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“हम दिल्ली और लखनऊ में बैठे लोगों को हमारे किस्मत का फैसला नहीं करने देंगे। हम खुद अपना फैसला करेंगे।”
– महेंद्र सिंह टिकैत (शामली, मुज़फ़्फ़रनगर, अप्रिल 1987)
उस समय उत्तर प्रदेश में वीर बहादुर सिंह की सरकार थी, जिनसे जनता को बड़ी उम्मीदें थी। उम्मीद की ठोस वजह थी। उन्होंने श्रमिकों और भारतीय अर्थव्यवस्था पर किताबें लिखी थी, और श्रम-क़ानून के पक्षधर रहे थे। लेकिन, एक अर्थशास्त्री की मार भी तो किसानों पर ही अक्सर पड़ती है। उन्होंने उत्तर प्रदेश के सरकारी ख़ज़ाने को बढ़ाने के लिए बिजली दर 22.50 रुपए प्रति एचपी यूनिट मासिक से बढ़ा कर 30 रुपए कर दी।
किसानों के लिए यह अचानक पड़ा बोझ था। पहले किसान ऐसे मौकों पर थोड़ी-बहुत आवाज़ उठा कर चुप हो जाते थे। इस बार महेंद्र सिंह टिकैत ने बीड़ा उठाया। 14 जनवरी को सिसौली गाँव में एक पंचायत बैठी, जहाँ यह फैसला लिया गया कि सभी किसान शामली में धरना देंगे। शामली के पास कर्मु-खेड़ा में एक बिजली का छोटा पावर प्लांट (सब स्टेशन) था, जो लगभग ठप्प पड़ा था। 27 जनवरी को टिकैत और उनके गाँव के किसान नए-नवेले यूनियन का हरा झंडा लहराते हुए शामली पहुँचे। पश्चिम उत्तर प्रदेश के एक साधारण सब-स्टेशन पर हो रहे इस धरने को कोई ख़ास भाव नहीं मिला।
टिकैत जानते थे कि वह चौधरी चरण सिंह नहीं हैं। न ही उनकी जगह ले सकते हैं। चरण सिंह काफ़ी पढ़े-लिखे थे। पुराने कांग्रेसी रहे थे, आज़ादी की लड़ाई में शामिल रहे। कृषि मंत्री से लेकर प्रधानमंत्री तक बने। उनका क्षेत्र सिर्फ़ उत्तर प्रदेश नहीं, बल्कि पूरा भारत था। उनके सामने टिकैत का क़द बहुत छोटा था। वह ठहरे गाँव के किसान। ऐसा भी नहीं था कि वह कोई बड़े ज़मींदार था। सभी भाइयों को मिला कर उनकी कुछ 15 एकड़ ज़मीन थी। उस समय तो वह खुद ही बैल लेकर खेत भी जोतते थे। बालियान खाप के चौधरी तो वह वंशगत परम्परा से बने थे।
महेंद्र सिंह टिकैत राजनीति से तो दूर रहे ही थे, अख़बार-टेलिविज़न में भी उनकी रुचि नहीं थी। फ़िल्मों के नाम पर उन्हें सिर्फ़ ‘शोले’ फ़िल्म पसंद थी, जो उन्होंने गाँव में देखा था। वह स्वयं कंधे पर बंदूक़ लटका कर गाँव में घूमते भी थे। उनके घर में सुभाष चंद्र बोस की तस्वीर लगी थी, जिन्हें वह आदर्श मानते थे। इसके अलावा स्वामी विवेकानंद, चंद्रशेखर आज़ाद, गुरु नानक और राधाकृष्ण सम्प्रदाय के गुरु की तस्वीरें थी।
यह सही था कि वह चौधरी चरण सिंह नहीं थे, लेकिन यही उनकी ताक़त भी थी। किसानों को उनमें किसी बड़े नेता का नहीं, बल्कि उनका अपना अक्स नज़र आता। टिकैत की भाषा गँवई थी, वह शुद्ध हिंदी नहीं बोल पाते। उनकी वेश-भूषा गँवई थी। उनका पूरा जीवन ही एक किसान का था। वह कभी खेत में, कभी घर की दालान पर मित्रों से बतियाते तो कभी किसी गाँव के विवाह आदि अवसर पर दिखाई देते। उनका लखनऊ या दिल्ली से कोई ताल्लुक़ नहीं था।
टिकैत ने गाँव वालों से कहा, “पहली तारीख़ को अपने पंचायत के सभी किसान शामली चलेंगे।”
1 मार्च को किसानों ने अपनी लाठी, हुक्का और बंदूक़ें लेकर शामली की ओर बढ़ना शुरू किया। टिकैत उनकी अगुआई कर रहे थे। पिछले धरना के बाद पुलिस भी सचेत थी। उन्होंने इस बार गाँव वालों को रोक दिया। किसान आगे बढ़ते गए, तो गोलियाँ चलायी गयी। तीन किसानों की मृत्यु हो गयी। बदले में किसानों ने भी देशी बम फेंका। सब-स्टेशन में आग लगा दी गयी।
महेंद्र सिंह टिकैत ने उस समय किसानों को लेकर वापस गाँव लौटना ठीक समझा। किसान आक्रोशित थे, और पूरे सिसौली गाँव में लाठी-भाले लेकर तैयार थे। पुलिस ने जब आकर गाँव को घेरा तो गाँव-वालों ने भी रण-सिंह बजाए। यह रण-सिंह पश्चिम उत्तर प्रदेश का एक ट्रेड-मार्क है, जिसकी आवाज़ सुनते ही गाँव वाले जोश में आ जाते हैं। पुलिस गाँव के अंदर घुस ही नहीं सकी।
इस हिंसक शुरुआत की मीडिया में निंदा ही हुई, लेकिन किसान अब एक-जुट हो कर प्रशासन से लड़ने के लिए कमर कस चुके थे। तीन किसानों की मृत्यु ने उन्हें जागृत कर दिया था। उस समय मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह ने पहली बार इन किसानों की तरफ़ ध्यान दिया और मिलने की इच्छा जतायी, लेकिन उन्हें मना कर दिया गया।
एक महीने बाद पूरे तैयारी के साथ किसान फिर से शामली पहुँचे। इस समय तक उस इलाक़े के बाशिंदों को भी जानकारी हो गयी थे, और वे किसानों से जुड़ने लगे थे। ट्रैक्टर पर हरे झंडे लिए सैकड़ों किसान अपने-अपने गाँवों से शामली पहुँच रहे थे। सब ने हरी पगड़ी भी डाल रखी थी, जो आने वाले आंदोलनों का एक ड्रेस-कोड ही बन गया। यातायात बाधित हो चुका था, और हर सड़क पर किसान ही किसान नज़र आ रहे थे। स्वयं टिकैत 17 किलोमीटर पैदल चलते हुए शामली पहुँचे थे। वह जब पहुँचे तो किसानों ने कर्मु-खेड़ा पावर प्लांट घेर रखा था। उनके आते ही ‘हर हर महादेव’ और ‘जय किसान’ जैसे उद्घोष शुरू हो गए।
टिकैत ने कहा, “अब मेरी बात सुनो! ताली मत पीटो, बात सुनो।”
यह टिकैत का तकिया कलाम था। बस इतना कहना कि उनकी बात सुनी जानी चाहिए। वह एक खाट पर बैठ कर हुक्का गुड़गुड़ाने लगते, जैसे एक थक कर आया किसान करता है। इस हुक्का का भी अपना महत्व था।
पश्चिम उत्तर प्रदेश में कहा जाता है, “हुक्का अगर कोई अकेले पीए तो उसका भाग्य खराब है। जब हुक्का बाँट कर पीते हैं, तो भाग्य खुलता है।”
टिकैत भी अपना हुक्का आगे बढ़ा देते, और किसी किसान से हुक्का माँग लेते। यह जैसे सीधे उनके हृदय से सम्पर्क स्थापित हो जाता। एक बार अजीत सिंह उनसे मिलने पहुँचे, तो गाँव वालों ने उनकी तरफ़ हुक्का बढ़ा दिया। अजित सिंह ने मना कर दिया कि वह नहीं पीते। ज़ाहिर है, वह नहीं जुड़ पाए।
टिकैत ने अजित सिंह से कहा, “पहले अपने पार्टी से इस्तीफ़ा दो। फिर किसानों के साथ आओ।”
अन्य विपक्षी दलों ने भी टिकैत के इस किसान आंदोलन के समर्थन में दूत भेजे, लेकिन मना कर दिया गया। यह पहले आंदोलन से ही उनके मन में स्पष्ट था कि राजनीति के आते ही आंदोलन का वजन घट जाएगा। किसानों के मुद्दे गौण हो जाएँगे। वह किसानों को राजनीति से अलग एक शक्ति बनाना चाहते थे।
टिकैत ने गाँव वालों से मुख़ातिब होकर कहा, “सारी बिजली बड़े-बड़े कारख़ाने ले जाते हैं। यह शामली का सब-स्टेशन ठप्प पड़ा है। गाँवों के ट्यूब-वेल सूखे पड़े हैं। बताओ।”
वह यह कह कर वापस हुक्का गुड़गुड़ाने लगते। लम्बे भाषणों में उनकी रुचि नहीं थी। उनका तरीक़ा था कि बात ऐसे हो जैसे गाँव के चौपाल में होती है। एकतरफ़ा बात न हो, अलग-अलग लोग अपनी समस्या कहें। वे आम लोग हों, और आम बातें करें। बहुत जल्दी ही टिकैत उस इलाके के सभी गाँवों के महात्मा या ‘बाबा टिकैत’ कहलाने लगे। अब उनकी साधारण बातें भी यूँ सुनी जाती जैसे कोई दार्शनिक अपने मंतव्य दे रहा हो। पंचायत में उनकी उपस्थिति यही होती कि जब कोई अंतिम फ़ैसला या ज्ञान देना होता तो वह थोड़ी देर मंच पर जाकर अपनी बात कह कर लौट आते। उनकी कही बात ही पत्थर की लकीर बन जाती।
वहीं, उनके पड़ोस के राज्य हरियाणा में देवी लाल भी किसानों के मसीहा बन कर उभर रहे थे, लेकिन उनकी मंशा राजनैतिक थी। यही टिकैत को अलग तरह का नेता बनता है। जैसा उनकी मृत्यु पर प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह ने कहा था,
“महेंद्र सिंह टिकैत को राजनीतिज्ञों ने अपनी तरफ़ खींचना चाहा, लेकिन उन्होंने राजनीति को अपने पर कभी हावी नहीं होने दिया।”
इस मामले भी टिकैत कुछ अक्खड़-मिज़ाजी भी कहे जा सकते हैं। उनके मन में शहरी और सुशिक्षित लोगों के प्रति एक अविश्वास था। तमाम स्वयंसेवी संस्थाएँ और समाजसेवी जो उन्हें अपना नेता बनाना चाहते, उनसे वह छिटकते रहते। अजीत सिंह के साथ उनका रवैया तो लिखा ही है। अन्य किसान नेताओं को भी वह तभी भाव देते, अगर वह कम पढ़े-लिखे या खेतिहर व्यक्ति हों। जैसे, किसान नेता शरद जोशी पर उन्हें विश्वास नहीं था। थोड़ा बहुत विश्वास समाजवादी नेता किशन पटनायक पर था। बाद में तो यूनियन के सचिव हरपाल सिंह से भी उनका विवाद हो गया, जिन्होंने उनके लिए अपने शिक्षक की नौकरी त्याग दी थी। इसे टिकैत की तानाशाही कहना उचित नहीं होगा, वह गाँव के साधारण जीवन जीने वाले व्यक्ति थे। उनकी दुनिया वैसी ही थी।
अगस्त 1987 में मुख्यमंत्री सिसौली पंचायत पहुँचे। उन्हें किसी ने बुलाया नहीं था, लेकिन शामली आंदोलन के बाद उनके पैरों तले ज़मीन खिसकने लगी थी। महेंद्र सिंह टिकैत ने भी उन्हें अनुभव कराया कि वहाँ की ताक़त उनके हाथ में है। उन्होंने मुख्यमंत्री को अपने घर पर बिठा कर भोजन कराया, वहाँ का पानी पिलाया ताकि वह देख लें एक किसान आख़िर क्या खाता-पीता है। कैसे ज़िंदगी जीता है।
टिकैत ने कहा, “आप हमारी माँगें एक महीने के अंदर नहीं मानेंगे तो हम बड़ी जगह पर बड़ा आंदोलन करेंगे।”
वीर बहादुर सिंह ने उनकी आँखों में पढ़ना चाहा, मगर पढ़ नहीं सके। क्या पढ़ते? टिकैत को भी नहीं मालूम था कि अगला आंदोलन कहाँ होगा।
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Author Praveen Jha describes one of the first major protests of farmer leader Mahendra Singh Tikait
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