Translation of first ever interview of Mohandas Karamchand Gandhi at the age of 22 years. Translated by Praveen Jha.
हॉल्बॉर्न, लंदन, जून १८९१
(डॉ. जोशिया ओल्डफील्ड, संपादक, द वेज़ीटेरियन के साथ भारतीय विद्यार्थी मोहनदास)
1. आप इंग्लैंड क्यों आए और कानून की शिक्षा क्यों चुनी?
एक शब्द में कहूँ तो- अभिलाषा। मैं बॉम्बे यूनिवर्सिटी से 1887 में मैट्रिक पास हुआ। फिर भावनगर कॉलेज में दाखिला लिया, क्योंकि ग्रैजुएट के बिना मेरे समाज में पूछ नहीं। उसके बिना अच्छी नौकरी भी बिना पैरवी के कोई नहीं देगा। लेकिन मुझे लगा ग्रैजुएट होने में तीन वर्ष लगेंगे। मुझे सरदर्द और नाक से खून बहने की बीमारी थी। मेरे जैसे कमजोर विद्यार्थी को ग्रैजुएट के बाद भी नौकरी नहीं मिलती। मेरे एक पारिवारिक मित्र ने सुझाया कि लंदन चला जाऊँ। मुझे लगा कि वकील बना न बना, लंदन पहुँच कर कई कवियों-दार्शनिकों को देखूँगा-सुनूँगा, एक सभ्यता का केंद्र देखूँगा।
आने की वजह यही थी। अब वजह धीरे-धीरे बदल रही है।
2. आपके मित्र तो आपके लंदन जाने से खुश होंगे?
हाँ! लेकिन सभी नहीं। मित्र भी कई तरह के होते हैं। कुछ जो खास मित्र हैं, बहुत खुश थे। कुछ श्रेष्ठ लोगों का मानना था कि मैं लंदन जाकर गलत कर रहा हूँ और धर्म भ्रष्ट हो जाएगा। परिवार का नाम खराब करूँगा। कुछ मित्र ऐसे भी होते हैं, जो चिढ़ते हैं। उनको लगता है कि मैं लंदन से बैरिस्टर बनकर आऊँगा और खूब धन कमाऊँगा। कुछ को लगता है कि मेरी उम्र कम (अभी बाइस वर्ष) है, तो लंदन के खराब मौसम में बीमार हो जाऊँगा। एक वाक्य में कहें, तो किसी भी बात पर मित्रों में एक राय नहीं बन पायी।
3. आप आए कैसे? क्या क्या समस्यायें आयीं?
यह बात बताने के लिए समय कम है। इतनी समस्यायें मुझे हमारे रामायण धर्मग्रंथ के रावण की याद दिलाती है। उनके दस सर थे, और गर एक काटे भी जाते, तो वह फिर से जुड़ जाते।
समस्याओं को चार भाग में विभाजित करता हूँ- धन, बड़ों की सहमति, संबंधियों से बिछड़ना और जातिगत समस्यायें।
पहले बात करता हूँ, धन की। यूँ तो मेरे पिता एक से अधिक रियासतों के प्रधानमंत्री थे, लेकिन कुछ धन बचाया नहीं। हम भाई-बहनों और दान-पुण्य में सब खर्च कर डाला। हाँ! कुछ जमीनी संपत्ति जरूर छोड़ी। वो कहते कि गर बाल-बच्चों के लिए धन छोड़ा, वो अय्याश निकल जाएँगें। तो धन मेरे लिए बड़ी समस्या थी ही। कुछ छात्रवृत्ति का प्रयास किया, पर मिली नहीं। ग्रैजुएट के बिना नहीं मिलती। आखिर बड़े भाई ने खर्च कर मुझे इंग्लैंड भेजा।
अब यहां आपको भारतीय परिवार समझा दूँ। भारत के हर पुरूष एक बड़े संयुक्त परिवार का हिस्सा होते हैं। हालांकि भाइयों में झगड़ा भी होता है, कुछ परिस्थितियों में। हमारे यहाँ वैयक्तिक संपत्ति नहीं, पारिवारिक संपत्ति का महत्व है। हमारी सारी संपत्ति मेरे बड़े भाई ही सँभालते थे।
मुझे अगर कुछ खर्च करना है, तो बड़े भाई की अनुमति से ही। मैनें जब कहा कि मेरी सारी संपत्ति मेरी शिक्षा पर खर्च कर दें, तो वह मान गए। लेकिन इतने महान् भाई विरले ही होते हैं। उन्हें यह भी समझाया गया कि मैं नालायक निकलूँगा और उनके सब पैसे डूब जाएँगें, फिर भी। उनकी बस यह शर्त थी कि मां और चाचाजी को मना लूँ। मां का तो मैं लाडला था। लेकिन उनसे तीन वर्ष दूर रहूंगा, इसके लिए मनाना कठिन था। आखिर कई वचनों के बाद उन्हें मना ही लिया। चाचा जी भी बनारस जा रहे थे, पर जाने से पहले हाँ कह गए।
अब दूसरी समस्या पर आते हैं। आपको यह जानकर ताज्जुब होगा कि मैं विवाहित हूँ। बारह वर्ष में ही मेरा विवाह हो गया। इसके लिए मैं अपने ससुराल वालों की गलती नहीं कहूँगा कि इतनी कम उम्र में बेटी ब्याहनी पड़ी। उसकी देखभाल इन तीन वर्ष कौन करेगा, जब मैं लंदन में हूँ? मेरे अग्रज जरूर कर रहे होंगें। पर वो भी कैसे करेंगें? मुझे कई रात बैठकर अपने ससुर जी को यह बात समझानी पड़ी कि मैं तीन साल आपकी बेटी को छोड़ कर जा रहा हूँ। मेरे धैर्य और दृढ़ता की वजह से वो आखिर मान गए।
लेकिन मैंने आखिर अपने बंधुओं और परिवार वालों से अलग होने का निर्णय कैसे लिया? मैं कुछ दिन भी दूर जाता, मेरी माँ रोती। यह भारत में आम है। ऐसे हृदय-विदारक दृश्य को देखना कठिन होता है। मैं इस मानसिक पीड़ा से उबरने की कोशिश करता रहा। सोते-जागते, खाते-पीते मेरे युवा मन में बस लंदन ही घूम रहा था। आखिर जब वो दिन आया, मां सुबह से बस रोए जा रही थी। मैनें उनके माथे को चूमा तो उन्होनें कहा कि, ‘मत जाओ!’ और उसके बाद दोस्तों का तांता बंबई तक छोड़ने आया। यह सब बहुत ही मार्मिक पल था।
बंबई में मेरे जात भाईयों से जो टकराव हुआ, वो वर्णन से परे है। राजकोट में उस हिसाब से ख़ास विरोध नहीं था। मेरी किस्मत ही खराब थी कि बंबई में चारों ओर अपने जाति के लोगों से घिरा था। कहीं से गुजरो, लोग उंगली दिखाएँगें या घूरेंगें। एक बार टाउन हॉल से गुजर रहा था, सबने मुझे घेर लिया और चिढ़ाने लगे।
मेरे भैया यह नज़ारा चुपचाप खड़े देखते रहे। हद तो तब हो गई जब मेरे जाति के लोगों ने बंबई में सभा लगवाई। जाति के हर व्यक्ति को आना अनिवार्य था, न आओ तो पांच आना जुर्माना। इस सभा से पहले भी मुझे कई प्रतिनिधि धमका गए थे। इस सभा के केंद्र में कुर्सी पर मुझे बिठा दिया गया। सभी पटेल, हमारे प्रतिनिधियों ने जोर देकर मुझे याद दिलाया कि मेरे पिता से उनके पुराने रिश्ते थे। मेरे जैसे एकांतप्रिय व्यक्ति को सचमुच खींच कर वो केंद्र में ले आए थे।
जब उन्हें लगा कि मैं डरा हुआ हूँ, वो और चढ़ गए और कहा, “हम तुम्हारे पिता के मित्र हैं और तुम्हारा भला चाहते हैं। हम जाति के नेता हैं, तो हमारी ताकत का तुम्हें अंदाजा है ही। हमें पता लगा है कि इंग्लैंड में तुम्हें मांस और शराब लेना होगा। और सात समंदर पार अलग। यह हमारे जाति के विपरीत है। तुम इसलिए अपना फैसला बदल लो, या कड़े दंड के लिए तैयार हो जाओ। तुम्हें कुछ कहना है?”
मैनें कहा, “आपकी चेतावनी के लिए शुक्रिया। क्षमा कीजिएगा, पर मैं निर्णय नहीं बदल सकता। इंग्लैंड जाकर मांस और शराब लेना अनिवार्य नहीं है। और रही बात समंदर पार की, तो हमारे जात भाई तो अदन जाते ही रहे हैं तो इंग्लैंड क्यों नहीं? मुझे लगता है कि आपकी चेतावनी के पीछे इरादे नेक नहीं।”
पटेल ने गुस्से में कहा, “ठीक है। फिर तुम अपने पिता के पुत्र नहीं। यह लड़का पागल हो गया है। अगर किसी ने इसकी मदद की, तो वह जाति से बहिष्कृत कर दिया जाएगा। यह लौटा भी, तो इसे जाति में प्रवेश नहीं मिलेगा।”
जाति के नेताओं की चेतावनी से तो जैसे बम फट गया। जो सुख-दु:ख के साथी रहे, वो भी छिटक लिए। मैं इन बचकानी तर्कों का जवाब दे सकता था, लेकिन भाई ने रोक लिया। हालांकि अब मेरे भाई भी कुछ डिगने लगे थे। बात सिर्फ धन की हानि की नहीं, जाति से बहिष्कृत होने की थी। भाई ने सीधे तो नहीं कहा, पर दोस्तों से कहलवाया कि निर्णय बदल लूँ।
मेरा निर्णय कहाँ बदलने वाला था! आखिर मेरे जात के लोग जहाज के कैप्टन तक पहुँच गए और उनसे कहलवाया कि अभी मौसम के हिसाब से जाना ठीक नहीं। पंद्रह दिन रूकना होगा। मुझे लगा गर रूक गया, तो यह जाने नहीं देंगे, लेकिन क्या करता? पहली बार जहाज से सफर करना था, तो मुझे भी अनुभव नहीं था। मेरे भाई मुझे बॉम्बे में छोड़ वापस लौट गए।
अब मेरे पास टिकट के पैसे भी नहीं थे। भाई जिस मित्र को कह कर गए थे, उन्होनें भी पैसे देने से इन्कार कर दिया। तभी पता लगा एक भारतीय सज्जन उसी जहाज पर जा रहे थे, और उसी दिन एक मित्र ने मुझे पैसे भी दे दिए, तो मैं निकल पड़ा। उनका एहसान कभी नहीं भूलूँगा। यह सब भगवान की कृपा ही थी, जो तमाम समस्याओं के बावजूद मुझे लंदन ले जा रही थी।
4. इंग्लैंड आकर मांस खाने की समस्या से कैसे उबरे?
मुझे सुझाव ही सुझाव मिले। अधिकतर लोगों का मानना था कि मांस के बिना इस ठंडे प्रदेश में जीना असंभव है। किसी ने कहा कि मांस न खाओ, तो कम से कम शराब पी लो। कोई आठ बोतल व्हीस्की ले जाने की बात कह रहा था कि अदन के बाद आगे के सफर में जरूरत होगी। किसी ने कहा कि इंग्लैंड में सिगरेट पीना ही होगा। यहां तक कि कुछ लंदन से लौटे चिकित्सकीय लोगों ने भी कहा। मैंने उनसे कहा कि लंदन तो मुझे जाना ही है, और अगर यह चीजें अत्यावश्यक हुई तो पता नहीं मैं क्या करूँगा। सच पूछिए तो भारत में मुझे मांस से इतनी आपत्ति नहीं थी, जितनी यहाँ आकर हुई। मुझे मित्रों ने बहला-फुसला कर छह-सात बार मांस खिलाने के लिए मनाया। लेकिन जहाज से मेरा मन बदल गया, खासकर जब मां ने वचन लिया कि मैं मांस न खाऊँ। दोस्त जहाज पर कहते रहे, लेकिन माँ को दिया वचन अब ज्यादा महत्वपूर्ण हो गया।
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Author Praveen Jha translates first interview of Mohandas K Gandhi.