हम सभी ने एडॉल्फ हिटलर की वह तस्वीर देखी होगी जिसमें वह वियना के पैलेस के बाल्कनी पर खड़ा है। हज़ारों की भीड़ और नाज़ी झंडे नीचे लहरा रहे हैं। लेकिन, शायद इस बात से कम लोग परिचित हों कि इस घटना से ढाई दशक पूर्व वह वियना के बेघरों के साथ गरीबी में रह रहा था। पेंटिंग बेच कर जैसे-तैसे गुजारा कर रहा था।
मैं जब सिग्मंड फ्रॉय्ड के घर से निकला तो मेरे अंदर जैसे उन मनोवैज्ञानिक का एक सूक्ष्म इंजेक्शन लग गया। मैं उस मानसिकता को तलाशने लगा जिसने फ्रॉय्ड और उनके जैसे तमाम यहूदियों को पलायन करने या मरने पर मजबूर किया। जिस समय सिग्मंड फ्रॉय्ड की प्रैक्टिस अपने चरम पर थी, उस समय एडॉल्फ हिटलर नामक यह नवयुवक उनके अगले चौराहे पर रहता था। अगर इन दोनों की मुलाक़ात हो जाती, तो शायद दुनिया कुछ और होती।
चूँकि मैं स्वयं दस वर्ष की उम्र से छात्रावास में रहा हूँ, मुझे लगता है कि हमारे व्यक्तित्व के बनने में उन वर्षों का बहुत महत्व होता है जब हम पहली बार अपने माता-पिता से अलग रहने लगते हैं। जब हम कुछ हद तक स्वतंत्र होकर अपने आप को तलाशते हैं। हमारे नए रूम-मेट, नए दोस्त बनते हैं, नयी सोच जन्म लेने लगती है। अच्छी भी और बुरी भी।
मेरे हाथ में एक किताब है, जो हिटलर के उन बुरे दिनों के रूम-मेट और लगभग इकलौते साथी ने लिखी है। मैं उस किताब में बताए बिंदुओं से गुजरूँगा, जिनकी आज की तस्वीर आप अंत में देख सकते हैं। हिटलर किस जगह रहता था, क्या करता था, किस कॉलेज में एडमिशन रिजेक्ट हुआ, कहाँ बेघरों के बीच रहना पड़ा, कहाँ खाता-पीता था, किससे नफ़रत हुई और किस जगह वह एक तानाशाह बन कर लौटा। लेकिन, इसे एक पारंपरिक यात्रा संस्मरण से अलग मैं इसे बतकही अंदाज़ में कहने की कोशिश कर रहा हूँ, जो उपरोक्त पुस्तक और मेरे अनुभव को मिला कर है।
1
लिंज, ऑस्ट्रिया, 1904
ऑपरा हाउस में शहर के रसूखदार बग्घियों से उतर कर अपनी प्रेमिकाओं के हाथ में हाथ डाले प्रवेश कर रहे हैं। सिविल सर्वेंट, जज़, वकील, ऑस्ट्रिया-हंगरी राजपरिवार से जुड़े लोग, फ़ौजी अफ़सर, बड़े व्यवसायी, कला के पारखी, नगर के नामी चिकित्सक। यहाँ गरीबों की न जगह है, न रुचि। लेकिन, कुछ किशोर और युवक सीढ़ियों से ऊपर जा रहे हैं, ताकि ऊपर खड़े होकर मुफ़्त में ऑपरा का आनंद ले सकें।
सफ़ेद कमीज और काली पतलून में एक नवयुवक अपने हाथ में आबनूस (ebony) की छड़ी लिए उन्हीं सीढ़ियों पर चढ़ रहा था। लेकिन, जब ऊपर पहुँचा तो देखा कि बायीं तरफ़ की सबसे मुफ़ीद जगह पर किसी और ने कब्जा कर रखा है। वह मायूस होकर दायीं ओर खड़ा हो गया, और उचक कर ऑपरा देखने लगा।
यह घटना जब दो-चार बार हुई, तो उसके इस प्रतिद्वंद्वी ने पूछा, ‘मैं तो मामूली फ़र्नीचर मजदूर हूँ। मेरे पास ऑपरा देखने के पैसे नहीं। लेकिन, तुम तो संभ्रांत परिवार से लगते हो, फिर टिकट लेकर क्यों नहीं आते?’
उसने कहा, ‘मेरे पिता अब जीवित नहीं। वह होते, तो मैं टिकट लेकर ही प्रवेश करता’
‘अच्छा। वह ज़रूर यहाँ बड़े अधिकारी रहे होंगे (हाथ बढ़ा कर) मैं ऑगस्त कुबिज़ेक। तुम मुझे गुस्ती बुला सकते हो। और तुम?’
‘एडॉल्फ…एडॉल्फ हिटलर’
जल्द ही एक भूतपूर्व सिविल सर्वेंट का बेटा एडॉल्फ और एक फ़र्नीचर मजदूर गुस्ती अच्छे दोस्त बन गए। एडॉल्फ को वास्तुकला में रुचि थी, और गुस्ती को पियानो बजाने में। एडॉल्फ अमूमन किसी को दोस्त नहीं बनाता। अपने स्कूल के दोस्तों से तो उसे चिढ़ थी।
एक दिन ये दोनों लिंज में टहल रहे थे तो उसके एक सहपाठी ने टोका, ‘कैसी चल रही है ज़िंदगी, एडॉल्फ?’
एडॉल्फ ने उखड़ कर कहा, ‘तुम्हें उससे क्या मतलब? तुम सब साले सिविल सर्वेंट बनोगे। इस निकम्मे ऑस्ट्रिया राजा के नौकर रहोगे। जर्मन नौकर!’
गुस्ती ने पूछा, ‘तुम्हें इस राजशाही से कोई शिकायत है? आखिर तुम्हारे पिता भी तो कैप्टन थे’
‘अब दुनिया बदल रही है। इस ऑस्ट्रिया-हंगरी के नपुंसक राजवंश का अंत निश्चित है। राइख़ (Reich) हमारा भविष्य तय करेगा’
‘तुम्हारा मतलब जर्मनी से है?’
‘हाँ! हम जर्मन है। क्रोएशियाई, सर्ब, हंगैरियन नहीं’
‘हम ऑस्ट्रिया में भी तो जर्मन ही बोलते हैं, वही संस्कृति है। फिर ग़लत क्या है?’
‘ग़लत? यह डैन्यूब पर पुल देख रहे हो? यह कभी भी टूट सकती है। ये सामने इमारत देख रहो हो, इसका वास्तु इतना खराब है कि इसे ढहा देना चाहिए। उस सड़क पर खड़े भिखारी को भीख क्यों मांगनी पड़ रही है? ये फ़ौजी अफ़सर किस बात का रोब दिखाते हैं, और हमारी जर्मन लड़कियों उन पर जान क्यों देती है? ये स्कूल क्या बकवास पढ़ाते हैं? यह कुत्ता क्यों सड़क पर घूम रहा है? पशु अधिकार वाले क्या कर रहे हैं? राइख़ में सब व्यवस्थित होगा। एक एक चीज़’
‘लड़कियों से याद आया, तुम्हारी नज़र भी तो…’
‘स्टीफैनी! वह मेरी होने वाली पत्नी है। उसकी तरफ़ नज़र उठा के मत देखना’
‘अच्छा? बात यहाँ तक पहुँच गयी? सब तय हो गया?’
‘नहीं दोस्त! मैं तो सोच रहा हूँ कि आखिर कैसे पूछूँ?’
‘सोचना क्या है? वह जब अपनी माँ के साथ चल रही हो, तुम्हें पास जाकर अपनी यह टोपी उतारनी है और कहना है- महोदया! मैं एडॉल्फ हिटलर। क्या मैं आपकी बेटी को ऑपरा ले जा सकता हूँ?’
‘वह पूछेगी कि पढ़ते क्या हो? करते क्या हो? मैं अपना परिचय इस तरह दूँ- एडॉल्फ हिटलर, अकादमिक चित्रकार?’
‘अकादमिक चित्रकार? उसके लिए तो अकादमी की डिग्री चाहिए। बिना डिग्री का चित्रकार तो सड़कों पर खड़े होकर बेचता है और कोई खरीदने वाला नहीं होता’
‘यही तो समस्या है। हर जगह इन्होंने बाधाएँ बना रखी है। जब तक मैं कुछ बन नहीं जाता, स्टीफैनी का हाथ नहीं माँग सकता’
‘वैसे एक बात तो है। स्टीफैनी को भी ऑपरा पसंद है। मैंने उसे अपनी माँ के साथ जाते देखा है। वह डांस भी बहुत अच्छा करती है’
‘डांस? तुमने देखा है? क्या वह भी उन असभ्य लड़कियों की तरह है जो बॉल-रूम में हाथ पकड़े नाचती रहती है?’
‘असभ्य? ऐसा तो रईस परिवारों की सभ्य लड़कियाँ करती हैं?’
‘यह शराब, तंबाकू, बॉल-डांस, सब असभ्य चीजें हैं। मुझे तो कोफ़्त होती है ऐसी चीजों से। राइख़ में यह सब बंद हो जाएगा’
ऑगस्त कुबिज़ेक सुन कर हैरान होता कि यह राइख़ आखिर है क्या, और इससे इस एडॉल्फ का क्या लेना-देना?
[स्टीफैनी आइजैक नामक एक अमीर युवती के उपनाम को लेकर अटकलें चलती रही कि हिटलर का यह पहला प्यार एक यहूदी थी। लेकिन ऑगस्त ने अपनी किताब में कहा है कि वह उसकी इस पहचान पर कुछ नहीं लिखना चाहेंगे]2
लिंज, 1906
‘गुस्ती! मेरे दोस्त! मैं वियना जा रहा हूँ। अब मेरी मंजिल वहीं है’
‘मगर तुम तो यहाँ टेक्निकल स्कूल में पढ़ रहे हो न?’
‘यहाँ की पढ़ाई जितनी होनी थी, हो गयी। इस गाँव में मेरे लिए कुछ नहीं रक्खा। मैं एकैडमी ऑफ़ आर्ट्स जा रहा हूँ’’
‘वाह, मेरे अकादमिक चित्रकार! डिग्री लेकर आना और स्टीफैनी का हाथ माँगना’
‘अच्छा सुनो! मुझे स्टीफैनी की खबर भेजते रहना…और हाँ! तुम तो ठहरे कंगले (हंसते हुए) पोस्टकार्ड ही भेजोगे। उसका असली नाम मत लिखना। तुम उसका नाम लिखना- बेंकीज़र। ठीक है?’
‘हाँ हाँ! बेंकीज़र की खबर भेजता रहूँगा। घबराओ मत! तुम्हारे आने तक उसकी शादी तो क़तई नहीं होने दूँगा’
एडॉल्फ हिटलर वियना पहुँच कर एकेडमी ऑफ़ आर्ट्स के निकट ही एक मकान में भाड़े पर रहना लगा। उन दिनों दाखिले के लिए अपनी चित्रकला के नमूने पेश करने होते। एडॉल्फ को विश्वास था कि उसके बनाए गए भवनों और सड़कों के वाटर-कलर चित्र पसंद किए जाएँगे। लिंज में उसके शिक्षक ने ख़ासी तारीफ़ भी की थी। लेकिन, यह तो वियना था। वास्तु-कला का गढ़, जहाँ बैरोक शैली की खूबसूरत इमारतें मौजूद थी। शॉनब्रून पैलेस, ऑपरा हाउस और तमाम गिरजाघरों की छवि में एडॉल्फ के बनाए ये मामूली भवन कहीं नहीं टिकते थे।
‘लड़के! तुम्हारे ये चित्र यहाँ की सड़कों पर बिकने के काबिल भी नहीं। वापस लौट जाओ। किसी और विषय का चयन करो। वास्तुकला तुम्हारे बस की नहीं’
एडॉल्फ खीजता हुआ अपने कमरे में आया। वह खुद को पैदाइशी वास्तुकार समझता था। कम से कम ऑगस्त की नज़र में उसे ठीक-ठाक समझ भी थी। वह किसी भी भवन में झट से ऐब निकाल देता कि फलाँ खिड़की का आकार गलत है, फलाँ दीवाल ठीक से नहीं बनी। एक कुर्सी, दीवान बनाने वाले मज़दूर के लिए तो यह बहुत प्रभावशाली थी।
खैर, अगले ही वर्ष एडॉल्फ को वापस लौटना पड़ा। उसकी माँ क्लारा हिटलर चल बसी, और वह अब पूरी तरह अनाथ हो गया। सरकार ने जो पचास क्राउन की पेंशन उसकी माँ को तय की थी, वह उसे और उसकी छोटी बहन पॉला को आधी-आधी मिलने लगी। एडॉल्फ के हिस्से आए पच्चीस क्राउन में दस क्राउन तो वियना का मकान भाड़ा ही था। अपनी बहन को अपना हिस्सा देकर वह लगभग सड़क पर आ गया। उसने वियना के एक बेघर आवास के लिए अर्जी दे दी।
कुछ ही समय बाद उसके दोस्त ऑगस्त की चिट्ठी आयी कि स्टीफैनी का विवाह एक फ़ौजी के साथ तय हो गया है। एडॉल्फ अब हर तरफ से हारा हुआ था। वियना ने उसके मन में अपनी इस हार का नया कारण दिया- यहूदी!
3
वियना, 1908
स्टंपर्सग्रास मुहल्ले के उस मकान के एक छोटे से कमरे में किरासन की गंध आ रही थी। दांते की पुस्तक ‘डिवाइन कॉमेडी’ बिस्तर पर पड़ी थी, जिस पर वियना पुस्तकालय की मुहर लगी थी। बिस्तर अपेक्षाकृत व्यवस्थित था, और बिस्तर के साथ ही एक कुर्सी लगी थी। खिड़की के ताक पर दूध और ब्रेड रखा था।
‘अच्छा हुआ दोस्त, तुम आ गए। यहाँ तुम संगीत की पढ़ाई करो, मैं वास्तुकला पढ़ता हूँ’, एडॉल्फ ने ऑगस्त से कहा
‘मुझे तो लौट कर कुर्सियाँ ही बनानी है। तुमने उम्मीद दिखाई तो आ गया। लेकिन यह शहर पसंद नहीं आया’
‘तुम गंवार के गंवार ही रहोगे। संगीत की कद्र तो इसी शहर में है। यहाँ जम कर मेहनत कर लो। देखना, एक दिन म्यूज़िक कंडक्टर बनोगे’
‘वह सब तो ठीक है। मगर यहाँ भीड़ बहुत है’
‘तुम्हें जर्मन कम दिख रहे हैं न? यह बात तो मुझे भी खल रही है। न जाने किस-किस असभ्य नस्ल के लोगों ने गंध मचा रखा है। वे रईसी कर रहे हैं, और हम यहाँ दो वक्त की रोटी को तरस रहे हैं’
‘वह सब छोड़ो। तुम्हारी पढ़ाई कैसी चल रही है?’
‘मैं एक बड़ा वास्तुकार बनने जा रहा हूँ। बिना किसी अकादमी के… यह देखो! मैंने ऑपरा हाउस की तस्वीर बनानी शुरू की है। बहुत बड़ी इमारत है। रोज थोड़ा-थोड़ा बनाता हूँ। (हँसते हुए) अब तक उसमें ऐब नहीं मिला’
‘चित्र तो वाकई उम्दा है। लेकिन, तुम पढ़ाई भी किया करो’
‘पढ़ाई? यह ‘डिवाइन कॉमेडी’ पढ़ी। क्या कमाल की किताब है। तमाम जर्मन साहित्य पढ़ डाले। हमारे उन नायकों की कहानी, जो इन लोगों ने दबा डाले। मैं रोज ही पुस्तकालय जाता हूँ, और किताबें लेकर आता हूँ’
‘किन लोगों ने दबा डाले? मुझे न जाने क्यों ऐसा लगता है कि तुम बदलते जा रहे हो, एडॉल्फ। शायद मैं ही गंवार रह गया, तुम शहरी बन गए’
‘मैं तो वैसा ही हूँ। तुम्हारी माँ ने मेरे लिए केक भेजे होंगे। वह कहाँ है?’
‘अरे हाँ! बातों-बातों में भूल गया। उन्होंने ख़ास कहा था कि एडॉल्फ के लिए बादाम भरे केक भेज रही हूँ’
‘वाह वाह! तुम अब आराम कर लो। कल हम तुम्हारे लिए पिआनो खरीद कर आएँगे, और फिर ऑपरा जाएँगे। कपड़े इस्तरी कर लेना। वहाँ बिना इस्तरी के कपड़े नहीं चलते’
‘इस्तरी कहाँ कराऊँ अब?’
एडॉल्फ ने तकिया उठा कर अपनी पतलून दिखा कर कहा, ‘अपने कपड़े अच्छी तरह मोड़ कर तकिये के नीचे रख लो…सुबह तक अपने-आप इस्तरी हो जाएँगे। यह है वियना तकनीक!’
अगले दिन एक सेकंड-हैंड बड़े साइज़ का पियानो उस छोटे से कमरे में जैसे-तैसे लगा दिया गया। वे ऑपरा के लिए निकले।
वियना के ऑपरा हाउस में उन दिनों एक नयी चीज शुरू हुई थी- कृत्रिम तालियाँ। जैसा आजकल टीवी कार्यक्रमों में देखने को मिलता है जिसमें हँसी और तालियाँ बाहर से डाल दी जाती है। ऑपरा के अंदर कुछ लोग पैसे देकर ताली बजाने के लिए रखे जाते।
उस दिन जहाँ ये दोनों खड़े थे, उनके साथ ही तालीबाज़ भी खड़े थे। वे हर पाँच मिनट में ताली बजाने लगते। इससे इनके मनोरंजन में ख़लल पड़ने लगा। एडॉल्फ ने एक तालीबाज़ के कान पर मुक्का दे मारा। जब ये दोनों वहाँ से निकल कर भागने लगे तो पुलिस ने पकड़ लिया।
उस समय एडॉल्फ ने कहा, ‘मैं क्या सड़क-छाप दिखता हूँ जो किसी को मुक्का मारूँगा? मुझे कला की कद्र है। मैं तो रोज आकर इस ऑपरा हाउस का चित्र बना रहा हूँ। अंधेरे में उनको ग़लतफ़हमी हुई होगी। यह मुक्के मारने वाला कोई और होगा’
ऑगस्त ने लिखा है कि पुलिस ने उस पर विश्वास कर लिया, मगर एडॉल्फ छुप कर इंतज़ार करने लगा।
जब वह तालीबाज़ बाहर आया, उसने फिर से मुक्का जड़ दिया और कहा, ‘एक तो ख़ामख़ा पैसे लेकर ताली बजाता है, ऊपर से शिकायत भी करता है। राइख़ में यह सब नहीं होगा’
4
हिटलर का कहना है कि वियना आने से पूर्व उसका यहूदियों से नगण्य परिचय था। उसने अपनी जीवनी में लिखा है कि उसके पिता ने यहूदी शब्द का इस्तेमाल लगभग नहीं किया। हालाँकि उसका दोस्त ऑगस्त इस दावे को ख़ारिज करते हुए लिखता है कि हिटलर के पिता भी यहूदी-विरोधी थे। उसके तकनीकी स्कूल के एक शिक्षक तो बीच क्लास में यहूदियों को गाली देते, और एडॉल्फ यह कहानी उसे रस लेकर सुनाता।
यह ज़रूर हो सकता है कि वियना में यहूदी भारी संख्या में दिखे होंगे। सिग्मंड फ्रॉय्ड, स्टीफ़न ज्वाइग और तमाम बुद्धिजीवी यहूदी ही थे। व्यवसाय यहूदियों के हाथ में थे। अकादमिक दुनिया में उनका बोल-बाला था। भले यह बात लिखी नहीं गयी, लेकिन मुमकिन है कि कला अकादमी में उसे ख़ारिज करने वाली फैकल्टी भी यहूदी रहे हों।
ऑगस्त के अनुसार एडॉल्फ कहीं किसी पत्थर पर खड़ा हो जाता और अचानक ऐसे राष्ट्रवादी भाषण देने लगता जैसे उसके सामने हज़ारों लोग खड़े हों। वह किताबों के संदर्भ देता, तमाम तर्क देता, जोर-जोर से बोलता, मगर सुनने वाला सिर्फ़ वह अकेला होता। उसे लगता कि या तो मेरा यह दोस्त बहुत बड़ा बुद्धिजीवी है, या यह पागल होता जा रहा है।
इनके बीच तकरार इस वजह से भी होने लगी क्योंकि एडॉल्फ बेरोजगार था, अपनी मर्जी से देर से उठता, देर से सोता। इस कारण ऑगस्त के लिए पियानो का रियाज़ कठिन हो जाता। जब एडॉल्फ किताब पढ़ रहा होता, तो पियानो बजाने से मना कर देता। चित्रकारी कर रहा होता, तो भी मना कर देता। बाकी वक्त उसे ख़ामख़ा भाषण सुनाता। आखिर वह संगीत पर कैसे ध्यान दे? फिर भी दोस्ती निभाने के लिए साथ बना रहा।
एक दिन यह बाँध टूट गया, जब एडॉल्फ कमरे में खुशी से नाचता हुआ आया। ऑगस्त को लगा कि उसे कोई बड़ा काम मिल गया है। मगर एडॉल्फ ने कहा कि वह पुलिस थाने में गवाही देकर आ रहा है।
‘पुलिस थाने? क्यों? क्या हो गया?’
‘एक हैंडली को खूब मज़ा चखाया आज’
‘हैंडली कौन?’
‘अरे, ये कमीने यहूदी जो जोंक की तरह हमारा खून चूस रहे हैं’
‘कोई मार-पीट तो नहीं की?’
‘नहीं, नहीं! एक हैंडली दुकान के बाहर भीख माँग रहा था। इनके पास बहुत पैसा है, फिर भी भीख माँग कर नाटक करते हैं। पुलिस ने रोक कर काग़ज़ माँगे, तो कहा कि बहुत गरीब है, वह तो सिर्फ़ जूते का फीता बेच रहा था। आस-पास खड़े लोग भी उस कमीने का साथ देने लगे। मैंने गवाही दी कि यह भीख माँग रहा था। (ठहाके लगाते हुए) अब जेल में लाठियाँ खा रहा होगा…राइख़ में इन कीड़ों के लिए कोई जगह नहीं होगी’
ऑगस्त को उस दिन लग गया कि यह आदमी नफ़रत की आग में जलता जा रहा है। शायद इसे वियना छोड़ देना चाहिए। मगर वह जानता था कि उसके समझाने का कोई फ़ायदा नहीं होगा। कुछ दिनों बाद वियना के उस पते पर एक चिट्ठी आयी। ऑगस्त के नाम से।
‘क्या है चिट्ठी में, गुस्ती? यह तो सरकारी चिट्ठी लगती है’
‘मुझे फौज के लिए बुलाया जा रहा है। जाना होगा’
‘तुम पागल हो गए हो? कुछ बीमारी का बहाना बनाओ। कुछ भी करो मगर अपना यह करियर बर्बाद मत करो! तुम्हें संगीतकार बनना है’
‘यह तो राष्ट्र के लिए हम सबका दायित्व है। तुम्हें भी चिट्ठी आएगी’
‘मैं मर जाऊँगा लेकिन इस ऑस्ट्रिया-हंगरी फ़ौज का हिस्सा नहीं बनूँगा। ये राज्य अब खत्म होने की कगार पर है’
‘तुम मोटी-मोटी किताबें पढ़ते हो। बड़ी-बड़ी बातें करते हो। हम तो साधारण लोग हैं। हमें तो आदेश मानना ही होगा। एक साल की ही तो बात है’
‘मैं म्यूनिख़ भाग जाऊँगा। तुम भी साथ चलो। हम राइख़ में नयी दुनिया देखेंगे’
‘दोस्त! मुझे जाने दो। मुझे मालूम नहीं कि तुम कैसे राइख़ का सपना देख रहे हो’
ऑगस्त के जाने के बाद एडॉल्फ को बेघर आवास में जगह मिल गयी। इस मध्य उसके अंदर यहूदी-विरोधी प्रवृत्ति बढ़ती गयी होगी। 1913 तक वह वियना में रहा, और उसके बाद म्यूनिख चला गया। अपने दोस्त गुस्ती से संपर्क टूट गया या यूँ कहें कि उसकी दुनिया अब बदल चुकी थी।
पंद्रह वर्ष बाद ऑगस्त ने एक दुकान में पत्रिका देखी जिस पर एक तस्वीर छपी थी।
उसने दुकानदार से कहा- ‘यह मेरा दोस्त है। हम वियना में साथ रहे थे। एडॉल्फ। (आह भरते हुए) अब भी वही आँखें। वही नाक-नक्श। मगर…’
1938 में जब एडॉल्फ हिटलर वियना लौटा तो नाज़ी सेना के साथ हॉफबर्ग पैलेस की मुंडेर पर हज़ारों लोगों को उसी तरह भाषण दे रहा था जैसे कभी ऑगस्त को दिया था। अब वह बेघर नहीं था, बल्कि ऑस्ट्रिया पर क़ब्ज़ा करने आया था। राइख़ के अपने स्वप्न को पूरा करने। यहूदियों का अंत करने आया था।
न जाने इस ख़ौफ़नाक स्वप्न की सिग्मंड फ्रॉय्ड क्या व्याख्या करते?
आज एडॉल्फ हिटलर का वियना में कहीं नाम-ओ-निशान नहीं। न उसके आवास में। न हॉफबर्ग पैलेस में। न किसी दुकान, किसी बोर्ड पर। हिटलर आज वियना में क्या, पूरी दुनिया में बेघर ही है।
1953 में अपने संस्मरण में उसके दोस्त ऑगस्त ने लिखा- ‘मैं आज सोचता हूँ कि आखिर एडॉल्फ को भगवान ने क्या सोच कर बनाया होगा?’
इत्तफ़ाक़न जिस समय एडॉल्फ हिटलर वियना में था, उस दौरान 1913 में एक और व्यक्ति वहीं रह रहा था। वही व्यक्ति जो हिटलर के अंत का कारण बना – स्तालिन।
मैं जब उसके आवास पर गया, तो वहाँ उसकी तस्वीर लगी थी, लेकिन उसके नीचे लिखा था-
‘1949 में मेयर थियोडोर क्रोनर ने जोसेफ़ स्तालिन की सत्तरवीं वर्षगाँठ पर यह पट्टिका उनके वियना प्रवास की स्मृति में लगायी। लेकिन आज इसे उन तमाम सोवियत नागरिकों के लिए याद किया जाना चाहिए, जो स्तालिन के राज में मार दिए गए। उन तमाम ऑस्ट्रियाई नागरिकों के लिए जिनकी नाज़ियों और स्तालिन, दोनों ने हत्या करवाई’
Author Praveen Jha narrates an account of book ‘The Young Hitler I Knew’ by August Kubizek
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