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6 अगस्त, 1945
सुबह 8.15 बजे जब हिरोशिमा शहर पर एटम बम गिरा, एक फ़ैक्ट्री क्लर्क तोशीको ससाकी अपने सहकर्मी से बतिया रही थी। डॉक्टर फूजी अपने निजी अस्पताल की बाल्कनी में बैठ कर अखबार पढ़ रहे थे। शहर की दर्जी नाकामुरा अपनी रसोई से अपने पड़ोसी को घर की मरम्मत करते देख रही थी। जर्मन मूल के पादरी क्लीनसोर्ग अपने ईसाई मिशन की छत पर चड्डी-बनियान में लेटे हुए जर्मन पत्रिका पढ़ रहे थे। जूनियर सर्जन डाक्टर ससाकी हाथ में खून का सैंपल लिए अस्पताल के कॉरिडोर में बढ़ रहे थे। पादरी तानिमोतो कुछ सहायता-सामग्री उतार रहे थे। कुछ दिनों से यह आशंका थी कि शहर पर B-29 जहाज बम गिराने वाले हैं!
जापानी भाषा में इस बम-वर्षक जहाज़ को आदर से ‘बी-सान’ यानी श्रीमान बी कहा जाता था। यह जापानी संस्कृति का दोष कहा जा सकता है कि आक्रमणकारी को भी आदर से बुलाते हैं। श्रीमान बी ने जब बम गिराया, और हज़ारों लोग मारे गए, तब भी अमरीका के लिए उस कदर आक्रोश नहीं महसूस किया गया कि दशकों बाद उनका कोई जहाज़ हाइजैक कर लें या न्यूयार्क की कोई इमारत गिरा दें। इसे बौद्ध चेतना माना जाए या सदियों का अनुशासन, वे नियति को स्वाभाविक मानते आए हैं। जैसे यह तो एक न एक दिन होना ही था।
हालाँकि जापान सरकार उन्हें नियमित तैयारी करा रही थी कि बम गिरने की सूरत में उन्हें कहाँ छुपना है, कहाँ भागना है, लेकिन कुछ लोग इससे भी तंग आ गए थे। यूँ भी जब बम गिरेगा, तो भागने की संभावना कितनी होगी। इस बात की चिंता तो युद्ध लड़ने वाले देशों के महामहिम करें कि बम गिरने की नौबत न आए। शहर के किसी दर्जी, डाक्टर या पादरी के बस में आखिर है ही क्या? इसलिए जब बम गिरने के पूर्व मध्य-रात्रि रेडियो पर घोषणा हुई कि सुबह हिरोशिमा पर बम गिराए जा सकते हैं, लोग नहीं भागे!
एटम बम की आवाज़ नहीं होती
हिरोशिमा एक जापानी हाथ-पंखे आकार का शहर था। ओटा नदी की सात शाखाओं ने इसे सात द्वीपों में बाँट रखा था। शहर के केंद्र में कुछ तीन लाख लोग बसते थे। वहाँ के घर जापानी घरों की तरह लकड़ी के बने थे, जिनका गिरना और खड़ा होना रोज की बात थी। उस सुबह आसमान में एक सन्नाटा सा था। कहीं किसी युद्ध-विमान का नाम-ओ-निशान नहीं था।


“मैं गली में सामान उतार रहा था, जब आसमान में एक रोशनी दिखाई दी। ऐसा लगा जैसे सूर्य की लालिमा पूरे आकाश में फैल गयी। पूरब से पश्चिम तक। मैं डर गया, लेकिन मेरे पास इतना वक्त था कि घर में घुस कर बिस्तर के नीचे छुप सकूँ। मैंने कोई आवाज़ नहीं सुनी। न कोई धमाका हुआ। सिर्फ़ धरती हिली, और छत टूट कर गिरने लगा!”, तानीमोतो उस घटना को याद करते हुए कहते हैं।
डॉक्टर फूजी जो छत पर बैठे अखबार पढ़ रहे थे, उन्हें अचानक अपना अखबार पीला दिखने लगा। वह जैसे ही घबरा कर खड़े हुए, उनके साथ-साथ उनका पूरा अस्पताल सामने की ओर झुकने लगा। अगले ही क्षण वह अपनी इमारत के साथ ओटा नदी में गिर चुके थे। भाग्य से वह न सिर्फ़ जीवित थे, बल्कि वह हिरोशिमा के उन गिने-चुने लोगों में रहे जिन्हें न एक खरोंच आयी और न ही कोई दीर्घकालिक रोग हुआ। हड्डियों के उन डाक्टर पर यह कहावत चरितार्थ हुई- जाको राखे साइयाँ, मार सके न कोय।
पादरी क्लीनसोर्ग को यह स्मरण नहीं कि बम कब गिरा और उस वक्त आसमान का रंग कैसा था। वह कहते हैं,
“मैं तो छत पर पत्रिका पढ़ रहा था। अचानक मैंने खुद को अपने बगीचे में चहलकदमी करते पाया। मेरे जाँघ से खून बह रहा था और आस-पास के सभी मकान ध्वस्त हो चुके थे। संभव है कि मैं भाग कर नीचे आया था, मगर मुझे कुछ याद नहीं। न कोई विस्फोट, न कोई लालिमा, न ही कोई चीख-पुकार। जैसे समय का पहिया या स्वयं यीशु मसीह मुझे बचा कर बगीचे में ले आए।”
डाक्टर ससाकी की कहानी इनसे अलग है,
“मैं न हिला, न ही कहीं भागा। मैं जिस तरह खून का सैंपल लिए प्रयोगशाला की ओर बढ़ रहा था, वैसे ही बढ़ता गया। मेरे आस-पास ताश के पत्तों की तरह दीवारें गिरने लगी। शीशे टूटने लगे। मैं जड़वत खड़ा हो गया और मन में बुदबुदाया – ससाकी, गम्बारे! (ससाकी! हिम्मत करो)…जब मंजर थमा, मैं आस-पास लोगों की मदद करने भागा। अफ़सोस कि अस्पताल का हर व्यक्ति मर चुका था। यह डाक्टर उस वक्त एक जान भी नहीं बचा सका।”
वहीं टीन फैक्ट्री की क्लर्क ससाकी (जिनका डाक्टर ससाकी से कोई संबंध नहीं) को किताबों ने बचा लिया। शब्दशः किताबों ने।
“मैं उस वक्त फ़ैक्ट्री के पुस्तकालय में बैठी थी। अभी-अभी एक सहकर्मी मुझसे बतिया कर निकली थी। तभी मेरे ऊपर पुस्तकालय के आलमीरे गिरने लगे। मैं उन्हें संभालने बढ़ी, लेकिन अगले ही क्षण मैं सैकड़ों किताबों के नीचे दबी पड़ी थी। शायद अगर मैं पुस्तकालय के बजाय किसी और कमरे में होती, तो जीवित नहीं बचती। मुझे उस दिन उन किताबों ने बचा लिया।”
बम के साइड-इफ़ेक्ट
सरकारी प्राथमिक आँकड़ों के अनुसार उस दिन 78,150 लोग मारे गए। 13,983 लोग गुम हो गए। 37,425 लोग बुरी तरह घायल हो गए। लेकिन ये चंद लोग सही-सलामत बच गए। वे लोग जिनका एटम बम भी बाल-बाँका न कर सका।
उनमें कुछ तो अगले चार दशक यह ख़ौफ़नाक हादसा जेहन में लिए जीते रहे। डाक्टर फूजी और डाक्टर ससाकी ने फिर से अपना अस्पताल खड़ा किया। पादरी क्लिन्सबोर्ग और तानीमोतो ने ईसाई मिशन जारी रखा। तानीमोतो तो अमरीका के सीनेट में वक्तव्य देने भी गए, और दुनिया को चेताया कि यह मंजर कभी दुबारा न हो। दर्जी नाकामुरा भी हिरोशिमा में कपड़े सिलती रही। यह भी एक नियति ही तो है।
यह एक ख़ौफ़नाक प्रयोग था, और हिरोशिमा के लोग इस प्रयोग के चूहे। चिकित्सकों को यह अंदेशा नहीं था कि इसके क्या प्रभाव होंगे। कब तक होंगे। कितनी पीढ़ियों तक होंगे।
एटम बम से निकली न्यूट्रॉन, बीटा और गामा किरणों ने बम के केंद्र के आधे मील में बसने वाले 95 प्रतिशत लोगों को क्षण भर में निगल लिया। जो लोग कुछ मील दूर थे, उन्हें पहले तो बुखार और दस्त आए, और अगले हफ्ते तक मृत्यु हो गयी। वहीं कुछ लोग जो जीवित रहे, उनके सर के बाल उड़ गए और वे हफ़्तों तक अस्पताल में बीमार पड़े रहे।
“मैंने कुछ सालों तक एक ही प्रकार की शल्य क्रिया की। लोगों की त्वचा पर पड़ी गाँठें काट कर निकाली। मुझे बाद में मालूम पड़ा कि दरअसल यह गाँठें न भी निकालता, तो वह समय के साथ ठीक हो जाती। मगर न जाने क्यों, लोग इन दागों को मिटाने को आतुर थे। शायद ये उन्हें उस हादसे की याद दिलाती होगी, जिसे वे हमेशा के लिए भूल जाना चाहते हैं। उन्हें अपने शरीर के अंदर पल रहे कैंसर की उतनी चिंता नहीं थी, जितनी इस दृष्टिगोचर गाँठ की थी।”, डाक्टर फूजी कहते हैं।
दशकों बाद स्वयं डाक्टर फूजी की मृत्यु लिवर कैंसर से हुई, किंतु वह ये मानने को तैयार नहीं थे कि इसकी वजह वह एटम बम था। वह यही मानते रहे कि उस दिन जब बम गिरा, उन्हें कुछ नहीं हुआ। वह जीवन भर चुस्त-दुरुस्त रहे और उनका व्यवसाय भी प्रगति करता गया। न सिर्फ़ उनका, बल्कि उनके देश का भी। उनके लिए एटम बम तो महज एक लम्हा था, जो गुजर गया। वह कहते रहे-
“मानव इन एटम और हाइड्रोजन बमों से कहीं अधिक शक्तिशाली है।”
Author Praveen Jha narrates eye-witness account of atom bombing during second World war, based on book ‘Hiroshima’ by John Hershey.
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1 comment
बहुत बढ़िया प्रवीण जी !
आप हिन्दी में जिस तरह का लेखन कर रहे हैं वह हम सबकी मदद कर रहा है !
शुक्रिया !