आज उस किताब की बात, जो लिखी देवनागरी लिपि में ही है, मगर मुझे पूरी समझ नहीं आयी। यह मारवाड़ी भाषा की किताब है। पतली किताब थी, तो जैसे-तैसे बाँच गया। मारवाड़ी भाषा का कहन अलग है, शब्दों में हिंदी से भेद है, मगर है तो भारतीय भाषा ही। मुझे चूँकि लोकगीतों और कथाओं में थोड़ी-बहुत रुचि है, तो इनसे पूरी तरह अनजान नहीं था। जैसे इस पुस्तक में वर्णित ढोला-मारू या पाबूजी की कथा पहले पढ़ रखी थी। बाकी, एक-एक शब्द पर जोर न देकर पूरे वाक्य का अर्थ समझने की चेष्टा की।
जैसे हिंदी में लिखते हैं – ‘काँप गयी’ तो इस पुस्तक में लिखा है- काँपगी, बैठगी। जैसे यह वाक्य लें-
‘जीवें ते है बेटी, पण ठंड सू अकरग्यो’
क्या यह वाक्य हिंदीभाषी नहीं समझ पाएँगे? मुझे लगता है पढ़ते-पढ़ते आदत पड़ जाएगी। पुस्तक के अंत में मारवाड़ी शब्दों के हिंदी अर्थ भी दे रखे हैं।
पुस्तक की भूमिका के एक वाक्य का मेरी समझ से अनुवाद है-
‘आज की हिंदी में बंगाली और अंग्रेज़ी साहित्य की छाप अधिक मिलती है। बंगाली साहित्य पर अंग्रेज़ी का प्रभाव पहले से है। राजस्थानी साहित्य इस मामले में मौलिक है कि इस पर इन भाषाओं का प्रभाव कम पड़ा’
बंगाली को अगर किनारे भी रख दें, तो हिंदी पर भारतीय भाषाओं का प्रभाव सबसे पहले पड़ना चाहिए। अंग्रेज़ी का बाद में। तुलसीदास, विद्यापति, जायसी, कुंभनदास आदि का प्रभाव तो है ही। अब घटे क्यों? ये भाषाएँ मर तो नहीं गयी?
मुझे इस पुस्तक की सबसे रोचक कहानी लगी- लालजी पेमजी। उसका एक हिस्सा अपने शब्दों में सुनाता हूँ-
‘जैसलमेर में एक सुविख्यात चोर हुए लालजी भाटी। जब वह वयोवृद्ध हुए, उन्हें यह चिंता सताने लगी कि चौर्यकला अब लुप्त हो रही है। आज के चोरों में चोरी और अपराध तो बढ़ा है, मगर वह कला, वह हाथ की सफाई लुप्त हो रही है। वह चाहते हैं कि अपनी कला किसी गुणी चोर को हस्तांतरित करें।
उन्हें पता लगता है कि पेमजी शेखावत नामक एक सुपात्र युवा चोर हैं। वह उनकी एक परीक्षा लेते हैं। राजस्थान में एक आक्रामक चिड़िया है- कुड़दाँतली। वह कहते हैं कि इस चिड़िया के अंडे चुरा लाओ तो बात बने।
पेमजी पूरे कौशल से चिड़िया के अंडे चुराने बढ़ते हैं। चिड़िया उनको चोंच मार-मार घायल कर देती है। मगर वह चार अंडे चुराने में सक्षम होते हैं। वह खुशी-खुशी नीचे आते हैं।
लालजी पूछते हैं- अंडे लाए?
वह कहते हैं- हाँ! ये रहे!
मगर जेब से अंडे गायब!
लालजी मुस्कुराते हुए अपनी जेब से चार अंडे निकाल कर कहते हैं कि यह तो तुम्हारी जेब से मैंने चुरा लिए थे।’
मैं यह नहीं कह सकता कि आप इस पुस्तक को पढ़ पाएँगे। किंतु इस चर्चा का उद्देश्य यह है कि कोशिश तो करनी ही चाहिए। मारवाड़ी, मैथिली, भोजपुरी, अवधी, ब्रजभाषा, गुजराती, मराठी आदि को पढ़ने में एक हिन्दीभाषी को दिक्कत आ रही है, यानी हमारी भाषा और समझ सिकुड़ती जा रही है।
हम कुड़दाँतली के अंडे चुरा कर ले आते हैं, मगर अपने ही अंडे नहीं संभाल पाते।
Author Praveen shares his experience about book Manjhal Raat by Rani Lakshmi Kumari Chundawat