किसान खंड 5- सुनो! इंडिया वालों!

Mahendra Tikait Delhi Poster
Mahendra Tikait Delhi Poster
दिल्ली में किसानों को लेकर जाना महेंद्र सिंह टिकैत का चरम बिंदु था। वहाँ राजनीति के संपर्क में आना उनके लिए कुछ हानिकारक भी रहा। लेकिन, वह दिन भी आया जब महेंद्र सिंह टिकैत का विरोध पेरिस पहुँचा। इस आखिरी खंड में उन घटनाओं पर बात

खंड 4 से आगे

पहले खंड पर जाने के लिए क्लिक करें

1
‘यह किसान रैली जो बोट क्लब पर हुई, वह आने वाली कई रैलियों की आहट है। एक आक्रोशित किसान का अर्थ एक आक्रोशित देश होता है।’

  • सी. जंगा रेड्डी (भाजपा सांसद, 1988)

दिल्ली से पश्चिम उत्तर प्रदेश के गाँव अधिक दूर नहीं, लेकिन दिल्ली की चमचमाती सड़कों, मुगल से ब्रिटिश राज की इमारतों, नेताओं की लाल बत्ती गाड़ियों और पाँच सितारा होटलों से देखने पर यह दूरी जैसे हज़ारों मीलों की नज़र आती है। हुकुमदेव नारायण यादव ने एक बार संसद में कहा था कि जब वह पहली बार सांसद बन कर आये तो यहीं की किसी गाड़ी की खिड़की से झाँकते कुत्ते को देख कर लगा कि उसकी ज़िंदगी मुझसे बेहतर रही है। इसे उन्होंने ‘इंडिया’ और भारत का अंतर कहा था।

जब अक्तूबर 1998 में गाँव-देहात के किसान मीलों चल कर मेरठ और ग़ाज़ियाबाद होते हुए दिल्ली के केंद्र में बढ़ रहे थे, तो यह दिल्ली वालों के लिए भी अभूतपूर्व दृश्य था। मैले-कुचले कपड़ों में, पुराने चप्पलों में, पसीने से तर-बतर किसान जब इन सड़कों पर चल रहे थे तो गाड़ियों में सफर कर रहे लोग उन्हें कौतूहल से देखते। वे सोचते कि ये कौन हैं, कहाँ से आए हैं, क्या चाहते हैं? ये महेंद्र सिंह टिकैत के नेतृत्व में चल कर आ रहे किसान थे। उस समय टिकैत को दिल्ली में कम ही लोग जानते थे। 

बोट-क्लब मैदान में पहुँच कर टिकैत अपने दोनों पैर फैला कर बैठे, हुक्का हाथ में लिया, और कहा,

‘सुनो इंडिया वालों! भारत दिल्ली आ गया है!’

यह वही बोट-क्लब मैदान था, जहाँ से इंदिरा गांधी और राजीव गांधी ने कई बार देश को संबोधित किया था। आज वहाँ एक आम किसान मंच पर था। यूँ लग रहा था कि आज इस मंच पर भारत का प्रतिनिधि कुछ कहना चाह रहा है। उस स्थान से देश का संसद और प्रधानमंत्री कार्यालय भी निकट था। वहाँ खबर तो पहुँची थी, मगर हज़ारों किसानों की गूँज पहुँचने में देर थी।

इस बार टिकैत के साथ सिर्फ़ मुज़फ़्फ़रनगर के किसान नहीं थे। मेरठ, बागपत, सहारनपुर, हरियाणा, पंजाब, मध्य प्रदेश, राजस्थान, हर जगह के किसान थे। चौदह राज्यों के किसान महेंद्र सिंह टिकैत की ललकार पर पहुँच चुके थे। 

दिल्ली वालों को समझ नहीं आ रहा था कि आखिर ये हज़ारों किसान अचानक इस शहर में आ क्यों रहे हैं। केंद्र सरकार को भी यह तो मालूम था कि उन्होंने मेरठ में पहले प्रदर्शन किया था। लेकिन, यह तो राज्य सरकार का मसला था। वे दिल्ली से क्या चाहते थे?

टिकैत का इरादा स्पष्ट था। वह जानते थे कि उत्तर प्रदेश सरकार भी दिल्ली के इशारे पर ही चल रही है। अगर राजीव गांधी मान जाएँ, तो नारायण दत्त तिवारी भी मान जाएँगे। दूसरी बड़ी वजह यह थी कि वह राजधानी में किसानों की ताक़त दिखाना चाहते थे। वहाँ तमाम राष्ट्रीय और अंतरराष्ट्रीय मीडिया होती है, जिसमें किसानों के मुद्दे आएँगे, तो उसका बृहत प्रभाव होगा। एक संगठन के रूप में यह भारतीय किसान यूनियन का शक्ति-प्रदर्शन भी था।

यहाँ भी किसान अपने ट्रैक्टर, मवेशी, बोरिया-बिस्तर सभी लेकर आए थे। इसका अर्थ था कि वह जल्दी नहीं हिलने वाले। तमाम हुक्का लिए बैठे ये किसान यूँ भी एक अद्भुत दृश्य बन गए थे। मेरे जैसे लोगों ने पहली बार महेंद्र सिंह टिकैत को टीवी पर उसी समय देखा था, और जैसे वह छवि दिमाग में अंकित हो गयी। किसान नेता तो गाहे-बगाहे दिखते रहते थे, मगर एक किसान को लाखों की भीड़ के सामने मंच पर इस तरह बैठा पहली बार देखा। 

इस बार टिकैत अधिक तैयारी के साथ आए थे। उनकी पैंतीस माँगें थी, जो वह और उनके यूनियन नेता स्पष्ट समझा रहे थे। टिकैत एक कम पढ़े-लिखे व्यक्ति की तरह नहीं, बल्कि एक सहज अर्थशास्त्री की तरह बोल रहे थे।

टिकैत ने कुछ यूँ कहा, ’हर चीज के दाम बढ़ रहे हैं। सिर्फ हम किसानों की फसल उसी पुराने दाम पर चल रही है। आप 1967 को आधार बनाएँ, और जैसे अन्य वस्तुओं के दाम बढ़े हैं, उसी अनुपात में अनाज का दाम बढ़ाएँ। हल निकल जाएगा।’

जब उनसे पूछा गया, ‘किसानों को ऋण तो सरकार दे रही है। फिर क्या समस्या है?’

उन्होंने कहा, ‘मेरी बात सुनो। ऋण तो ऋण है। कर्ज है, जो उसे चुकाना है। आखिर किसान को हर छोटी चीज के लिए ऋण लेने की और ब्याज भरने की जरूरत क्यों आ गयी? आप उसे फसल के सही दाम दीजिए, वह ऋण नहीं लेगा। आप क्या हर साल ऋण लेकर काम करते हैं? फिर किसान क्यों करे?’

जब तीन दिन गुजर गए और किसान अपनी जगह से नहीं हिले, तो दिल्ली पुलिस को आदेश दिए गए। उन्होंने जल-आपूर्ति बंद कर दी, खाने के पैकेट पहुँचने के रास्ते बंद कर दिए। कुछ हास्यास्पद तरीके भी अपनाए गए। जैसे पुलिस ने पाश्चात्य रॉक संगीत भी जोर से लाउडस्पीकर पर बजवाया, जिसे सुन कर मवेशी भड़क जाएँ और भगदड़ मच जाए। लेकिन कहावत है ‘भैंस के आगे बीन बजाए, भैंस करे पघुराय’। इन मवेशियों ने इस रॉक संगीत का आनंद लिया, और अपनी जगह से नहीं हिले। वाकई भारत के समक्ष इंडिया हार रहा था।

टिकैत ने पत्रकारों से कहा, ‘आप यहाँ दो आग की वेदी बनाइए। एक पर राजीव गांधी को बिठाइए। एक पर मैं बैठता हूँ। अभी फ़ैसला हो जाएगा, कौन सच्चा है।’

राजीव गांधी सरकार पहले ही बोफ़ोर्स घोटाले के जाल में फँसी थी, अब यह किसानों की समस्या भी सामने आ गयी। राजीव गांधी ने इसे फौरन सुलझाने और माँगों पर विचार करने के आदेश दे दिए। नारायण दत्त तिवारी ने शर्तें मानने पर हामी भर दी। दिल्ली वाले आइडिया में दम था। जो मेरठ में चालीस दिन, और रजबपुर में 110 दिन के सत्याग्रह में नहीं हासिल हो सका, दिल्ली में सात दिन में हो गया। किसानों ने टिकैत के सम्मान में एक पाँच फ़ीट ऊँचा हुक्का और एक बड़ी हरे रंग की पगड़ी उन्हें तोहफ़े के रूप में दी।

31 अक्तूबर को कांग्रेस ने इंदिरा गांधी की पुण्यतिथि बोट-क्लब में ही आयोजित करने की सोची थी, लेकिन किसान आंदोलन के कारण जगह बदलनी पड़ी। उसके ठीक अगले दिन टिकैत ने धरना समाप्त कर दिया, और किसान वापस गाँव लौटने लगे। यह बोट-क्लब पर ‘हुक्का बनाम हुकूमत’ आज़ाद भारत के इतिहास के सबसे प्रभावशाली किसान आंदोलन रूप में दर्ज हो गया। 

यही महेंद्र सिंह टिकैत का चरम बिंदु भी था, जहाँ से धीरे-धीरे वह कुछ ढलान की ओर बढ़ने लगा। देश में एक किसान आखिर कब तक सियासत, धर्म, जाति से परे अपनी जगह बना सकता है? जब तक टिकैत गाँव में थे, तो उन पर गिद्ध-दृष्टियाँ कम थी। दिल्ली पहुँचते ही उनका कद अब कुछ लोगों को चुभने लगा था।

 

2

कृषि एक व्यवसाय ही नहीं, एक समाज है। बल्कि यह दुनिया की सबसे पुरानी सामाजिक संरचना है।

इस समाज में कुरीतियाँ भी गहरी होती हैं। ‘बाबा टिकैत’ को न सिर्फ़ हुकूमत, बल्कि अपने उस समाज से भी लड़ाई लड़नी थी। प्रसिद्ध बिरहा गायक हीरालाल यादव जब दहेज-हत्याओं पर बिरहा गाते, तो किसानों का कलेजा फट जाता। वे इस कुरीति से मुक्ति चाहते थे। मगर यह मुक्ति लाता कौन?

सिसौली की पंचायत में बाबा टिकैत ने समझाया, ’हम किसान हैं। हम कोई नेता या रईस नहीं, जो बेटियों की शादी में लाखों उड़ा दें। हमें अपनी जमीन बेचनी पड़ती है। हम जमीन बेच देंगे, तो खाएँगे क्या? जरा सोचो! हम शपथ लेते हैं कि हमारे पंचायत में एक भी घर कभी दहेज नहीं लगा। न ही कोई शादी में ज्यादा खर्च करेगा। दुल्हन ही दहेज है!’

बाबा का यह कहना था, और गाँव के गाँव ने दहेज त्याग दिए। एक बरसों से चली आ रही कुरीति एक झटके में खत्म कर दी गयी। इतना ही नहीं मेरठ से मुज़फ़्फ़रनगर की बसों में यह नारा छप गया-

‘दुल्हन ही दहेज है’

दूसरी महत्वपूर्ण बात थी कि उनके पंचायत में हिन्दू और मुसलमान मिल कर रहते थे। अक्सर उनके सरपंच ऐनुद्दीन ही पंचायत का नेतृत्व करते। मंच संचालन के लिए गुलाम मोहम्मद जौला रहते। दोनों का टिकैत से घनिष्ठ संबंध था। यही कारण था कि उनके आंदोलनों में मुसलमान बढ़-चढ़ कर हिस्सा लेता। पश्चिम उत्तर प्रदेश में यह समीकरण बना कर रखना जरूरी भी था, अन्यथा हमने इसके दुखद परिणाम भी देखे हैं जब वही मुज़फ़्फ़रनगर दंगों की आग में जल उठा था। महेंद्र सिंह टिकैत ने मुसलमानों की समस्या भी उसी तरह उठायी, जैसे हिन्दुओं की। 

2 मई 1989 को सिकरी गाँव से एक नईमा नामक युवती को गुंडों ने उठा लिया। यह मुज़फ़्फ़रनगर के भोपा पुलिस थाने में आता था। दो महीने तक नईमा की माँ उस पुलिस थाने जा कर अर्ज़ी लगाती रही, लेकिन पुलिस कुछ कारवाई नहीं कर रही थी। उसके बाद वह चौधरी के पंचायत में गुहार लेकर गयी। 

17 जुलाई 1989 को चौधरी ने पंचायत में विमर्श किया, और फ़ैसला यह हुआ कि जब तक नईमा मिल नहीं जाती, वे भोपा पुलिस थाने का घेराव करेंगे। 2 अगस्त को हज़ारों किसान भोपा पुलिस थाने पहुँच गए। 

महेंद्र सिंह टिकैत ने कहा, ‘एक बात ध्यान रहे। यहाँ हम नईमा को लाने आए हैं। अपनी बात करने नहीं। हमें भटकना नहीं है।’

सभी यह सुन कर एक सुर में चिल्लाए, “नईमा बहन को लाओ!”

पुलिस ने उग्र भीड़ को देखते हुए लाठीचार्ज कर दिया, और फिर गोली भी चला दी। दो किसानों की तत्काल मृत्यु हुई गयी। इतना ही नहीं, गाँव वालों के ट्रैक्टर नाले में धकेल दिए गए।

टिकैत ने कहा, ‘वे हमें भड़का रहे हैं। मगर हम शांति से अपनी माँग रखेंगे। हमें जान की परवाह नहीं, हमारी बेटी नईमा को लाओ!’

10 अगस्त को पुलिस को नईमा की लाश मिल गयी। उस लाश को भारतीय किसान यूनीयन के झंडे में लपेटा गया, और किसानों ने मिल कर दफ़नाया।

प्रत्यक्षदर्शियों के अनुसार यह ग़ज़ब का मंजर था, जब किसान कभी ‘अल्लाह-हो-अकबर’, कभी ‘हर हर महादेव’ तो कभी ‘नईमा बहन अमर रहे’ का नारा लगा रहे थे।

इस घटना के बाद यह आंदोलन और तेज हो गया, और नईमा को इंसाफ़ दिलाने के लिए सरकार से माँग की गयी। 26 अगस्त को टिकैत ने कहा, ‘जब तक सरकार हमारे साथ इंसाफ़ नहीं करती, मैं थाली में खाना नहीं खाऊँगा।’

आख़िर दो मंत्रियों हुकुम सिंह और नरेंद्र सिंह को भेजा गया। उन्होंने किसानों की माँगें मानने की पेशकश रखी, और नईमा की माँ को तीन लाख रुपए देने का वादा किया। आख़िर 39 दिन चला यह आंदोलन ख़त्म हुआ। 

इस आंदोलन के बाद सितंबर में एक अंतर-राज्यीय किसान सम्मेलन हुआ। वहाँ टिकैत निमंत्रित थे, लेकिन जब वहाँ का माहौल देखा, तो वह भड़क गए। वहाँ खूब ताम-झाम और विशाल मंच के साथ सम्मेलन की तैयारी थी। यह शेतकारी संगठन के बड़े नेता शरद जोशी का इंतजाम था। 

टिकैत ने कहा, ’इतना खर्च कर मंच बनाने की क्या जरूरत थी? आप लोग यहाँ राजनीति करने आते हैं। मैं इस मंच पर नहीं बैठूँगा’

इस प्रकरण के बाद महेंद्र सिंह टिकैत ने पहली ग़लती की। वह अब तक राजनीति से दूर रहे थे, लेकिन विश्वनाथ प्रताप सिंह के जनता दल से उनका लगाव था। 

उत्तर प्रदेश में चुनाव थे, तो उन्होंने पंचायत में कह दिया, ‘अपने प्रदेश में जनता दल को जिताना होगा। कांग्रेस ने हमारी नहीं सुनी, अब उनको हटाना होगा।’

यह बात गाँव के हर तबके को नहीं छू सकी। राजनीति आते ही मतभेद शुरू हो जाते हैं। हालाँकि टिकैत की अपील के मुताबिक जनता दल को ही वोट मिले, और उनकी ही सरकार बनी। लेकिन प्रदेश के नए मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव अब स्वयं किसानों के मसीहा बनना चाहते थे। उनके पास जनता और ख़ास कर अहीर वर्ग की ताक़त थी। लेकिन, टिकैत इतनी जल्दी झुकने वाले नहीं थे।

 

3

जनता दल ने वादा किया था कि सरकार में आने के बाद किसानों की माँगों पर ध्यान देगी, लेकिन सरकार बनते ही वे सभी माँगें ताक पर रख दी गयी। 15 जुलाई 1990 को महेंद्र सिंह टिकैत ने लखनऊ में महापंचायत की घोषणा कर दी। हज़ारों किसान लखनऊ पहुँच गए। इतने वर्षों में पहली बार किसानों की महापंचायत लखनऊ पहुँची थी। वह इस स्वप्न के साथ पहुँची थी कि मुलायम सिंह उनकी बात सुनेंगे। आखिर वह भी तो किसान परिवार से थे। 

मगर मुलायम सिंह यादव अलग ही रौब में थे। उन्होंने अयोध्या में शंकराचार्य को गिरफ़्तार किया था। उन्हें लगा यह टिकैत क्या चीज हैं। उन्होंने महेंद्र सिंह टिकैत और तमाम किसानों को गिरफ़्तार कर जेल में डाल दिया। दो किसानों की मृत्यु भी हुई। लेकिन, उन्हें जल्द अहसास हो गया कि टिकैत वह हैं, जो शंकराचार्य नहीं। वह उसी मिट्टी से उठ कर आए हैं, जिसमें मुलायम सिंह बचपन में लोटा करते थे। 

मुलायम सिंह को यह पैंतरा भारी पड़ा। उनकी सरकार बिखरने लगी। 

अजित सिंह ने कहा, ‘बिना टिकैत के हम पश्चिम उत्तर प्रदेश में नहीं टिक सकते’

अजित सिंह के समर्थन में 66 विधायक थे, जो टिकैत के लिए सरकार छोड़ने को तैयार थे। आख़िर टिकैत को रिहा करना पड़ा। महेंद्र सिंह टिकैत जैसा कोई विरला ही होगा जो कैदखाने भी जाए तो समाज-सुधारक की भूमिका निभाए। 

महेंद्र सिंह टिकैत ने जेल से निकल कर कहा, ’इस फ़तेहपुर जेल में 35 साल से सजा काट रहे लोग हैं। इस जेल जैसा अन्याय ज़िंदगी में पहली बार देखा। इन्हें रोज मारने से अच्छा है कि पाँच साल से ऊपर सजा काट रहे को कैदियों को सरकार रिहा कर दे या फाँसी दे दे। वे इस नारकीय तकलीफ़ से मुक्त हो जाएँगे। उन्हें रिहा कर सरकार हमें दे दे तो हम उनसे राज्य चलवा सकते हैं। पाँच साल की सजा किसी को सुधारने के लिए अच्छा समय होता है। एक चंबल का डाकू देशराज चौदह साल से जेल में बंद है। सरकार ने आत्मसमर्पण की शर्तें तोड़ दी, जो उसके साथ विश्वासघात है। ऐसे में जो चंबल घाटी में है, वे कैसे विश्वास करेंगे?’

जेल के पुलिस के विषय में उन्होंने कहा, ‘इस जेल के पुलिस को महीने में 900 रुपए वेतन मिलता है। इतने में तो घर का नौकर नहीं मिलता। इन्हें बाकी पुलिस की समान वेतन श्रेणी में रखना चाहिए’

जेल से छूटने के बाद महेंद्र सिंह टिकैत ने दूसरी गलती की। 

उन्होंने प्रधानमंत्री चंद्रशेखर, उप प्रधानमंत्री देवी लाल और मुख्यमंत्री मुलायम सिंह यादव को सिसौली पंचायत में आमंत्रित किया। इस घटना का किसानों के गुटों ने विरोध किया। चौधरी चरण सिंह के बेटे अजित सिंह भी इस आग में घी डाल रहे थे। उन्होंने टिकैत पर राजनैतिक दलों की चमचागिरी करने का आरोप लगाया। 

टिकैत ने इस आरोप के जवाब में कहा, ‘हम किसी नेता की नहीं सुनते। हम किसानों की सुनते हैं। अगली पंचायत मुलायम सिंह के घर इटावा में बैठेगी।’

लेकिन, अजीत सिंह की बात पूरी तरह ग़लत नहीं थी। महेंद्र सिंह टिकैत का उपयोग अब तमाम नेता कर रहे थे। भाजपा ने जनता दल सरकार से समर्थन खींच लिया, और चुनाव की घोषणा हुई। कल्याण सिंह टिकैत से समर्थन माँगने पहुँचे। कांग्रेस और जनता दल से मोह-भंग के बाद उन्होंने भाजपा के कंधे पर अपना हाथ रख दिया। उनकी मंशा अब भी वही थी कि नयी सरकार किसानों का भला करे। मगर भाजपा के लिए वोट की अपील ने मुसलमान किसानों को नाराज़ कर दिया। जाटों और मुसलमानों के रिश्तों में दरार आने लगी। वे टिकैत का आदर करते थे, मगर भाजपा पर उन्हें भरोसा नहीं था। 

वह राम मंदिर आंदोलन का वक्त था, और कल्याण सिंह की सरकार बनते ही अगले वर्ष बाबरी मस्जिद गिरा दी गयी। यह आग तो पूरे देश को जला गयी, मुज़फ़्फ़रनगर क्या बच पाता? 

किसान फिर से धर्म और जाति के फाँक में बँटते चले गए। महेंद्र सिंह टिकैत की पंचायत में उन्हें सुनने वाले घटते चले गए। भाजपा ने भी उनका चुनाव में उपयोग कर किनारे कर दिया। जब 1992 में वह पुनः लखनऊ में आंदोलन करने गए, तो कल्याण सिंह ने ही उन्हें गिरफ़्तार कराया। टिकैत अब कुछ टूटने लगे थे। उन्हें किसी पर भरोसा नहीं रहा। 

1996 में अजीत सिंह उनके पास आए, और कहा कि वह अपनी पार्टी बना रहे हैं- किसान कामगार पार्टी। वह भारतीय किसान यूनियन का समर्थन चाहते थे। टिकैत ने हामी तो भर दी, मगर अजीत सिंह की पार्टी चुनाव में फिसड्डी साबित हुई। ऐसा पहली बार हुआ कि महेंद्र सिंह टिकैत के समर्थन के बावजूद पार्टी चुनाव हार गयी हो। चुनाव तो हारी ही, यह पार्टी भी खत्म हो गयी।

 

4

‘डंकल समझौता ईस्ट इंडिया कंपनी जैसी है। भारत को इस अंतरराष्ट्रीय व्यापार संगठन से खुद को अलग कर लेना चाहिए। हम किसानों की आज़ादी कायम रहे, यही हम चाहते हैं।’

  • महेंद्र सिंह टिकैत (कृषि के वैश्वीकरण के विरोध में)

भारत के हर क्षेत्र में विदेशी हाथ डालने लगे थे, मगर कृषि एक स्वदेशी व्यवसाय माना जाता। 31 जनवरी, 1993 को बेंगलुरू की बीज कंपनी ‘कारगिल’ के दफ़्तर पर किसानों ने आंदोलन किया। इस आंदोलन में टिकैत अपने किसानों के साथ पहुँचे थे। उनके साथ कर्नाटक के लाखों किसान भी थे। अगली रैली मार्च के महीने में दिल्ली के लाल किले में आयोजित हुई। 

उन दिनों GATT (जनरल एग्रीमेंट ऑन टैरिफ़ ऐन्ड ट्रेड) के अध्यक्ष आर्थर डंकल ने कुछ प्रस्ताव रखे थे, जिसके अंतर्गत बीजों के पेटेंट की बात हुई थी। इसके साथ ही एक विश्व व्यापार संगठन (WTO) बनाने का प्रस्ताव था।किसानों के लिए ये प्रस्ताव घबराहट ला रहे थे। उनका मानना था कि विदेशी कंपनियों को भारतीय कृषि में नहीं प्रवेश करने देना चाहिए। वे भारत को इस संगठन से जुड़ने का विरोध कर रहे थे। हालांकि पंजाब के भूपिंदर सिंह मान और महाराष्ट्र के शरद जोशी जैसे नेता डंकल प्रस्ताव के समर्थन में थे। उनके राज्यों में पहले से कृषि की संरचना इस तरह बनी थी, कि उनके लिए वैश्वीकरण फायदेमंद था। उत्तर प्रदेश के छोटे किसानों के सामने मूलभूत समस्यायें ही ऐसी थी कि उन्हें इस पेटेंट और गुणवत्ता के मानकों के कारण हानि का अंदेशा था। बीजों के दाम बढ़ने की संभावना भी थी।

सरकार भी इस पूरे मामले में किसानों को स्पष्टता नहीं दे रही थी। सिर्फ भारत ही नहीं, पूरी दुनिया के विकासशील देश इसका विरोध कर रहे थे। लेकिन, विश्व व्यापार संगठन बना और भारत ने 1995 में इसकी सदस्यता ली। महेंद्र सिंह टिकैत और अन्य किसान नेता अब इस विरोध को अंतरराष्ट्रीय मंचों पर ले जाना चाहते थे। कभी मेरठ में हुक्का लेकर धरना वाले टिकैत अब पेरिस में अपनी बात रखना चाहते थे।

1999 में चार सौ किसानों का एक प्रतिनिधिमंडल यूरोप जाने के लिए तैयार था। इसका नेतृत्व महेंद्र सिंह टिकैत, एन डी नंजुंदास्वामी (कर्नाटक) और विजय जवंधिया (महाराष्ट्र) कर रहे थे। 

महेंद्र सिंह टिकैत अपने धोती-कुर्ता और चप्पल में ही यूरोप पहुँच गए। यह कारवाँ यूरोप के भिन्न-भिन्न देशों में प्रदर्शन करने वाला था। इनकी भाषा भले ही यूरोपीय नहीं समझते, न ही दुनिया भर से आए अन्य किसानों की भाषा ये ही समझ पाते। मगर इन सब किसानों की एक भाषा ऐसी थी, जो ये समझते थे। यह मिट्टी की भाषा थी। 

टिकैत ने पहुँचते ही जर्मनी के स्टुटगार्ट में एक जेनेटिक बीज बनाने वाली कंपनी के मुख्यालय पर प्रदर्शन किया। रोम के फूड ऐन्ड एग्रीकल्चर ऑर्गेनाइज़ेशन के मुख्यालय पर प्रदर्शन किया। इटली के ही मैस्तरे शहर के स्टेडियम में सभा की। 2 जून को मिलान (इटली) में प्रदर्शन किया और अगले ही दिन स्टॉक एक्सचेंज पर भी प्रदर्शन किया। उसके बाद उन्होंने पेरिस के एफिल टावर पर भी प्रदर्शन किया। 

स्टॉक एक्सचेंज के सामने प्रदर्शन में टिकैत ने कहा, ’यह इमारत किसानों के शोषण से खड़ी हुई है’

यूरोप से लौट कर महेंद्र सिंह टिकैत फिर से अपने सिसौली गाँव पहुँच गए। अगले वर्ष वह किसानों की माँग लेकर लखनऊ जा रहे थे, जब उन्हें मुरादाबाद में गिरफ़्तार कर लिया गया। इतने वर्षों के आंदोलनों के बाद अब टिकैत थक गए थे। उनके बेटे राकेश टिकैत और नरेश टिकैत साथ जरूर थे, लेकिन उनको वह जन-समर्थन नहीं मिल पा रहा था, जो स्वयं महेंद्र सिंह को मिला था। राकेश टिकैत ने ही उन्हें अनुरोध किया कि वह एक राजनीतिक दल खड़ा कर चुनाव लड़ना चाहते हैं। 2004 में भारतीय किसान दल ने चुनाव लड़ा ज़रूर, लेकिन नौ के नौ प्रत्याशियों की जमानत जब्त हो गयी। राकेश टिकैत 2007 में फिर से चुनाव लड़े, मगर वहाँ भी जमानत जब्त हुई। 

बाबा टिकैत का समय अब खत्म हो रहा था। उसी दौरान उनके जीवन का सबसे शर्मिंदगी भरा वक्त भी आया। 2008 में बिजनौर में उन्होंने मुख्यमंत्री मायावती के विषय में जातिसूचक टिप्पणी कर दी। इसके कारण अनुसूचित जाति-जनजाति ऐक्ट के तहत उन्हें जेल जाना पड़ा। यह घटना उन्हें अंदर से तोड़ गयी। उन्होंने अपनी ग़लती की सामूहिक माफ़ी माँगी, और किसान नेतृत्व से अनौपचारिक संन्यास ले लिया। 

15 मई 2011 को महेंद्र सिंह टिकैत ने अपने गाँव सिसौली में ही प्राण त्याग दिए। वह हड्डी के कैंसर से पीड़ित थे। हज़ारों की भीड़ उन्हें अंतिम श्रद्धांजलि देने पहुँची। प्रधानमंत्री और राष्ट्रपति ने शोक संदेश दिए। किसानों को पीठ सीधी कराने वाले नेता जा चुका था।  उनके संगठन के सिर्फ़ पश्चिम उत्तर प्रदेश में ही बीस खंड हो चुके थे। 

उनकी मृत्यु के दो वर्ष बाद उनके जिले ने दशकों में सबसे भयावह दंगे देखे, जब वोटों की राजनीति में जाट और मुसलमान पिस गए। चुनाव विश्लेषक ने इसे ध्रुवीकरण का पैंतरा बताया। कई लोग बाबा टिकैत को भी याद कर रहे थे कि अगर वह होते तो शायद ऐसा मंजर न होता। यह कहना कठिन है क्योंकि राजनीति तो पहले ही महेंद्र सिंह टिकैत और किसानों को कमजोर कर चुकी थी। किसान पहले ही बँट चुके थे। देश भी राजनीतिक खेमों में बँटता चला गया। 

जनवरी 2021 गाजीपुर में आंदोलन के दौरान जब राकेश टिकैत टेलीविजन पर रो पड़े, तो हज़ारों किसान एक बार फिर हरा झंडा लिए, हरी पगड़ी पहने चल पड़े। आज के तकनीकी संचार युग में आंदोलन के बहुकोणीय विश्लेषण भी होते हैं, राजनैतिक टकराव भी। मगर आज भी किसानों को एक संगठन की दरकार है।

एक ऐसा संगठन, जो किसानों के मुद्दे पर सरकार से सीधे संवाद करे। एक ऐसा संगठन, जो अराजनैतिक हो, और किसानों के हित में हो। एक ऐसा संगठन, जो वैश्विक शक्तियों के सामने भी अपनी बात रखते हुए न घबराए। एक ऐसा संगठन, जो किसानों को एक समाज के रूप में देखे, उनकी भाषा बोले, उनके जीवन से जुड़े। एक ऐसा संगठन, जिसके सामने दमनकारी घुटने टेक दें। एक ऐसा संगठन, जो किसी भी अग्निपरीक्षा में खरा उतरे। एक ऐसा संगठन, जिसका स्वप्न कभी महेंद्र सिंह टिकैत ने देखा था।

In last part of series on Mahendra Singh Tikait, author Praveen Jha describes his protest journey from Delhi to Paris. 

Click here for books by Praveen Jha

1 comment
Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

You May Also Like
Sigmund Freud
Read More

सिग्मंड फ्रॉय्ड के घर में क्या था?

मनुष्य के दिमाग को समझने में सिग्मंड फ्रॉय्ड का नाम एक मील के पत्थर की तरह है। वियना के उनके घर और क्लिनिक में जाकर इस अनूठे मनोविश्लेषक के दिमाग को समझने की एक छोटी सी कोशिश
Read More
Vegetarian Gandhi Lecture
Read More

क्या शाकाहारी भोजन बेहतर है? – गांधी

गांधी ने लंदन में विद्यार्थी जीवन में भारतीय आहार पर भाषण दिया। इसमें सरल भाषा में भारत के अनाज और फल विदेशियों को समझाया। साथ-साथ भोजन बनाने की विधि भी।
Read More
Read More

वास्को डी गामा – खंड 1: आख़िरी क्रूसेड

यूरोप के लिए भारत का समुद्री रास्ता ढूँढना एक ऐसी पहेली थी जिसे सुलझाते-सुलझाते उन्होंने बहुत कुछ पाया। ऐसे सूत्र जो वे ढूँढने निकले भी नहीं थे। हालाँकि यह भारत की खोज नहीं थी। भारत से तो वे पहले ही परिचित थे। ये तो उस मार्ग की खोज थी जिससे उनका भविष्य बनने वाला था। यह शृंखला उसी सुपरिचित इतिहास से गुजरती है। इसके पहले खंड में बात होती है आख़िरी क्रूसेड की।
Read More