यह कितना कठिन होगा कि एक जैसे पात्रों को हज़ार वर्षों के अंतराल पर देखा जाए। जैसे एक मौर्यकालीन चिकित्सक, एक मध्ययुगीन चिकित्सक और एक आधुनिक चिकित्सक की कहानी लिखी जाए, तो उसमें कितना अंतर होगा? एक लेखक जो उन पर लिखना चाहें, उन्हें भी इन तीन काल खंडों को अलग-अलग समझना होगा। यह कार्य कठिन है। मैंने एक प्रसिद्ध भारतीय इतिहासकार को साक्षात्कार में कहते सुना कि मुझे मात्र प्राचीन इतिहास पर ही ज्ञान है, इसलिए ग्यारहवीं सदी पर विमर्श नहीं कर सकते।
मैंने गीता श्री की तीन पुस्तकों का पाठ किया- पहली थी वैशाली गणराज्य की नर्तकी ‘अंबपाली’, दूसरी थी मध्यकाल के मिथिला (कार्नाट अंश) की ‘राजनटनी’, तीसरी है नब्बे के दशक की नर्तकी गोलमी महतो की कहानी ‘हसीनाबाद’।
इन तीनों में एक नाभिकीय समानता यह है कि तीनों एक स्त्री पर केंद्रित है, जो कई मामलों में बंध कर भी उन्मुक्त है। दूसरी यह कि तीनों में पुरुष पात्र जितने ही शक्तिशाली हैं, उतने ही कमजोर भी। यह विरोधाभास आखिर कैसे संभव हुआ और इसका चित्रण करना कितना कठिन होगा? इस उत्तर के लिए ये उपन्यास पढ़े जा सकते हैं।
वहीं इन उपन्यासों में स्थूल भेद भी हैं। एक आरंभिक गणतंत्र की कहानी है, दूसरी राजतंत्र की, तीसरी लोकतंत्र की। पहली में वह राजनटनी है, दूसरी में राजनर्तकी, तीसरी में वह ‘नचनिया’ जो संसद तक पहुँचती है। तीनों में अपनी-अपनी स्वतंत्रता के संघर्ष है।
‘हसीनाबाद’ उपन्यास मैंने स्टोरीटेल पर सुनी, जो लगभग नौ घंटे की है। मेरा अनुमान है कि वाणी प्रकाशन से छपी यह किताब काग़ज़ पर कुछ दो सौ पृष्ठ की होगी।
इस कथा में सामंतों का बसाया एक पुश्तैनी ‘हसीनाबाद’ है, जिसमें वेश्याओं (?) का बास रहा है। सामंत ही उनका भरन-पोषण करते रहे हैं। यह एक तरह का पारंपरिक अनुबंध है, और ये महिलाएँ अमूमन किसी ख़ास सामंत से ही जुड़ी होती हैं। उनके बच्चे अमुक सामंत के अवैध बच्चे होते हैं। उनका बुढ़ापा ज़मींदार द्वारा भेजी गयी नियमित रकम से कटता है। जब ज़मींदार की मृत्यु होती है, उनके सर से छत हट जाती है।
गोलमी का जन्म एक ऐसे कालखंड में होता है, जब ज़मींदारी का अवसान होने लगता है, और समाजवाद हिलकोरे मार रहा होता है। वहीं दूसरी तरफ़ लोक-संस्कृति पर फ़िल्मी गाने हावी हो रहे होते हैं। गोलमी इस परिवेश में बढ़ते हुए एक तरफ़ पारंपरिक नाच-गानों को संरक्षित रखना चाहती है, वहीं दूसरी तरफ़ उन तमाम अवैध बच्चों को नाम-पहचान दिलाना चाहती है।
कहानी के ज़मींदार भी क्रूर न दिखा कर एक सामाजिक समीकरण के अंग दिखाए गए हैं। मसलन समाजवाद के झंडाबरदार भी वही हैं, जो गोलमी के राजनीतिक गुरु बनते जाते हैं। यह भी एक विचित्र विरोधाभास है कि किसी क्रांति के बजाय यह एक सहज लोकतांत्रिक प्रक्रिया दिखती है। एक प्रायोगिक हल की तरह।
गीता श्री के लेखन की यह आलोचना भी हो सकती है कि वह बहुत सहज लिखती हैं। उनके प्रगतिवादी लेखन उत्प्रेरक नहीं लगती। कहानी सीधी-सपाट रास्ते पर चलते-चलते अपनी मंजिल तक पहुँच जाती है। ख़ास कर अगर आप नियमित पढ़ रहे हैं, तो यह अनुमान लगाना भी आसान होता है कि अंत क्या होगा। एक आश्चर्य तत्व संभवतः कहानी को अधिक धार देता, जो कुछ स्थानों पर मौजूद है।
दूसरी बात जो मूलतः आलोचना नहीं है, वह ये कि भाषा में आंचलिक शब्दों के अतिरिक्त अन्य प्रयोग कम हैं। समकालीन विश्व साहित्य में जिस तरह के प्रयोग देखने को मिलते हैं, वह इस उपन्यास में नहीं दिखते। सीधे-सीधे कहूँ तो ऐसी कहानी को बूकर या नोबल मिलना कठिन है। हाँ! अगर पठनीयता का कोई पुरस्कार होता, तो इस पुस्तक को श्रेष्ठ श्रेणी में रखा जा सकता है। अगर नाटक या फ़िल्म बनानी हो, तो यह कहानी लोकप्रिय हो सकती है।
मुझे लगता है लिखना सीखने के लिए ये पुस्तक एक मार्गदर्शक हैं, जो एक ही विषय को तीन अलग-अलग कालखंड और कोण से देखते हैं। भले इन्हें गीता श्री या प्रकाशक ने त्रयी नहीं कहा है, इन तीनों का अपने किताबों की ताक में एक साथ रखा जा सकता है।
मेरे लिए इस पुस्तक के सबसे प्रिय पात्र रहे- अढ़ाई सौ।
हाँ! यही उनका नाम है- अढ़ाई सौ।
राजनटनी पर पढ़ने के लिए चटकाएँ
अंबपाली पर पढ़ने के लिए चटकाएँ
Author Praveen Jha narrates his experience about third book of trilogy from Geeta Shri- Haseenabad.