गुरुदत्त मनोवैज्ञानिक मॉडल हैं। इनकी जीवनी भी एक उपन्यास की तरह बन जाती है, जैसे इनके ही सभी फ़िल्म एक साथ पिरो दिए गए हों।
यासिर उस्मान लिखते हैं कि गुरु दत्त की फ़िल्मों के गाने यूँ शुरू होते थे जैसे बात-चीत के ही विस्तार हों। उनमें Introductory music नहीं होता था।
पुस्तक में गुरुदत्त, गीता दत्त और वहीदा रहमान के प्रेम त्रिकोण के द्वंद्व से इतर गुरु दत्त की अपनी अपूर्णता को खूब तराशा गया है, जो कहीं न कहीं हम सब में छुपी है। जैसा उप-शीर्षक कहता है। गीता दत्त पर विमल मित्र के संदर्भ तो दिए ही हैं, लेकिन पुस्तक में काफ़ी नाटकीय बने हैं। जैसे यह संवाद- ‘क्या तुम नहीं चाहते कि मैं वहीदा जैसी सुंदर दिखूँ?’ इसका पूरा चित्रण बहुत ही प्रभावी है।
बदरूद्दीन काज़ी यानी जॉनी वाकर इस पुस्तक में एक महत्वपूर्ण किरदार बन कर उभरे हैं। लोकप्रिय क़िस्सों से अलग भी उनके संवाद जैसे उनकी ‘आनंद’ फ़िल्म के किरदार की याद दिलाते हैं, जिसे पता हो कि उनके मित्र अल्पायु हैं।
एक दार्शनिक कोण भी है कि जब मनुष्य के पास सब कुछ हो, और कुछ नहीं हो। गुरुदत्त का अपने बंगले को बुलडोज़र से सपाट करना और कहना-
‘घर न होने की तकलीफ़ से बड़ी तकलीफ़ घर का होना है’
एक दार्शनिक वक्तव्य बन जाता है।
दर्शकों यानी भारतीय समाज की सोच को दिखा कर इसका फलक और विस्तृत हो गया है। एक खूबसूरत फ़िल्म जिसे समाज पूरी तरह से ख़ारिज कर देता है, और निर्देशक को पूरी तरह तोड़ देता है। यह कलाकार और समाज के अंतर्संबंधों पर एक पैराडोक्स है कि व्यक्तित्व और समाज भिन्न चीजें हैं।
यह पुस्तक कई पुस्तकों और संदर्भों का समुच्चय है, जिसमें एक महत्वपूर्ण करीबी के संस्मरण जुड़ गए हैं।
Author Praveen Jha shares his experience about book Gurudutt An Unfinished Story by Yaseer Usman
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