी और सम्यक समझ के लिए भी।
इस पुस्तक की ख़ासियत यह लगी कि लेखक ने स्वयं अपेक्षाकृत कम लिखा है। नेहरु की वक़ालत में थोथे तर्क कम दिए हैं, बल्कि सीधे उनकी चिट्ठियों और भाषण के अंश ही हू–ब–हू रख दिए हैं कि मीलार्ड! आप देख लें। फैसला कर लें। इस हिसाब से भी यह महत्वपूर्ण संकलन बन गया है, क्योंकि वे पूरे–पूरे भाषण अलग से पढ़ना दूहर है। यहाँ हर प्रश्न से संबंधित अंश रख दिए गए हैं, जैसे कश्मीर–विषयक एक अध्याय में, राष्ट्रभाषा संबंधित एक अध्याय में, राष्ट्रगान और झंडा संबंधित अलग अध्यायों में, अलग–अलग नेताओं से संवाद एक अध्याय में। उनके बीच लेखक की कमेंट्री चलती है।
मुझे एक स्थान पर कुछ आपत्ति या शंका है, जिस पर मैं और भी तथ्य देखना चाहूँगा। लेखक ने एक अध्याय में लिखा है कि भारत का विभाजन और ख़ास कर कश्मीर समस्या अमरीका–ब्रिटेन की संयुक्त चाल थी। यह एक जियोपॉलिटिकल पैंतरा था। इसके पीछे सोवियत संघ से उनकी टक्कर थी। इस पर हम सबने शायद कुछ पढ़ा हो, मगर यह मुझे एक बाहरी और संयोग–जन्य कारक लगता है। स्थानीय कारक ही मुख्य लगते हैं। इस पर भी विद्यार्थी विमर्श कर सकते हैं।
एक आलोचना यह रहेगी कि जब आप किसी मरीज को कोई दवा दें, तो यह न कहें कि इस दवा में जादू है। इससे बेहतर दवा नहीं। यह अचूक है। बल्कि यह कहें कि इस दवा की यह हानियाँ हो सकती है, ये कमियाँ है, यह सौ प्रतिशत काम नहीं करती। ऐसे में मरीज को अधिक विश्वास होता है। लेखक कुछ स्थानों पर नेहरु को महामानव सिद्ध करने से बच सकते थे। बात सपाट रखते, तो नेहरु से असहमत या राजनैतिक विरोधी भी सहजता से स्वीकारते कि बात तो ठीक कह रहा है। जो कि वह बहुधा कह रहे हैं।
एक व्यवस्थित और रुचिकर दस्तावेज। संवाद प्रकाशन से छपी है। Storytel हिंदी पर भी उपलब्ध है।
[यह पुस्तक स्थानीय दुकानों से मंगवा कर, Dinkar Pustakalay , आदि पर मिल जाएगी ]