कोठागोई- चतुर्भुजस्थान के क़िस्से वाणी प्रकाशन से छपी प्रभात रंजन की लिखी पुस्तक है। उसे पढ़ कर प्रवीण झा की प्रतिक्रिया
डैनियल वालेस की एक किताब है जिसपे एक मूवी भी बनी है ‘बिग फिश’। उसमें एक कैंसर पीड़ीत पिता बचपन से अपने बेटे को मसालेदार अविश्वनीय कथाएँ सुना रहा होता है, जिससे बेटा ऊब चुका होता है। लेकिन वो सारी तिलिस्मी कथाएँ कमोबेश आखिर सच निकलती है। मुझ जैसे अपेक्षाकृत युवा और साहित्य में अपरिपक्व व्यक्ति के लिये प्रभात रंजन की कथाएँ कुछ इसी रूप में है।
रेड लाइट एरिया का इतिहास किस शालीनता और सम्मोहन से कह गए, अश्लीलता की एक झलक तक नहीं। अश्लीलता तो छोड़िये, भक्ति-भावना आ जाएगी आपके मन में। समाज के आईने को मरोड़ कर ऐसे रख दिया कि अपना ही चेहरा अब विकृत नजर आ जाएगा। श्याम बेनेगल जी तो अब नहीं बनाते, गलती से अनुराग कश्यप या विशाल भारद्वाज जी के हाथ लग गई, ये कथाएँ एक ‘ब्लॉकबस्टर’ का रूप लेगी।
शब्द-संरचना भी लाजवाब। आंचलिकता आई भी और नहीं भी। ऊर्दू, हिंदी, बज्जिका, मैथिली, भोजपुरी, अपभ्रंस अंग्रेजी सब ने ‘गेस्ट-इंट्री’ मारी, पर हिंदी ज्यों-की-त्यों। भाषा का ऐसा अनुशासन अविश्वसनीय। अक्सर आंचलिक पृष्टभूमि वाले लेखक हिंदी को सुविधानुसार या संदर्भ में मरोड़ देते हैं। ऐसे में अन्य प्रांत वालों को हवा ही नही लगती। लेकिन ये किताब तो कोई भी हिंदी पाठक एक झटके में पढ़ जाए, चाहे उसका मुजफ्फरपुर या पूर्वांचल से कोई लेना-देना न हो।
मैनें फिल्म बनाने की बात कही, प्रभात दशकों पूर्व की पन्ना बाई को लैटिन सुंदरी शकीरा से तौलते हैं। मुझे कुछ ‘तीसरी कसम’ की वहीदा रहमान याद आ जाती है। मैं मिथिला से हूँ, तो इच्छा है बाबू लक्ष्मेश्वर सिंह का भी एक लीड रोल हो।मसला गायकी का है तो बड़ी पन्ना के शास्त्रीय संगीत से छोटी पन्ना के तड़क-भड़क में मुझे सचिन देव बर्मन से आर.डी.बर्मन का ‘ट्रांजीशन’ दिखता है। सामंतवादी मूँछ पे ताव देते जमींदार, फियेट से उतरते धन्ना सेठ, तंबूओं को छेद करती हवाई फायरिंग, और अदाओं से भरपूर नृत्य। प्रभात हैं तो विशिष्ट साहित्यकार, पर इनकी दरकार बंबई वालों को भी खूब है।
गानों के बोल भी तो एक-से-एक। ‘बलमा हमार फियेट कार लेके आया है’। लेकिन लाख रिझाने पर भी न इनकी नायिका चंदाजी बंबई गई, और न शायद प्रभात जाएँ। उन्हें तलब है, तो खुदहि आवें। चंदा जी की ‘मुन्नी बदनाम हुई’ भी तो चतुर्भुजस्थान से उड़ कर पहुँच ही गई।
शरतचंद्र, के.एल.सहगल, राजकपूर खानदान, चंद्रशेखर तो क्या नेहरू जी तक के तार जोड़े हैं चतुर्भुजस्थान से प्रभात ने। गौहर की पटियाला घराने से लखनऊ, बनारस और मुज़फ़्फ़रपुर तक की दौर आपको अलाउद्दीन खान के बंगाल से मैहर तक के सफर की कुछ याद तो ज़रूर दिलायेगी। वाकई इतिहास का जिम्मा क़िस्सागो को ही देना चाहिए, पर शायद हर कोई प्रभात रंजन जैसा न न्याय कर पाए, न साहस।
Author Praveen Jha shares his experience about book Kothagoi by Prabhat Ranjan
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