आइडिया से परदे तक

Idea Parde Ramkumar Singh
आइडिया से परदे तक- रामकुमार सिंह एवं सत्यांशु सिंह
ऐसी किताबें पसंद आती है, जिसमें खामखा आडंबर नहीं होता और किसी प्राथमिक शिक्षक की तरह बेसिक से शुरू कर खेल-खेल में समझाया जाता है। लेखक समझाते हैं कि उपन्यास या अन्य गद्य के पाठक किताबों में रुचि वाले पढ़ाकू लोग हैं, जबकि फ़िल्म तो कोई भी देख लेता है।

हाल में आयी एक फ़िल्म पर मैंने कहा कि यह लिखा ठीक से नहीं गया। सामने से प्रश्न आया- तुम कैसे लिखते? मुझे इसका जवाब नहीं सूझा क्योंकि इस क्षेत्र का तो कोई आइडिया नहीं। तभी यह किताब दिखी, तो पढ़नी शुरू की। हालाँकि लोगों ने और भी किताबें सुझायी, लेकिन यह किताब मेरे जैसे लोगों के लिए है, जिनको शून्य जानकारी है।

इस किताब में बच्चों की तरह समझाया गया है कि पटकथा कैसे लिखी जाती है, फॉर्मैट क्या है, किस सॉफ़्टवेयर पर लिखें, पात्र कैसे गढ़ें, प्लॉट कैसे बनाएँ। अपने जीवन का पहला ड्राफ्ट कैसे लिखें, और उसे कहाँ जमा करवाएँ कि भविष्य में कभी पर्दे तक आ जाए।

मुझे फ़िल्में देखने का शौक है तो उम्मीद थी कि तमाम यूरोपीय और अंग्रेज़ी फ़िल्मों के माध्यम से समझाया गया होगा। मगर लेखक संभवतः ऐसे पाठकों को समझा रहे हैं, जो वहाँ भी ज़ीरो हैं। जिन्होंने विदेशी फ़िल्में कम देखी है या लोकप्रिय फ़िल्में ही देखी है। पूरी किताब में ‘लगान’, ‘दिलवाले दुल्हनिया ले जाएँगे’, ‘शोले’ या अंग्रेज़ी में ‘मैट्रिक्स’ जैसी फ़िल्मों के उदाहरण हैं, जिसके दृश्य और पात्र सभी को याद हैं।

ऐसी किताबें पसंद आती है, जिसमें खामखा आडंबर नहीं होता और किसी प्राथमिक शिक्षक की तरह बेसिक से शुरू कर खेल-खेल में समझाया जाता है।

लेखक समझाते हैं-

“उपन्यास या अन्य गद्य के पाठक किताबों में रुचि वाले पढ़ाकू लोग हैं, जबकि फ़िल्म तो कोई भी देख लेता है। इसलिए लोकप्रिय पटकथा बहुत ही यूनिवर्सल हो, जो सबको साथ लेकर चले।”

वह ‘लगान’ का उदाहरण देते हैं, जो ऐसे देशों में भी पसंद की गयी जहाँ क्रिकेट नहीं खेला जाता। यह बात तो मैंने स्वयं देखी कि एक नॉर्वेजियन व्यक्ति फ़िल्म देख कर क्रिकेट समझ गए कि कितने खिलाड़ी होते हैं, कैसे गेंद डाली जाती है, क्योंकि पटकथा में है। वहीं 83 फ़िल्म में वह नहीं है, तो जिसे क्रिकेट मालूम नहीं, वह नहीं जुड़ पाएगा।

पात्र कैसे गढ़े जाते हैं, और उनके कितने प्रकार हैं, यह हमें मालूम है। नायक, सहनायक, खलनायक, विदूषक आदि। लेकिन, हर फ़िल्म में लगभग उसी कैटगरी के पात्र होते हैं, यह सहसा ध्यान नहीं जाता।

मुझे प्रोटागोनिस्ट का अर्थ नायक यानी हीरो ही जेहन में था। मगर इसका विच्छेद Prot (मुख्य) + Agony (कष्ट) है, यानी ऐसा व्यक्ति जिसका कष्ट सबसे मुख्य हो। अब इसे घायल फ़िल्म के सन्नी देवल पर फिट कर लगता है कि आखिर नायक को इतनी पीड़ा क्यों दी गयी। सीधा ढाई किलो का हाथ क्यों नहीं उठवाया गया? यह पटकथा लेखन का फॉर्मैट है, जिससे दर्शक जुड़ते हैं।

यह पुस्तक कलात्मक सिनेमा या समानांतर सिनेमा के हिसाब से नहीं, पॉपुलर ब्लॉकबस्टर के लिए लिखी गयी है। आज के ओटीटी युग में जब एक तरह का सिनेमा लोकतंत्र आया है, छोटे क़स्बों से निकले बीस-बाइस साल के युवक फ़िल्म लिख रहे हैं, तो लिख कर कमाने के लिए भी ऐसे प्राइमर ज़रूरी हैं। अगर आपके पास कोई आइडिया है, तो यह पुस्तक पढ़ें। नहीं है, तो ज़रूर पढ़ें।

(मुझे मालूम पड़ा कि इसके एक लेखक सत्यांशु सिंह बिहार से हैं, डाक्टरी की पढ़ाई की और अब स्क्रीनप्ले के मशहूर शिक्षक बन गए हैं। दूसरे लेखक रामकुमार सिंह का नाम सुन रखा था।

अभिनेता मित्र राजू उपाध्याय जी ने दो और किताबें सुझायी-
1. कथा पटकथा- मन्नू भंडारी
2. पटकथा लेखन- मनोहर श्याम जोशी

ये दोनों मैंने नहीं पढ़ी। मगर नाम सहेज लिए हैं।)

 

Author Praveen Jha discusses his experience about book Idea Se Parde Tak by Ramkumar Singh and Satyanshu Singh

क्या सिनेमा में भी लोक गीत हो सकते हैं? Click here to read about folk music in cinema.

 

 

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