Originally written by Mohandas K. Gandhi. Translation by Praveen Jha
मार्च, 1891
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अभी ईस्टर का वक्त है तो सोचा कुछ ऐसे त्यौहारों पर लिखूँ, जो इस वक्त भारत में होते हैं, पर उनको समझना आपके लिए शुरूआत में कठिन होगा। इसलिए शुरूआत दीवाली से करता हूँ, जो ईस्टर से काफी बड़ा उत्सव है।
दीवाली हर्षोल्लास के रूप में आपके क्रिसमस के बराबर समझ लें। यह हिंदू कैलेंडर के आखिरी महिनों, या आपके कैलेंडर में नवंबर में आता है। यह सामाजिक और धार्मिक उत्सव है, जो महीना भर चलता है। अश्विन मास की पहली तारीख को बच्चे पटाखों से खेलकर दीवाली का आग़ाज करते हैं। पहले नौ दिन नवरात्र कहलाता है, जब गरबी खेला जाता है।
बीस–तीस लोग मिल कर एक बड़ा घेरा बनाते हैं, और बीच में एक रोशनी के लिए लैंप रखा होता है। वहीं केंद्र में एक व्यक्ति बैठ कर कुछ लोकगीत या छंद कहता है। जैसे वो गाता है, बाकी लोग कुछ झुक कर ताली बजाते वह दोहराते हैं, और गोल–गोल घूमते हैं। गरबी सुनने का अलग ही आनंद है।
हालांकि इस गरबी में पुरूष ही होते हैं। महिलाओं की गरबी नहीं होती या अलग से होती है। कुछ परिवारों में व्रत की भी परंपरा है। घर में एक ही व्यक्ति व्रत रख ले, काफी है। यह व्रत रखने वाला बस एक ही वक्त शाम को भोजन करता है। कई लोग फल या कंद दिन में खाते हैं।
दसवाँ दिन दशहरा कहलाता है, जब मित्र एक–दूसरे के घर भोजन करते हैं। मिठाई बँटती है। दशहरा को छोड़ बाकी दिन रात को ही उत्सव होता है। दशहरा के बाद कुछ पंद्रह दिन शांति होती है, हालांकि महिलाएँ मिठाई वगैरा बनाने में व्यस्त होती है। भारत में उच्च कुल की महिलाएँ भी भोजन खुद ही बनाती हैं। भारतीय स्त्रियों के लिए पाक–कला में निपुणता एक गौरव का विषय है।
गीत–उत्सव बिताते हम अश्विन मास के तेरहवें दिन पर पहुँचते हैं, जिसे ‘धनतेरस’ कहते हैं। यह धन की देवी लक्ष्मी की पूजा है। अमीर लोग तमाम गहने, हीरे, जवाहरात, सिक्के एक संदूक में रखते हैं। उसको यह पूजन के लिए रखते हैं, खर्च नहीं करते। कई लोग दूध और जल से सिक्कों को धो कर फूल भी चढ़ाते हैं।
चौदहवाँ दिन ‘काली चौदश’ है। इस दिन सूर्योदय से पूर्व उठना होता है, और आलसी लोग भी इस दिन सुबह जरूर नहाते हैं। माँएँ बच्चों को जबरदस्ती उठा कर ठंड में नहलातीं हैं। कहते हैं, इस रात श्मशान में भूत घूमने आते हैं। जो भूत–प्रेत में विश्वास करते हैं, वो अपने मित्र भूतों से मिलने जा सकते हैं। जो डरपोक लोग हैं, वो काली–चौदश की रात नहीं निकलते।
आह! पंद्रहवां दिन आ गया और आज दीवाली की सुबह। आज पटाखे फोड़े जाएँगें। आज कोई उधार नहीं देगा, और न कोई लेगा। सब लेन–देन एक रात पहले ही निपटाया जाएगा।
आप चौराहे पर खड़े हैं, सामने से एक अहीर दुधिया–सफेद वस्त्र में चल कर आ रहा है। अपनी दाढ़ी के किनारे के बालों को सलीके से पगड़ी के अंदर खोंसे, कुछ टूटे–फूटे लोकगीत गाते। उसके पीछे गाय–बैल के झुंड, जिनके सींग लाल और हरे रंगे हैं और चांदी की परत चढ़ी है। उनके पीछे सर पर मटके एक गद्दे पर टिकाए अहीरन महिलाएँ। आप सोचेंगें उन मटकों में है क्या? और तभी छलक कर कुछ दूध गिर पड़ेगा।
तभी एक विशाल काया का आदमी दिखेगा। बड़ी पगड़ी, और मोटी मूँछें। पगड़ी में एक लंबी कलम की डंडी खोंसी हुई। कमर में एक चांदी कलर का कपड़ा जिस पर स्याह–दानी टिकी है। वह साहूकार है। आज हर तरह के लोग इस उत्सव में सरीक हैं।
रात हो गई है। गलियाँ रोशनी से चौंधिया रही है। आपके रीजेंट स्ट्रीट या ऑक्सफॉर्ड स्ट्रीट जिसने नहीं देखा, उसके लिए यह सचमुच चौंधियाने वाली है। हालांकि आपके क्रिस्टल पैलेस के समकक्ष शायद बस बॉम्बे में हो। पुरूष, स्त्रियाँ और बच्चे रंग–बिरंगे कपड़ों में घूम रहे हैं, जो इस रोशनी में सतरंगी चमक रहे हैं। आज विद्या की देवी सरस्वती की पूजा भी है। व्यापारी आज अपनी बही–खाता फिर से शुरू करते हैं, पहले पन्ने से। पुरोहित ब्राह्मण कुछ मंत्र पढ़ रहे हैं। पूजा समाप्त होते ही अधीर बच्चे पटाखे फोड़ना शुरू कर देते हैं। चूँकि यह एक नियत समय होता है, हर गली के पटाखे एक साथ बजने लगते हैं। जो धार्मिक श्रद्धालु व्यक्ति हैं, वो मंदिर जाते हैं, पर मंदिर में भी आज चमक–दमक ही चारों तरफ है।
अगले दिन, यानी नए वर्ष पर सब एक दूसरे के घर जाते हैं। उस दिन रसोई में आग नहीं जलती, और पिछली रात तैयार किया ठंडा खाना कई घरों में खाते हैं। खाने की कमी नहीं, कितना भी खाओ, खत्म नहीं कर पाएँगें। जो धनी परिवार हैं, वह तरह–तरह के पकवान और सब्जियाँ खरीद कर खाते हैं।
नए वर्ष के दूसरे दिन कुछ शांति होती है। रसोई में आग जलाई जाती है। अब खाना भी हल्का होता है, क्योंकि पिछले दिन गरिष्ठ भोजन था। कुछ शरारती लड़कों के अतिरिक्त अब कोई पटाखे नहीं फोड़ता। अब दिए भी कम जलते हैं। दीवाली अब समाप्त होता है।
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अब समझते हैं कि दीवाली के महीने से भारत के समाज पर क्या प्रभाव पड़ता है। लोग कैसे अनायास ही कितनी आवश्यक चीजें कर लेते हैं? पहली बात कि परिवार के लोग एक खास स्थान पर मिल–जुल लेते हैं। पति पूरे वर्ष भले ही काम की वजह से दूर रहा हो, इस अवसर पर पत्नी से मिलने आ जाता है। पिता अपने बच्चों से मिलने आ जाते हैं। बच्चे जो बाहर पढ़ रहे हैं, वो लौट आते हैं। जिससे जो बन पड़ा, नए कपड़े पहनते हैं। धनी लोग नए गहने बनवाते हैं। यहां तक कि पुराने झगड़े भी भुला दिए जाते हैं।
घरों की साफ–सफाई होती है, रंगाई–पुताई भी। पुराने फर्नीचर चमकाए जाते हैं। पुराने कर्ज भी कई लोग उतार देते हैं। लोग अक्सर एक न एक नए बर्तन जरूर खरीदते हैं। दान–पुण्य होता है। जो लोग धर्म में कम रूचि रखते हैं, वो भी मंदिर जाने लगते हैं, पूजा–पाठ करते हैं।
त्यौहार के समय कोई झगड़ना नहीं चाहता, और गालियाँ नहीं देता, एक बुरी आदत जो खासकर समाज के निचले तबके में व्यापक है। कम शब्दों में कहें, तो यह शांति और उल्लास का समय है।
यह जो आपको अंधविश्वास नजर आता है, उसके अंदर कई निहित गुण छुपे हैं जो एक बेहतर समाज के निर्माण में सहायक हैं।
दीवाली की छुट्टियाँ भारत में एक ही समय होती है, पर मनाने के तरीके अलग हैं, तो मेरा विवरण पूरे भारत के लिए एक नहीं। अब आप इसकी बुराइयाँ निकालेंगें तो निकल ही आएँगें। बुरे गुणों को परे करना और अच्छे गुणों को देखना ही एक स्वस्थ मानसिकता है।
दीवाली के बाद जो बड़ा त्यौहार है, वो है होली। होली आपके ईस्टर के आस–पास के समय में होता है। हिंदू कैलेंडर से फाल्गुण पूर्णिमा के दिन। यह वसंत का समय है। पेड़ों में कोपलें फूट रहे हैं। गरम कपड़े लोगों ने उतार फेंकें। वसंत की सुंदरता मंदिरों में भी नजर आएगी। आप जैसे ही मंदिर में कदम रखेंगें (अभी सिर्फ हिंदू ही प्रवेश कर सकते हैं), आपको फूलों की खूशबू मिलेगी। भक्त ठाकुरजी (भगवान) के लिए सीढ़ीयों पर फूलों की माला गांथ रहे हैं। गुलाब, चमेली, मोगरा। जैसे ही दर्शन के लिए पट खुलेगा, आपको फव्वारे नजर आएँगें। एक अद्भुत् सुगंध। ठाकुरजी हल्के रंग के कपड़ों से आभूषित हैं। फूल–मालाओं में छुपे ठाकुरजी को देखना कठिन हो रहा है। उन्हें झुलाया जा रहा है। झूले में भी हरे सुगंधित पत्ते बिखरे हैं।
मंदिर के बाहर उतनी मर्यादा नहीं। होली के पंद्रह दिन पूर्व अशिष्ट भाषा में बात करते लोग मिल सकते हैं। छोटे गांवों में महिलाएँ कीचड़ में चलती दिखती हैं। उन पर भद्दी टिप्पणियाँ करते लोग। पुरूषों का भी वही हाल होता है। लोगों ने अपने गुट बना रखे हैं। और एक गुट दूसरे गुट से अपशब्दों की प्रतिद्वंद्विता करता है। भद्दे गीतों की। इस द्वंद्व में बस पुरूष हैं, महिलाएँ नहीं।
दरअसल इस महीने में अश्लील बातें करना बुरा नहीं माना जाता। लोग एक दूसरे पर ढेले भी मारते हैं। एक दूसरे पर कीचड़ फेंकते हैं, इसलिए सफेद कपड़े न पहनें। होली के दिन तक तो यह चरम पर पहुँच जाता है। आप घर में हों, या बाहर, अश्लील बातें ही सुनाई देगी। और गलती से किसी दोस्त के घर गए तो पूरे कीचड़ और पानी से नहला दिए जाएँगें।
होली की शाम लकड़ी या गोबर की एक बड़ी ढेर जलायी जाती है। कभी–कभी यह ढेर 24 फीट से भी ऊंची, और लकड़ियाँ मोटी होती है। सात–आठ दिन तक आग जलती रहती है। आखिर लोग इस पर पानी गरम करते हैं, और वही पानी डाल कर इसे बुझा देते हैं।
आपको मैनें पहले बताया होली में अश्लील वातावरण के संबंध में। पर शिक्षा और सतत विकास के बाद इसमें अब बदलाव आ रहा है। अमीर और संभ्रांत लोग होली में अश्लीलता नहीं लाते। कीचड़ के बदले रंग का इस्तेमाल करते हैं। बाल्टी भर पानी के बदले छोटी पिचकारी। नारंगी रंग का पानी सबसे अधिक प्रयोग होता है। यह ‘केसुदा’ फूल के पत्तों से तैयार होता है। कुछ अधिक अमीर गुलाब जल का भी प्रयोग करते हैं। मित्र और परिवारजन मिल कर भोजन वगैरा करते हैं।
दीवाली और होली में एक पवित्र और अश्लील का अलग ही विरोधाभासी संबंध है। दीवाली कई दिनों के व्रत वाले महीने के बाद आता है, तो उस दिन भोजन का अलग ही आनंद होता है। होली इसके ठीक विपरीत खूब खाए–पीए शीतकालीन महीनों के बाद आता है। होली में अश्लील गीत, तो दीवाली में पवित्र मंत्रोच्चार और भजन। दीवाली में ठंडे मोटे कपड़े, तो होली में पतले कपड़े या नंग–धड़ंग लोग। दीवाली साल के सबसे अंधेरे दिनों में, तो होली फाल्गुण की रोशन पूर्णिमा में।
एक में दिए जलाए जाते हैं, और दूसरे में इतनी रोशनी है कि सब बुझा दिए जाते हैं।
क्या कहा गांधी ने, जब भारत के शाकाहार विषय में पूछा गया? Click here to read speech on vegetarianism.
Author Praveen Jha translates speech of Mohandas Karamchand Gandhi about Festivals of India.
Original English transcript in Collected Works (Volume 1)
2 comments
बहुत बढ़िया