वैशाली की नगरवधू
इस किताब को एक इतिहास मान लेना भी भूल होगी। इसमें तीन चौथाई से अधिक हिस्सा लेखक की कल्पना है। कुछ अंश तो आधुनिक विज्ञान के हिसाब से सीधे नकारे भी जा सकते हैं।
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किताबों की समीक्षा का ढर्रा बदल रहा है। अब दो पंक्तियों में भी पुस्तक की बात हो जाती है। मसालेदार और विवादित समीक्षाएँ भी दिखती है। धीर-गंभीर भी। उन सभी का लक्ष्य है किताबों की बातें करना। यह अच्छा हो कि उसका कोई फॉर्मैट न हो। लोग किताबों पर सहजता से बात करें। किताब गली ऐसा ही प्रयास है।