कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा

Kachh Katha Abhishek Srivastav
Kachh Katha Abhishek Srivastav
यात्रा संस्मरणों का ढर्रा कभी एक नहीं रहा, लेकिन इस विधा में हिंदी साहित्य नित नए प्रतिमान रच रहा है। यात्राएँ कई खेप में, कई चीजों को तलाश रही हैं। इंटरनेट युग में भी ऐसे अनसुलझे, अनजाने रहस्यों से परिचय करा रही है, जो बिना घाट-घाट पानी पीए नहीं मालूम पड़ेगी। अभिषेक श्रीवास्तव लिखित कच्छ कथा उसी कड़ी में

भारत का सबसे बड़ा जिला, जिसके बारे में मैं सबसे कम जानता था। यह जिला इतना बड़ा है कि इससे छोटे भारत के कुछ राज्य और यूरोप के कुछ देश हैं। इसका इतिहास इतना पुराना है कि जब मानव सभ्यताएँ विकसित ही हो रही थी, उस वक्त से यहाँ नगर मौजूद हैं। इसकी संस्कृति इतनी कॉस्मोपोलिटन कि वह भोगौलिक, धार्मिक और भाषायी सीमाओं को तोड़ती और जोड़ती दिखती है। इसकी जलवायु एक चरम पर है, और यहाँ से जन्मा व्यापार और अर्थव्यवस्था दूसरे चरम पर। यह वो जगह है जिसके नमक के क़र्ज़दार सभी भारतीय हैं, लेकिन नमकहलाली में कमी रह जाती है।

अभिषेक श्रीवास्तव ने कच्छ की कई खेप में यात्रा की, क्योंकि यह इतना बृहत क्षेत्र है कि एक खेप में संभव ही नहीं हो सका। यहाँ वह हॉप-ऑन हॉप-ऑफ बसें या टूर पैकेज नहीं होंगे जो कोना-कोना दिखा दें। जो बहुप्रचारित चीजें हैं जैसे कच्छ का रण या धौलावीर, वे तो इसका अंश मात्र हैं। लगभग 46 हज़ार वर्ग किलोमीटर भला कोई कैसे हफ्ते भर या महीने भर में नाप लेगा? लेखक ने भी सब कुछ देख कर भी सब कुछ नहीं देखा होगा।

जैसा उन्होंने लिखा है कि वह कभी यात्रा कर आते और अपने नोट्स अपने ब्लॉग पर चस्पा करते। ये नोट्स इतने अधिक जमा होते गए कि इसने एक मुकम्मल किताब की शक्ल ले ली। आज के समय यह आश्चर्य है कि इन मंजे हुए लेखक और अनुभवी पत्रकार की यह पहली किताब है। उन्होंने लगभग एक दशक इन सवा दो सौ पन्नों को लिखने में लगा दिया। कच्छ देखने में और उसे व्यवस्थित रूप से दर्ज़ करने में यह वक्त लगना वाजिब है।

इस पुस्तक की यूएसपी तीन चीजें हैं। 

पहला है एक साझे विरासत की खोज, जो इस पुस्तक का उपशीर्षक भी है। इसमें उन मंदिरों की बात है, जिसे पीढ़ी-दर-पीढ़ी मुसलमान परिवार देख-भाल कर रहे हैं। उन दरगाहों की जिनके हिंदू परिवार। उन इस्माइली पंथों और सिखों की, जो वर्षों से यहाँ रह रहे हैं। उस निर्वासितेश्वर महादेव की, जिन्हें निर्वासित सिंधियों ने स्थापित किया। नाथ संप्रदाय के जोगियों की। एक ऐसे महादेव मंदिर की, जिसका संरक्षण मुसलमान करते हैं और पुजारी हिंदू औरतें हैं!

दूसरी यूएसपी है कच्छ के पुरातात्विक इतिहास की खोज। उन चीजों की जो ज़मीन के नीचे दबे थे, या इतने ही उभरे थे कि पूरी तरह नज़र नहीं आ रहे थे, या आँखों के सामने रह कर भी अपना इतिहास नहीं बता रहे थे। इसमें वह किसी नामी-गिरामी इतिहासवेत्ता से नहीं मिलाते, बल्कि अलहदा किस्म के धुनी लोगों से मिलाते हैं। एक डाक्टर हैं, जो कच्छ में खुदाई कर इतिहास लिखते हैं। एक डेंटिस्ट हैं जो पुरातात्विक मॉडल बनाते हैं। एक चतुर्थवर्गीय सरकारी कर्मी हैं, जो हड़प्पा सभ्यता के सूत्र ढूँढ लेते हैं। लेखक उन सभी को ढूँढ कर निकालते हैं, क्योंकि वे भी अपने खोजों की तरह कहीं दबे पड़े हैं। दुनिया को उनका नाम ही मालूम नहीं। न उन्हें बताने में ख़ास रुचि हैं। वे तो कर्मयोगी किस्म के लोग हैं। 

तीसरी यूएसपी है राजनीतिक कोण। आखिर यह भारत के वर्तमान प्रधानमन्त्री और गुजरात के मुख्यमंत्री रहे नरेंद्र मोदी का क्षेत्र है। इस क्षेत्र पर पूरी दुनिया की नज़र तब गयी जब यहाँ भूकंप आया था। देश-विदेश से लोग इसके पुनर्निर्माण के लिए पहुँचने लगे। इसके साथ ही यहाँ का सदियों पुराना सांस्कृतिक बहुलता का कलेवर भी बदलने लगा। लेखक अपने रिपोर्ताज़ से उस स्वामीनारायण मंदिर और उन संस्थाओं से परिचय कराते हैं, जो धीरे-धीरे कच्छ का भगवाकरण करने में अपनी भूमिका निभा रहे हैं। रोचक यह है कि कई मुसलमान और सिख यहाँ के अग्रणी भाजपा नेता हैं। ज़ाहिर है वे नरेंद्र मोदी के प्रशंसक हैं।

तीसरे यूएसपी का ही दूसरा पक्ष है उद्योगों की बात। नमक के उद्योग के केंद्र में किस तरह पूँजीवाद अपना रंग दिखा रहा है? कैसे पाकिस्तान सीमा पर मीलों के वीराने में रसायन उद्योग स्थापित है? कौन कच्छ में ऐसी अनुमतियाँ दे रहा है, और इससे वहाँ के जलवायु पर क्या प्रभाव पड़ रहा है? यह बंजर दिखती ज़मीन सदियों से समुद्र व्यापार और खनिज अर्थव्यवस्था का केंद्र कैसे रही है? यह वीरान दलदल भारत के लिए कैसे सबसे महत्वपूर्ण सीमाओं में है?

यह सभी मामलों में एक परिपक्व लेखन है। लेखक की भाषा पर भी पकड़ है और कहन पर भी। प्रकाशक ने सोने पर सुहागा यह किया है कि ग्लॉसी प्रिंट में रंगीन तस्वीरें डाली है और उस हिसाब से मूल्य बहुत अधिक नहीं रखा है। हालाँकि अंत में कई तस्वीरें साधारण काग़ज़ पर श्वेत-श्याम भी है, लेकिन फिर भी हिंदी पुस्तकों के मुद्रण में यह अच्छी शुरुआत है।

यह आलोचना तो नहीं कहूँगा, लेकिन नए पाठकों को यह बेतरतीब लग सकती है। इसमें नोट्स किसी ख़ास क्रम में न होकर बिखरे हुए हैं। कुछ पात्र शुरुआत में किसी नोट में आकर अचानक अंत में आ जाते हैं, जब तक वे शायद आपके स्मृति से छूट गए हों। अगर कोई बाद में संदर्भ लेना चाहे तो आसानी से नहीं मिल पाएगा। अध्याय व्यवस्थित रूप से नहीं बने कि एक अध्याय धौलावीर हो गया, एक रण हो गया, एक लखपत हो गया…

लेकिन, वहीं अगर आप नियमित पाठक हैं तो इसका प्रवाह इतना स्मूथ है कि क्या कहूँ! एक पत्थर से दूसरे पत्थर तक इतनी सहजता से आ जाते हैं कि पता ही नहीं लगता। फिर घूम कर वापस भी आ जाते हैं ताकि कुछ छूटने न पाए। कहावतें, कविताएँ, साक्षात्कार, लोक-कथाएँ, इतिहास, रिपोर्ताज़ सब आते-जाते रहते हैं। गति बहुत ही तेज़ है जो बाँधे रखती है।

जैसे कहते हैं कि ‘कच्छ नहीं देखा तो कुछ नहीं देखा’, उसी तर्ज़ पर जोड़ना चाहूँगा- ‘कच्छ कथा नहीं पढ़ा तो कुछ नहीं पढ़ा’ 

Author Praveen Jha shares his experience about book Kachh Katha by Abhishek Srivastav published by Rajkamal Prakashan (Sarthak imprint) 

लद्दाख यात्रा संस्मरण पढ़ने के लिए क्लिक करें 

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