कालो थियु सै- बाड़मेर का सम्मोहन

Kaalo Thiu Sai
Kaalo Thiu Sai
कहानियाँ किसी रोज़मर्रा की घटना से भी बुनी जा सकती है अगर कहने का शऊर हो। जब यह कहानी बाड़मेर जैसी जगहों से उपजती है तो एक अलग ही भँवर रचती है। किशोर चौधरी लिखित पुस्तक कालो थियु सै पर बात

सम्मोहक लेखन क्या है? सम्मोहन से एक ऐसा यंत्र याद आता है जिसमें संकेंद्रित वृत्त बना होता या जैसे महामृत्युंजय यंत्र। आप उसे देखते-देखते उसके वश में चले जाते हैं और अपनी अवचेतना खोने लगते हैं। यह लेखन की भी एक शैली है जब आप शब्दों के भँवर में घिरते चले जाते हैं, और यह भूल जाते हैं कि कहानी कहाँ ले जा रही है। या यूँ कहें कि कहानी के आदि-अंत से मुक्त होकर उसका आनंद लेने लगते हैं।

सबसे पहले तो लेखक किशोर चौधरी की पुस्तक का शीर्षक और आवरण ही मुझे सम्मोहित कर गया। एक भुतहा वीराने में किसी पुरानी हवेली सरीखा रेलवे स्टेशन (जो पता नहीं किस स्थान का है)। राजस्थानी (?) भाषा में ‘कालो थियु सै’ जिसका उपशीर्षक लिखा है- पागल हुए हो? यह एक स्वाभाविक जिज्ञासा से आकर्षित कर लेती है कि देखें! आखिर है क्या?

यह बाड़मेर के इर्द-गिर्द बुनी आत्मकथा शैली की कहानी है, जिसके संचालक लेखक स्वयं हैं। वह अपने आस-पास घट रही सूक्ष्मतम घटनाओं पर लिखते हैं, जो एक मुकम्मल घटना भी नहीं कही जा सकती। जैसे एक बकरी आयी, और गमले में लगे पौधे को चर गयी। इसे जब आप पढ़ेंगे तो धीरे-धीरे इसका वृत्त बढ़ता जाता है। वह बाड़मेर के किसी गमले से उठ कर वैश्विक परिधि में पहुँच जाती है। कुछ उसी तरह जैसे किसी झील में एक कंकड़ फेंक कर उसकी परिधि में वृत्ताकार लहरें बनती है।

यह शैली अद्वितीय नहीं है। बल्कि आलम यह है कि जब भी कोई हिंदी में इस तरह का लेखन करता है तो उस पर विनोद कुमार शक्ल या निर्मल वर्मा की नकल करने का आरोप लगता है। फ़िल्मकारों पर सत्यजीत रे की नकल का। लेकिन मैं जिस ध्रुवीय देश नॉर्वे में रहता हूँ, वहाँ यह लेखन पारंपरिक है। तर्ये वेसॉस से यून फुस्से और कॉल ओवे क्नॉसगार्ड तक की शैली यही है। कथा से अधिक दृश्य-चित्रण और उससे उपजते दर्शन का आख्यान। इस चंपू काव्य या ललित निबंध कहना उचित नहीं होगा, बल्कि यह एक स्थापित कथा शैली है।

संभव है कि शीत या उष्ण मरुस्थलों के परिवेश में जो दुनियावी कोलाहल कम है, समय का ठहराव है, वह ऐसे लेखन की उपज हो। लेखक किशोर चौधरी किसी हड़बड़ी में नहीं दिखते, और बड़े इत्मीनान से हर दृश्य को बहुआयामी बनाते हैं। कथा-कहन की भी विविधता है। एक लुहार परिवार के मित्र जो फ़िल्मों की पटकथा लिखते हैं। एक पिता का अपने बालक पुत्र से संवाद समाज की परतें खोलता दिखता है। जिया ख़ान की आत्महत्या और नरेंद्र डाभोलकर की हत्या का युग्म। पंचकूटा और लाल मिर्च से राजस्थानी पाकशालाओं की यात्रा। प्रेम की छुअन। सभी दस अलग-अलग अध्यायों में विस्तृत किए गए हैं (समेटना कहना उचित नहीं होगा)।

यह कमी तो नहीं कही जाएगी, लेकिन एक तरह का सुझाव है कि इन अलग-अलग छोटे क़िस्सों से एक सीढ़ी ऊपर उठ कर उपन्यास की ओर कदम बढ़ाया जाए। अलग-अलग कंकड़ फेंकने की बजाय एक ही कंकड़ डाला जाए जिसके वृत्त में पूरी झील समा जाए। ऊपर जिन लेखकों के उदाहरण दिए हैं, वे ऐसा करने में सक्षम हुए हैं। बल्कि क्नॉसगार्ड और फुस्से तो एक ही वृत्त में सात खंडों का उपन्यास लिख चुके हैं।

यह सम्मोहन की पराकाष्ठा होगी, और एक परीक्षा भी कि आप पाठक को आखिर कब तक बांध पाते हैं।

Author Praveen Jha narrates his experience about book Kaalo Thiu Sai- Pagal huye ho? by Kishore Chaudhary 

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