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नीम का पेड़

आधा गाँव’ देश के विभाजन और ज़मींदारी प्रथा की समाप्ति के समय की कहानी है। कटरा बी आरज़ू देश में आपातकाल लगने के समय की कथा है। जबकि नीम का पेड़ इन दोनों काल-खंडों से गुजरते हुए समाजवाद के उदय की कथा है, जब एक दलित उठ कर संसद में पहुँच जाता है।
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जूठन

इसमें बदलते भारत को भी दिखाया गया है। जिस ठाकुर ने उन्हें बचपन में प्रताड़ित किया, उन्हीं का परिवार उनके साथ उठने-बैठने भी लगता है। समाज में जैसे आर्थिक या राजनैतिक परिस्थिति बदली, वर्ग-भेद घटता गया। कम से कम एक कछुए की तरह इस भेद-भाव ने अपनी गर्दन ज़रूर अंदर छुपा ली।
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चित्रलेखा

जो कथा का क्लाइमैक्स है, वह अकीरो कुरोसावा की फ़िल्म ‘राशोमोन’ की याद दिलाती है, जहाँ एक ही घटना को भिन्न-भिन्न पात्र अलग नज़रिए से देखते हैं। आप क्या देख रहे हैं, यह उस पर निर्भर है कि आप कहाँ खड़े हैं।
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वैशाली की नगरवधू

इस किताब को एक इतिहास मान लेना भी भूल होगी। इसमें तीन चौथाई से अधिक हिस्सा लेखक की कल्पना है। कुछ अंश तो आधुनिक विज्ञान के हिसाब से सीधे नकारे भी जा सकते हैं।
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राग पहाड़ी

यह कथा दिखती आधुनिक है, लेकिन इतिहास के झरोखों से उठायी गयी है। उन्नीसवीं सदी से। इसे पढ़ कर लगेगा कि समाज कहीं पहले से संकीर्ण तो नहीं होता जा रहा? क्या इस कथा की नायिका अथवा उस खाँचे के प्रेम आज संभव हैं?
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Khamosh Adalat Zaaree Hai
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भ्रूण हत्या सही या ग़लत? – ख़ामोश! अदालत जारी है

विजय तेंदुलकर अपने समय से कहीं आगे देखने की क्षमता रखते थे। तभी उन्होंने साठ के दशक में वह मुद्दा उठा दिया जिससे पश्चिम के विकसित देश भी आज तक जूझ रहे हैं। गर्भपात कानून पर आम सहमति नहीं बन पा रही।
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Nehru Mithak Satya Piyush Babele
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नेहरू मिथक और सत्य – पीयूष बबेले

एक आलोचना यह रहेगी कि जब आप किसी मरीज को कोई दवा दें, तो यह न कहें कि इस दवा में जादू है। इससे बेहतर दवा नहीं। यह अचूक है। बल्कि यह कहें कि इस दवा की यह हानियाँ हो सकती है, ये कमियाँ है, यह सौ प्रतिशत काम नहीं करती। ऐसे में मरीज को अधिक विश्वास होता है। लेखक कुछ स्थानों पर नेहरु को महामानव सिद्ध करने से बच सकते थे।
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Nadi Putra Ramashankar Singh
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सबका बेड़ा पार कराने वाले मल्लाहों का जीवन कैसा?

लेखक के अनुसार निषाद उत्तर प्रदेश के लगभग 25 प्रतिशत सीटों का भविष्य तय करते हैं। वहीं दूसरी तरफ़ एक पेशे के रूप में मछली मारना या केवट बनना घट रहा है। गैंगस्टर पूँजीवाद, माफ़िया खनन और कॉरपोरेट क्रूज़ चलने से निषादों के हाथ कुछ नहीं आ रहा।
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आलोचना का स्त्री पक्ष – सुजाता

पुरुषों के पढ़ने का तर्क मेरी नज़र में तो यही है कि किताबों के अंबार लगाने वाले पुरुषों की भी स्त्रीवाद पर कितनी समझ है? यह तो ऐसा क्षेत्र है जहाँ शंकराचार्य से सिगमंड फ्रायड तक उलझ गए।
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