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विज्ञान ने कई भस्मासुर बनाए, लेकिन इससे खतरनाक रसायन कम ही बने।
मिथाइल आइसोसाइनेट (MIC) जब पहली बार अमरीका में चूहों के पिंजरे में डाला गया, एक झटके में सभी चूहे मारे गये। इस शोध को ही दबा दिया गया। आखिर इस जहर को बनाने की जरूरत क्या पड़ी? इसके पीछे भी विज्ञान का एक भस्मासुर था।
यूनियन कार्बाइड कॉरपोरेशन की शुरुआत 1917 में कीटनाशक बना कर फसलों को बचाने से हुई। उसके बाद बैट्री, विद्युत उपकरण आदि का काम भी जुड़ गया। हालाँकि प्रथम विश्वयुद्घ में भी इनके हीलियम के बलून उड़ रहे थे, द्वितीय विश्वयुद्ध तक ये एटम बम बनाने वाले गुप्त मैनहट्टन परियोजना (Manhattan Project) का हिस्सा बन चुके थे! अगले तीन दशक में यह कंपनी 40 देशों में पसर चुकी थी, और अमेरिका की सबसे ताकतवर कंपनी बन रही थी। बीच मैनहट्टन में 270 पार्कं अवन्यू की 52 मंजिली गगनचुंबी इमारत इस बात की गवाह थी। (2021 में यह इमारत गिरा दी गयी। उस स्थान पर नयी इमारत तैयार हो रही है)

उस वक्त कीटनाशकों के नाम पर DDT ही चलता था, जो नुकसानदेह था। 1957 में यूनियन कार्बाइड ने एक ऐसा रसायन बना दिया, जिसको छिड़कते ही कीट-मच्छर तो क्या, तिलचट्टे और छिपकली तक साफ हो जाते। यह गुप्त रसायन ‘सेविन’ नाम से बेचा जाने लगा। भारत में हरित-क्रांति आने में देर थी, और कीटनाशक का प्रयोग कम ही होता था। यूँ कहिए कि उस वक्त भारत में जैविक (ऑर्गैनिक) खेती ही होती थी। लेकिन, भारत भी तो ‘तरक्की’ कर रहा था।
इस सेविन (Sevin) नामक गुप्त रसायन के बनने की प्रक्रिया में ही वह खतरनाक गैस उत्पन्न होता था। फॉस्जीन (Phosgene) नामक गैस से एक मोनो-मिथाइल-अमीन (Mono Methyl Amine) नामक रसायन की प्रतिक्रिया करायी जाती थी, जिससे उत्पन्न होता था MIC (मिथाइल आइसोसाइनेट)।
इस गैस को सूँघते ही मृत्यु लगभग निश्चित थी। इसमें दो बूँद पानी डालते ही यह विस्फोटक हो जाता था। इसलिए, इस गैस को हमेशा शून्य से कम तापमान पर रखा जाता था।
समस्या यह नहीं थी कि यह गैस जहरीला था, समस्या यह थी कि कंपनी ने कई रहस्य छुपा कर रखे थे।
अमरीका और बाकी दुनिया को भी इसकी क्षमता का अंदाज़ा नहीं था। पहली बार इसका पता तब लगा जब वेस्ट वर्जीनिया (अमेरिका) के कान्हावा घाटी में यूनियन कार्बाइड की फैक्ट्री से गैस लीक हुआ। लेकिन, वहाँ तुरंत सावधान कर दिया गया। सभी लोगों ने खिड़की-दरवाजे, पंखे, एयरकंडिशनर बंद कर लिए। लीक पर काबू पा लिया गया। अगर यह अमरिका में मृत्यु लाता, तो शायद बंद हो चुका होता। तबाही मचाने के लिए तो इसने किसी और देश को चुना था- भारत!
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भारत में कंपनी के उत्पाद पहले से मौजूद थे। कार्बाइड बैट्री-चालित लैम्प गाँवों तक पहुँच गए थे। उस समय देश में विद्युतीकरण पूरा हुआ नहीं था, तो कार्बाइड बैट्री का ही सहारा था। यूनियन कार्बाइड कंपनी नए भारत की उम्मीद बन कर उभर रही थी। तभी हरित-क्रांति आ गयी।
कृषि वैज्ञानिक नॉर्मन बॉरलॉग (Norman Borlaug) ने एक ऐसे मक्के की प्रजाति बनायी, जो कहीं अधिक उपज देती थी। धान के भी आधुनिक बीज आ गये। पंडित नेहरू की मृत्यु हो गयी थी, और लाल बहादुर शास्त्री के नेतृत्व में पंजाब के खेत इन वैज्ञानिक फसलों से लहलहाने लगे।
इन विदेशी फसलों को अब कृत्रिम खाद और कीटनाशकों की जरूरत थी। ये कोई जादुई फसल तो थे नहीं कि बिना रख-रखाव के उपज देते रहेंगे। DDT और HCH जैसे घिसे-पिटे कीटनाशकों से बात बन नहीं रही थी। अमरीका ने इन कृत्रिम फसलों की बीमारी दी थी, तो दवा भी वहीं से आनी थी। यही तो असल पूँजीवाद है।
‘सेविन’ को निमंत्रण मिल गया। दिल्ली के अशोका होटल में लाइट्स-कैमरा-ऐक्शन के साथ यूनियन कार्बाइड का स्वागत किया गया। आनन-फानन में एक अफ्रीका जा रहे डिलिवरी जहाज को बंबई बुलवा कर 1200 टन ‘सेविन’ बंबई में उतरवा लिया गया। जहर अब भारत आ चुका था!
अब सवाल यह था कि कारखाना कहाँ खुले और कैसे खुले? उस समय वैश्वीकरण खुल कर हुआ नहीं था, तो विदेशी कंपनियों को कारखाना लगाने की इजाज़त नहीं मिलती। लेकिन, लूप-होल भी तो है।
डोमिनिक लैपियर ने भोपाल पर अपनी किताब में इसे कुछ वर्णित किया है-
जून, 1967 की एक सुबह संतोष दीनदयाल नामक व्यक्ति यूनियन कार्बाईड के एडवर्ड मुनोज के ऑफिस पहुँचे।
“मैं संतोष दीनदयाल। भगवान कृष्ण का भक्त हूँ। कई बिजनेस हैं मेरे। पेट्रोल पंप से लेकर सिनेमा हॉल तक। सुना है आपको कोई फैक्ट्री लगवानी है?”
“सिगार पिओगे?”
“हाँ! सिगार भी पीयेंगे और फैक्ट्री भी लगवाएँगे।”
“कैसे? विदेशी नागरिक को तो इजाजत नहीं।”
“आपकी सेवा में बंदा हाज़िर है। मैं लाइसेंस की अर्ज़ी डालता हूँ, आप प्रॉडक्ट भेजो, कारखाने लगाओ। पार्टनरशिप। नाम मेरा, पैसा आपका, प्रॉफिट आपका। मुझे बस कमीशन मिल जाए, काम हो गया।”
अमरीकी अधिकारी को यह लग गया कि भारत एक जुगाड़ू देश है। जिस हल के लिए वे छह महीने से दिमाग लगा रहे थे, वह तो खुद ही उनके पास चल कर आ गया।
“कहाँ लगेगी फैक्ट्री?”
“अब फैक्ट्री लगेगी तो हिंदुस्तान के दिल में ही लगेगी।” संतोष ने अपनी छाती थपथपाते कहा।
“मतलब?”
“मतलब देश के केंद्र में। भोपाल में!”
यह सुनते ही एडवर्ड मुनोज़ ने अपनी जैगुआर गाड़ी निकाली, और चल पड़ा भोपाल। रेलवे स्टेशन से कुछ ही दूर काली मैदान में खड़े होकर एडवर्ड अपनी गाड़ी से वैसे ही निकल कर खड़ा हुआ, जैसे कभी लॉर्ड क्लाइव बंगाल में खड़ा हुआ था। एक फ़िरंगी गए तो दूजे झंडा गाड़ने आ गये।
उस समय पहली बार मध्य प्रदेश में कांग्रेस सत्ता का तख्तापलट कर बागी विधायक गोविंद नारायण सिंह मुख्यमंत्री बने थे। यह संतोष दीनदयाल महाशय जो भी थे, उनको काली मैदान में पाँच एकड़ जमीन एलॉट हो गयी। कुछ ही महीने में वहाँ देशी डिजाइन पर एक फैक्ट्री भी खड़ी हो गयी। यह बताने की ज़रूरत नहीं कि फ़ैक्ट्री खड़ी करने में सुरक्षा नियमों पर कोई ख़ास ध्यान नहीं दिया गया।
अमरीका की फ़ैक्ट्री के सामने यह कुछ भी नहीं थी। 1968 से ‘सेविन’ के सैकड़ों टन भोपाल के रास्ते भारत में पसरने लगे। कुछ ही सालों में कंपनी को पाँच हज़ार टन ‘सेविन’ बनाने का लाइसेंस मिल गया। अब तक यह अमरीका से आयात कर भोपाल में पैकिंग कर रही थी, लेकिन अब इसे भोपाल में ‘सेविन’ बनाने की भी अनुमति मिल गयी। जिस देश में लाखों किसान हो, वहाँ तो माँग बढ़नी ही थी।

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यूनियन कार्बाईड कंपनी मुख्यालय, न्यूयार्क, 1971
“हमें पाँच हज़ार टन का कॉन्ट्रैक्ट मिला है! पाँच हज़ार टन!”, एडवर्ड ने लगभग उछल कर कहा
“ठीक है। लेकिन, हम इतनी ‘सेविन’ भारत नहीं भेज सकते।”
“हम भेजेंगे नहीं, वहीं बनाएँगे।”
“कहाँ? उस छोटी सी फैक्ट्री में? तुम पागल हो गये हो।”
“हाँ! क्या मुश्किल है?”
“पाँच हज़ार टन के लिए कितना MIC लगेगा, जानते हो? एक छोटी सी फैक्ट्री के बीच में एटम बम रखोगे?”
“हम कहीं और बना लेंगे। भोपाल में ही।”
“यही एकमात्र हल है। दूसरी साइट ढूँढो।”
दूसरी साइट कभी ढूँढी ही नहीं गयी। वहीं काली मैदान के सघन बस्तियों के इलाके में खतरनाक MIC के टैंक लगने लगे। वहाँ की अवैध बस्तियों को हटाने की किसी में ताकत नहीं थी। किंतु फैक्ट्री बनते-बनते देश में इमरजेंसी लग गयी, और संजय गांधी के रूप में एक स्वघोषित स्वच्छता अभियानी देश की झोपड़-पट्टियों पर बुलडोज़र चलवाने लगे।
कार्बाइड कंपनी के आस-पास की झुग्गियों को तोड़ने भी बुलडोज़र आ गये। तभी बस्ती वालों ने एक कमाल का आइडिया लगाया। उन्होंने बस्ती के बाहर एक लाल बोर्ड लगा दिया- ‘संजय गांधी बस्ती’! यह नाम देखते ही बुलडोज़रों को आगे बढ़ने की हिम्मत नहीं हुई।
काश ये बुलडोज़र चल गये होते तो शायद इन बस्ती वालों की वैसी मौत न होती, जैसी उस खूँखार गैस से हुई।
23 दिसंबर, 1981 को कंपनी कर्मचारी अशरफ़ काम के वक्त इस घातक गैस की चपेट में आ गए। हालाँकि उन्हें कोई तकलीफ़ नहीं हुई। बड़े आराम से घर पहुँच कर गाड़ी से नर्मदा किनारे एक बंगला देखने पहुँचे। वह अच्छे-खासे हँस रहे थे, कि अचानक साँस रुक गयी, और हमिदिया अस्पताल पहुँचने से पहले दम तोड़ दिया। यह गैस व्यक्ति को इसी तरह फ़िल्मी गब्बर सिंह की तरह पहले खूब हँसा कर, फिर अचानक बेदर्दी से जीवन छीन लेती थी।
मई, 1982 में अमरीका से एक टीम कंपनी के औचक निरीक्षण पर आयी, और वे व्यवस्था देख कर चौंक गए। उन्होंने एक लंबी रिपोर्ट लिखी कि यहाँ कभी भी खतरनाक गैस लीक हो सकते हैं। बल्कि, उन्होंने लीक होने के स्पष्ट कारण भी बताए। भोपाल की साप्ताहिक रपट में खबर छपी— ‘एक ज्वालामुखी पर बैठा है भोपाल!’
लेकिन, इस खबर को कोई तवज्जो नहीं मिली। इसके उलट मध्यप्रदेश विधानसभा में श्रम मंत्री ने घोषणा की, “कार्बाइड फैक्ट्री से कोई भी खतरा नहीं है। उनके द्वारा बनाया जा रहा फॉस्जीन कोई जहरीला गैस है ही नहीं।”
हालाँकि, कंपनी के प्रबंधक वारेन वूमर सख़्ती से पेश आए और कहा कि सभी व्यवस्थाएँ फौरन दुरुस्त की जाए। लेकिन, भारत सरकार उस वक्त राष्ट्रीयकरण की तरफ कदम बढ़ा रही थी। वारेन वूमर की जगह पर एक भारतीय जगन्नाथन मुकुंद को कुर्सी पर बिठा दिया गया। वूमर को वापस अमेरिका लौटना पड़ा।
नए भारतीय मुखिया को एक डूबती कंपनी हाथ लगी। देश में सूखा चल रहा था, और हरित क्रांति का बुलबुला भी अब सूखने जा रहा था। कार्बाइड कंपनी की बिक्री घटती चली गयी। मालिकों ने खर्च घटाने शुरु किए और कर्मचारियों को नौकरी से निकालने लगे। कभी जहाँ दो हज़ार कर्मचारी थे, अब महज 642 रह गए। उन तमाम उपकरणों, पाइप और वाल्व को देखने के लिए कर्मचारी ही कम बचे।
प्रबंधक मुकुंद ने धीरे-धीरे मिथाइल आइसोसाइनेट का उत्पादन ही लगभग बंद कर दिया। अब वे पुराने टैंकरों में बचे थे। जब उत्पादन बंद किया तो उसकी सुरक्षा प्रणाली भी बंद कर दी गयी। उन्हें लगा कि यूँ भी उस बंद पड़े यूनिट में आखिर क्या हो जाएगा? यही उन्हें ग़लत लगा!
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जब जहाज डूबने लगा तो अच्छे इंजीनियर भी एक-एक कर कंपनी छोड़ने लगे। 1983 के अंत तक कंपनी सूनी पड़ने लगी। यह अब बस जैसे-तैसे रेंग रही थी। अगले साल यह फैसला ले लिया गया कि अब इस कंपनी को तिलांजलि दे दी जाए। इसके उपकरण किसी दूसरे देश उठा कर ले जाए जाएँ। समस्या अब भी टैंकरों में पड़ी साठ टन मिथाइल आइसोसाइनेट ही थी। उसे कहीं भी ले जाना संभव न था। इस प्रक्रिया में गैस लीक होनी ही थी।
नवंबर, 1984 में पत्रकार राजकुमार केसवानी ने जनसत्ता में खबर छापी— ‘भोपाल में प्रलय की संभावना’
ये वही पत्रकार थे जिन्होंने दो वर्ष पूर्व भी ज्वालामुखी पर भोपाल की रपट लिखी थी। वह इस मुद्दे को लेकर समर्पित थे कि यह खतरनाक कंपनी बंद होनी चाहिए। उनकी बात फिर अनसुनी कर दी गयी। अगले ही महीने कुछ ऐसा हुआ जिसने उन्हें भारत का सर्वश्रेष्ठ पत्रकार पुरस्कार दिलाया। यह एक ऐसा पुरस्कार था, जिसे लेते वक्त उनका हृदय छलनी हो चुका था।
11.30 बजे रात्रि, 2 दिसंबर 1984
“कुछ गंध आ रही है। यह एम आइ सी लगता है।” कार्बाइड फैक्ट्री कर्मी मोहनलाल वर्मा ने कहा
“भाई! यह एम आइ सी नहीं, फ्लाइटॉक्स है। मच्छर मारने के लिए स्प्रे किया गया है।” बिहार के एक कर्मी ने कहा
मच्छर मारने के लिए स्प्रे ज़रूर किया गया था, लेकिन यह गंध एम आइ सी का ही था। बम फट चुका था। टैंक से लीक शुरू हो गयी थी।
लगभग पंद्रह मिनट बाद जब उनकी आँखें जलने लगी तो एक कर्मी कुरैशी ने अपने साथियों से कहा, “लगता है, वर्मा ठीक कह रहा था। तुम दोनों एक बार टैंक चेक कर आओ। मास्क लगा कर जाना!”
“अबे यार! यह रोज का ड्रामा है। थोड़ी-मोड़ी लीक हुई होगी। मास्क क्या लगाना? देख के आते हैं, फिर चाय पीने चलते हैं।”
वे जब पहुँचे तो देखा एक पाइप से गैस निकल रही है।
वे चिल्लाए, “कुरैशी! गैस लीक हो रही है!”
कुरैशी ने कहा, “ऐसा कर पानी का पाइप बंद कर दे। प्रेशर कम हो जाएगा।”
वे पाइप बंद कर चाय पीने निकल गए। अभी चाय तैयार हो ही रही थी कि एक सुपरवाइज़र सुमन डे दौड़े आए, “कुरैशी! टैंक का प्रेशर दो psi से तीस psi हो गया है। टैंक फट पड़ेगा!”
“अरे दादा! वह डायल का प्रॉब्लम होगा। चल, देखते हैं!”
जब तक वे पहुँचे, टैंक का दबाव तीस से बढ़ कर पचपन पहुँच चुका था, और टैंक से अजीब आवाजें आ रही थी। धुआँ फैलने लगा था।
कुरैशी चिल्लाए, “फायर ब्रिगेड बुलवाओ!”
फायर ब्रिगेड तुरंत पहुँच तो गयी, लेकिन टैंक उनकी पहुँच के बाहर था। अब फैक्ट्री से भागने के अलावा कोई रास्ता नहीं था। तुरंत फैक्ट्री खाली करायी जाने लगी। कुरैशी खुद दीवाल कूद कर भागे। कुछ ही देर में गैस के बादल फैक्ट्री से बाहर निकल कर आतंक मचाने लगे थे।
काली मैदान की बस्ती में एक बैल सबसे पहले मरा, और उसके बाद एक-एक कर बाहर सो रहे लोग मरते चले गये। लोगों की छाती गैस से भरती जा रही थी, और उनकी चीख भी नहीं निकल पा रही थी। ऐसा भीषण गैस चैम्बर मौत भारत ने पहले कभी नहीं देखा था। भगदड़ मची थी, और लोगों को मालूम ही नहीं था कि भागना कहाँ है। गैस हर तरफ फैला था।
लगभग तीन किलोमीटर दूर भोपाल स्टेशन के प्लैटफॉर्म नंबर एक पर गोरखपुर एक्सप्रेस आने वाली थी। सैकड़ों यात्री इंतजार में थे। अचानक वहाँ धुआँ पसरने लगा और लोगों की साँसें रुकने लगी। डिप्टी स्टेशन मास्टर वी के शर्मा यह सब देख भौंचक्के थे कि आखिर यह कौन सा धुआँ है। उन्हें तभी फोन आया कि कार्बाइड फैक्ट्री में जहरीली गैस लीक हुई है।
उन्होंने कहा, “ओह! गोरखपुर एक्सप्रेस रुकनी नहीं चाहिए। सब मारे जाएँगे। स्टेशन मास्टर साहब को फोन लगाओ।”
स्टेशन मास्टर आधे घंटे पहले ही मर चुके थे! रेलवे कॉलोनी में तबाही मचा कर ही गैस स्टेशन तक पहुँची थी।
“विदिशा स्टेशन फ़ोन लगाओ। अभी ट्रेन वहीं रोक लो”
“गाड़ी विदिशा से निकल चुकी है।”
“फिर तो एक ही रास्ता है। पटरी पर लालटेन लेकर दौड़ना होगा। ट्रेन रोकनी होगी।”
इतनी रात को तेजी से आती एक्सप्रेस भला लालटेन से क्या रुकती? ट्रेन के ड्राइवर को लगा कि कोई मसखरी कर रहा है। ट्रेन सीधे प्लैटफॉर्म संख्या एक पर रुकी, जो अब मरघट बन चुका था।
एक भी जिंदा व्यक्ति मौजूद नहीं था। ट्रेन रुकने पर घोषणा की गयी कि गैस लीक हुई है, कृपया ट्रेन से न निकलें। लेकिन, घोषणा सुनता कौन है? लोग ट्रेन से निकलते रहे, और कुछ मरते भी रहे। यह तो अच्छा हुआ कि ड्राइवर को सिग्नल मिल गया और ट्रेन जल्दी निकल गयी।
अभी सूर्योदय भी नहीं हुआ था, और हमिदिया अस्पताल में हज़ारों की भीड़ जमा हो गयी थी। इनमें लाशें अधिक थी, और जीवन कम।
पुलिस चीफ़ को मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह का फ़ोन आया, “आप लोगों का भागना रोकिए। शहर के बाहर न जाने पाएँ।”
“सर! यह कैसे मुमकिन है? अभी तो लोग जान बचा कर भागेंगे ही।”
“यह ठीक नहीं होगा”
अफवाह तो यह थी कि स्वयं अर्जुन सिंह भोपाल छोड़ कर भाग चुके थे, और उन्हें यह भय था कि अगर लोग भाग गए तो अगले महीने चुनाव में वोट कौन देगा?
कमिश्नर ने जगन्नाथ मुकुंद को बुला कर पूछा, “इतने लोग मर रहे हैं। क्या आपकी फ़ैक्टरी सायनाइड बनाती है?”
उन्होंने कहा, “बनाती तो नहीं, लेकिन यह गैस तापमान बढ़ने पर सायनाइड में बदल ज़रूर सकता है!”
तबाही अगले दिन थमने लगी थी, लेकिन हज़ारों मौतें तो हो चुकी थी। दूर अमेरिका में बैठे कंपनी के सीइओ वारेन एंडरसन को पल-पल की खबर हो रही थी।
एंडरसन ने कहा, “मैं भोपाल जा रहा हूँ। इस वक्त मेरा वहाँ होना जरूरी है।”
“तुम्हें मालूम है कि पंजाब में कुछ सिख मारे गए, तो वहाँ की प्रधानमंत्री को गोली से उड़ा दिया। भोपाल में तो उससे भी अधिक लोग मरे। अगर तुम्हें जेल में बंद कर दिया गया तो?”
“मैंने सोच लिया है। मेरा जाना जरूरी है।”
भोपाल पहुँचते ही एंडरसन का स्वागत स्वयं पुलिस चीफ़ ने एयरपोर्ट पर आकर किया, और फिर आराम से बिठा कर कहा, “आपको हिरासत में लिया जाता है।”
“क्या? अभी तो मेरी प्रधानमंत्री राजीव गांधी और मुख्यमंत्री अर्जुन सिंह के साथ मीटिंग है।”
“ऐसी कोई सूचना मिलते ही आपको बता दिया जाएगा”
हिरासत में लेकर एक पाँच सितारा होटल में ठहराया गया। ऐसा पहली बार हुआ था कि एक तीसरी दुनिया के देश ने अमेरिका के किसी कद्दावर व्यवसायी को हिरासत में लिया था। राजीव गांधी और अर्जुन सिंह उन दिनों चुनाव प्रचार में इस घटना का इस्तेमाल कर रहे थे कि भोपाल कांड की सजा मुकर्रर की जा रही है।
यह नाटक अधिक देर नहीं चल सका। अमरीकी विदेश मंत्रालय ने भारत से संपर्क किया। मात्र पच्चीस हज़ार रुपए के मुचलके पर एंडरसन को न सिर्फ रिहा किया गया, बल्कि एक निजी हवाई जहाज से दिल्ली के रास्ते अमेरिका भेज दिया गया। हज़ारों मौतों की कीमत बस पच्चीस हज़ार रुपए!
एंडरसन भारत आया। भोपाल तक आया। लेकिन वह तबाही न देख सका जो उसकी फैक्टरी की वजह से हुआ था। न ही प्रधानमंत्री या मुख्यमंत्री से कोई ‘औपचारिक’ मुलाक़ात हुई। वह आया और गया।
भारत लौट कर जवाब देने कभी न आया। (2014 में एडरसन की मृत्यु हो गयी)

यह विवरण मुख्यतः डोमिनिक लैपियर की पुस्तक Five Past Midnight In Bhopal पर आधारित है
Author Praveen Jha describes the events around Bhopal Gas Tragedy.
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