सभी क्रांतिकारी बैठ कर मज़ाक कर रहे थे कि कौन कैसे पकड़ा जाएगा।
‘यह राजगुरु तो पक्का सोते हुए ही पकड़ा जाएगा। यह तो चलते हुए भी झपकी लेता है’
’और यह बटुकेश्वर! यह तो चाँद निहारते हुए पकड़ा जाएगा, और पकड़े जाने के बाद पुलिस से कहेगा– देखो! चाँद कितना ख़ूबसूरत है’
‘भगत (सिंह) और सुखदेव थिएटर देखते पकड़े जाएँगे और पुलिस को कहेंगे– भाई! खेल तो पूरी कर लेने दो’ (ठहाके)
’पंडित जी (चंद्रशेखर आज़ाद) बुंदेलखंड के किसी जंगल में शिकार करते धरे जाएँगे’
भगत ने कहा, ‘पंडित जी को तो दो रस्सियाँ लगेगी। एक कमर के लिए, एक पेट के लिए’ (ठहाके)
आज़ाद ने कहा, ‘मसखरों! मुझे कोई रस्सा–भस्सा नहीं चाहिए। जब तक मेरे पास यह बम्तुल बुख़ारा (रिवॉल्वर दिखाते हुए) है, मैं कभी पकड़ा नहीं जाऊँगा। भले मार दिया जाऊँ।’
- ‘अग्निपुंजः क्रांतिकारी शहीद चंद्रशेखर आज़ाद की जीवनकथा’ में एक संस्मरण में
इस पुस्तक की विशेषता यह है कि इसे उन लोगों ने लिखा है जो चंद्रशेखर आज़ाद के क़रीबी या परिचित थे। इनमें से कुछ उनके साथ क्रांतिकारी की तरह रहे। इस पुस्तक के एक लेखक ने लाहौर केस के गवाह बने फणींद्र घोष पर जलगाँव सेशन कोर्ट में गोली चलायी थी। वह पिस्तौल आज़ाद ने ही भिजवायी थी।
मैंने आज़ाद पर पहले भी टुकड़ों में, चित्रकथाओं में, और अंग्रेज़ी की किताबों में पढ़ा है। किसी कारणवश ‘अग्निपुंज’ पर नज़र नहीं गयी थी। हालाँकि मुझे लगता है कि इनमें से कुछ हिस्से पढ़ चुका हूँ, और यह संभवतः नए नाम से पुनर्मुद्रित हुई है। पहले जो किताब देखी थी, वह ऐसी ही थी, मगर उसका नाम अग्निपुंज था, यह याद नहीं आता।
इस पुस्तक के संपादक सुधीर विद्यार्थी हैं, जो क्रांतिकारियों पर पुस्तक लिखने में मशहूर नाम हैं। इसके लेखक कई लोग हैं, जैसे– भगवानदास माहौर, शिव वर्मा, भवानी सिंह रावत, मन्मथनाथ गुप्त, दुर्गा भाभी, रामकृष्ण खत्री, काशीराम, सदाशिवराव मलकापुरकर, शचींद्रनाथ बख्शी, राजाराम शास्त्री, श्रीदेवी मुसद्दी, मनोहरलाल त्रिवेदी और यशपाल।
इसे किसी इतिहासकार ने नहीं लिखा, इससे कम से कम यह आरोप तो ख़ारिज हो जाता है कि मनमर्जी इतिहास दबाया गया या तोड़ा–मरोड़ा गया। हिंदी के जाने–माने प्रकाशक राजकमल प्रकाशन की किताब है। हमने न पढ़ी हो, यह और बात है। लेकिन प्राथमिक स्रोत बहुत मज़बूती से काग़ज़ पर दर्ज़ हैं।
पुस्तक में आज़ादी की बाद की कांग्रेस सरकार पर यह आरोप है कि क्रांतिकारियों को तवज्जो कम मिली। गांधी की ‘बम के गिरोह’ (The cult of bomb) के उत्तर में भगवतीचरण वोहरा द्वारा ‘बम का दर्शन’ (Philosophy of Bomb) लिखने की चर्चा है। वहीं यह भी वर्णित है कि स्वयं आज़ाद को ‘आज़ाद’ नाम गांधी के असहयोग आंदोलन के समय ही दिया गया। वह उनसे प्रेरित होकर आंदोलन से जुड़े। भले मार्ग भिन्न थे, किंतु लक्ष्य एक था। बम का गिरोह और बम का दर्शन बौद्धिक विमर्श थे, उनमें सोशल मीडिया की भाषा में हल्की बातें नहीं थी।
किताब में वामपंथी इतिहासकारों पर यह आरोप है कि हिंदुस्तान समाजवादी लोकतांत्रिक सेना (HSRA) से जुड़े होने के बावजूद आज़ाद पर उन्होंने कम लिखा। इसके पीछे उनका ब्राह्मण होना एक वजह बतायी गयी। वहीं दक्षिणपंथी खेमे भी यदा–कदा ‘जनेऊधारी’ तस्वीर उछालते रहते हैं। इस कारण किताबें पढ़नी चाहिए। फिर आपको कोई भी खेमा बहला–फुसला नहीं सकता।
इस पुस्तक में यह सब स्पष्ट लिखा है कि आज़ाद का संस्कृत और पंडिताई से सरोकार न के बराबर था। यहाँ तक कि आधे–अधूरे श्लोक कौन से याद थे, यह भी लिखा है। वह जातिवादी खेमे में कभी डाले ही नहीं जा सकते। इसकी एक और वजह किताब में मौजूद है, मगर सब कुछ बता ही दिया, तो रहस्य क्या रहा?
एक संस्मरण में चंद्रशेखर आज़ाद को भगत सिंह के बनिस्बत कम पढ़ा–लिखा किंतु बेहतर रणनीतिकार लिखा गया है। भगत सिंह को बौद्धिक नेता और चंद्रशेखर आज़ाद को कार्यान्वयन नेता संबोधित किया है। इसका एक उदाहरण लिखा है कि जब भगत सिंह पकड़े गए, तो अखबारों में ख़बर छपी– ‘भगत सिंह अप्रूवर बन गया है, और सभी के ठिकाने बता दिए हैं’।
जब आज़ाद ने सभी को अंडरग्राउंड होने के आदेश दिए तो लोगों ने कहा– ‘भगत ऐसा कतई नहीं कर सकता’
उन्होंने समझाया – ‘मुझे शंका नहीं, लेकिन यही हमारा काम करने का ढंग होना चाहिए। अप्रूवर भगत न सही, कोई और तो हो सकता है। इसमें भावनात्मक न हों’
वाकई पुलिस झाँसी पहुँच गयी। आज़ाद खुद साइकल पर मुआयना करने गए तो वहाँ पुलिस के साथ फणींद्र घोष दिख गए। भगत सिंह न सही, फणींद्र सरकारी गवाह बन गए थे!
कुछ यौवन के अंतरंग क्षण भी संस्मरणों में हैं। जैसे युवतियों से आकर्षण के विषय में आज़ाद का एक क़िस्सा। भगत सिंह का मज़ाक– ‘लगता है पंडित जी ने वहाँ कोई डॉल फँसा रक्खी है’। हॉस्टल के लड़कों का भूत बन कर आज़ाद को डराना, और उल्टे भूतों का खदेड़ा जाना।
पुस्तक में कोई कमी तो नहीं है। लेकिन एक स्वाभाविक बात तो है ही कि इसे मंजे हुए लेखकों ने नहीं, बल्कि वास्तविक क्रांतिकारियों ने लिखा है। संपादक सुधीर विद्यार्थी ने उसे आकार दिया होगा। कुछ चीजें जो स्कूलों में कई बार पढ़ चुके होंगे, जैसे जन्मस्थान, शिक्षा–दीक्षा, जीवन का किताबी ख़ाका, वहाँ दोहराव लगेगा। ऐसे लोगों को बुंदेलखंड मोटर कंपनी के संस्मरणों से गुजरने में अधिक आनंद आएगा।
अल्फ्रेड पार्क में पुलिस से एकाकी लड़ाई को कोई लेखक फ़िल्मी अंदाज़ में लिख सकता था, जिससे वेबसीरीज बन जाए। मगर यह कोई कमी नहीं कही जाएगी। जब पूरी बात सामने है तो उसे नाटकीयता देना कठिन नहीं। यह किताब मैंने स्टोरीटेल पर सुनी जहाँ नाटकीय अंदाज़ में ख़ूबसूरती से संवाद कहे गए हैं। यह प्रिंट में तो खैर पहले से है। पढ़ें और पढ़ाएँ।
Author Praveen Jha discusses his experience about book Agnipunj- A biography of Chandrashekhar Azad based on memoirs of revolutionaries. This book is published by Rajkamal Prakashan.
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