बिसात पर जुगनू- जब हिंद-चीन में प्रेम था

Bisaat Jugnu Vandana poster
वंदना राग का यह उपन्यास उन किताबों में है, जिसे पढ़ने के लिए अर्हता चाहिए। अफ़ीम युद्ध के बाद जो भारत-चीन आवाजाही हुई, उससे संबंध बने। गहरे और मानवीय। इतिहास से वर्तमान तक खंगालती यह पुस्तक नूतन प्रयोग है

हिन्दी लेखन में ऐतिहासिक लेखन कई हुए, भिन्न-भिन्न विषयों पर गल्प रचे गए, लेकिन उनका फलक अक्सर किसी एक व्यक्ति, एक घटना या एक काल-खंड तक सीमित रहा। यही सहज भी है। लेकिन, एक प्रयोग जो विश्व-साहित्य के आधुनिक लेखन में दिखता है, वह है ‘कल, आज और कल’ की बात करना। भूत से वर्तमान होते हुए भविष्य की राह ढूँढना। सलमान रश्दी से अमिताव घोष तक अपने गल्प को एक से अधिक काल-खंडों, क्षेत्रों और पहलूओं की सैर कराते रहे हैं। वंदना राग की पुस्तक ‘बिसात पर जुगनू’ को जब पहली बार पढ़ा (यह किताब एक से अधिक बार पढ़नी पड़ सकती है), तो शुबहा हुआ कि किसी अन्य भाषा से अनूदित पुस्तक पढ़ रहा हूँ। यह शिल्प जाना-पहचाना होकर भी पारंपरिक नहीं लग रहा था। इस नवीनता के कारण भी यह पुस्तक स्नातक पाठ्यक्रमों अथवा रचनात्मक लेखन के उदाहरणों में सम्मिलित की जा सकती है। 

कथा का काल-खंड

कथा का काल-खंड औपनिवेशिक भारत और वर्तमान भारत के मध्य, स्थान भारत और चीन के मध्य और पात्र हिंदू, मुसलमान, अंग्रेज़ और चीनी मूल्य के व्यक्तियों के मध्य ताश के पत्तों की तरह या शतरंज की बिसात की तरह सजी है। कुछ पहेलीनुमा अंदाज़ में। वहीं, यह ऐतिहासिक घटनाक्रमों के बोझ से दबा इतिहास न होकर, भावनाओं और मनुष्य की बुनियादी प्रकृति का इतिहास है। उसे पढ़ कर लगेगा कि यह सदी से पूर्व की कहानी होकर भी कितनी आधुनिक है। इसकी एक दुसाध नायिका परगासो भाला फेंकती हुई नज़र आती है, जिसके प्रेम में पड़ा क्षत्रिय नायक उसके समक्ष स्त्रैण प्रतीत होता है। सिर्फ़ इस एक कथानक में ही समाज का पिरामिड उल्टा दिखने लगता है, और आप इस घने जंगलनुमा कथानक से गुजरते हुए कहीं खो जाते हैं और सोचते हैं – समाज का मूल रूप कहीं ऐसा ही तो नहीं?

दो अन्य पुरुष नायकों में एक मुसलमान और एक अंग्रेज हैं, जिनके मध्य रूहानी मोहब्बत है। अंग्रेज़ अपने मुसलमान पुरुष प्रेमी के साथ इतनी सहजता से कथा में विचरण कर रहे होते हैं, कि लगता है ऐसा आज मुमकिन क्यों नहीं? क्या पटना के निकट सोनपुर मेले में दो प्रेमी पुरुष इस तरह टहल सकते हैं? इस कथानक की परिणति में एक विचित्र वाक्य है,

‘एक आशिक़ ने एक फ़िरंगी की मोहब्बत से भरी जान बहुत मोहब्बत से उसके शरीर से निकाल ख़ून की तरह फ़र्श पर बहा दी’

उपन्यास के तीसरे (बिना किसी क्रम में) कथानक में एक हिंदू पुरुष और मुसलमान स्त्री के मध्य व्यवसायिक प्रेम पनपता है, जो कला से जुड़ जाता है। ‘पटना कलम’ की गुमशुदा चित्रकारी को कथानक में यूँ लाया गया है जैसे कि हम सभी उसे रोज़मर्रा जीवन में देखते हैं या जीते हैं। पढ़ते हुए यूँ नहीं लगता कि यह खोयी हुई विरासत है। इस तरह के हस्तक्षेप साहित्यकारों के उत्तरदायित्व में है, जिसके सुखद परिणाम हो सकते हैं। कम से कम एक कौतूहल तो उत्पन्न हो ही सकता है कि पटना कलम की चित्रकारी देख ली जाए।

कौतूहल के लिए तो खैर यह पुस्तक कई विकल्प देती है। पहले तो यही समझना एक टेढ़ी खीर हो सकती है कि कथा का केंद्र जो भारत-चीन व्यापारिक संबंध है, उसका केंद्र आखिर पटना कैसे? इन दो देशों के मध्य अंग्रेज़ों के आने से पहले ही कितने आत्मीय संबंध रहे, और आज की भूमंडलीय राजनीति कितनी करवटें ले चुकी।

आज एक आम भारतीय इंग्लैंड और अमरीका के विषय में अधिक जानते हैं, और अपने पड़ोसी चीन, पाकिस्तान या म्यांमार के विषय में कम।

जबकि इस कथानक में बिहार प्रांत का व्यक्ति बड़े आराम से चीन में टहलता है, प्रेम संबंध स्थापित करता है, बच्चे जन्म लेते हैं, लौट कर आता है। चीनी नामों का भारतीयकरण और भारतीय संस्कृति का चीनीकरण यूँ होता है, जैसे वे एक ही हों। इसे पढ़ते हुए यह नहीं लगता कि एक अतिशयोक्तिपूर्ण गल्प रचा गया है। यह वाकई एक स्थापित इतिहास तो है ही, इस कारण इसमें आश्चर्य भाव कथा पढ़ते हुए भी नहीं आता।

एक ‘चिन’ नामक बच्चा अगर भारत में कान्हा सिंह बन जाता है, तो यह एक सांस्कृतिक रूपांतरण है, जो सदियों से हो रहा होगा। वैश्विक राजनीति की उठा-पटक में इस डोर में पहले गाँठ पड़ी और फिर टूट ही गयी, जबकि लोक-संस्कृति में यह रिश्ता शायद बचा रह जाता।

उपन्यास का शिल्प

इस उपन्यास के शिल्प पर दो टूक भी लाज़मी है। इस कथा में एक रोज़नामचा या डायरी के पन्ने, सरकारी चिट्ठियाँ, और कथाएँ एक-दूसरे के साथ कुछ बेतरतीबी से घोल दी गयी हैं। नए पाठक इस भूल-भुलैये में गुम हो जाएँगे कि आखिर चल क्या रहा है। लेखक ऐसी स्थिति में एक भूमिका लिख कर कथानक से परिचय करा सकती थी- ‘यह फलाँ सदी की कथा है जब भारत-चीन व्यापारिक संबंध थे। जहाज चीन जाया करते थे। यूरोपीय कंपनी व्यापारियों के आने के बाद इस लोक-व्यवहार में संगठित पूँजीवाद ने खलल डालनी शुरू की, और यह खाई बढ़ती चली गयी।’

लेकिन, अगर यूँ लिख दिया जाता, तो कथा का रोमांच घट जाता। जब सभी मोहरे और चाल खोल कर रख ही दिए गए, फिर बिसात का मतलब ही क्या? पन्ना-दर-पन्ना कुछ-न-कुछ स्पष्टता आती जाती है, और आखिर में तो ‘चाल और मात’ ही हो जाती है। आप वहाँ पहुँच कर चाहेंगे कि अब लौट कर दुबारा पढ़ लिया जाए, या संभव है कि इतिहास और कला की चार किताबें मंगवा लेंगे। एक नीरस सी लग रही ऐतिहासिक पृष्ठभूमि में अगर इतना रोमांच, इतने प्रश्न और इतनी जिज्ञासा ले आयी जाए, तो यह साधारण बात नहीं।

हर कोई न उठाए यह उपन्यास

इस उपन्यास के पाठक में एक अर्हता या पात्रता की दरकार तो है। गंभीर-लोकप्रिय के बाइनरी में न पड़ते हुए भी पाठक की परिपक्वता कुछ आवश्यक है। एक अपारंपरिक या फ़ार्मूला लेखन से इतर पुस्तक के साथ यह द्वंद्व स्वाभाविक ही है। यह उन पुस्तकों में है, जिसे अगर उपहार में दिया जाए, तो यूँ ही दस लिफ़ाफ़ों में डाल कर भेज न दी जाए। बल्कि इस बात की तस्दीक़ की जाए कि लिफ़ाफ़े पर पता किसका लिखना है। वह पता इस चिट्ठी का पात्र है या नहीं। ऐसी बात कह कर इसमें अभिजात्य पुट नहीं ला रहा, बल्कि इसकी आर्हता में गंवई लोक-व्यवहार और सहज मानव प्रकृति की समझ है। यह बंद वातानुकूलित कमरे में ज़िंदगी व्यक्तियों के लिए शायद न हो, और धूप में गली-गली छानने वाले व्यक्ति के लिए हो। बिसात पर जुगनुओं के लिए। 

Author Praveen Jha shares experience about hindi novel Bisaat Par Jugnu by Vandana Raag. 

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