हवाई अड्डे पर आदत के अनुसार चार घंटे पूर्व पहुँच गया, तो बैठे-ठाले यह पुस्तक किंडल पर बाँचने लगा। पहला कारण यह कि पहले राजनटनी पढ़ी थी, तो लेखन-शैली का कुछ अंदाज़ा था। दूसरा कारण कि पुस्तक इस आकार की थी कि चार घंटे में पढ़ ली जाए। तीसरा कारण एक अजनबी फ्रेंच सहयात्री थी जिन्हें मैंने आम्रपाली के स्थान पर रख लिया। लेखकों की तरह पाठकों की भी muse तो हो ही सकती है, जिसकी छवि बना कर आप पुस्तक पढ़ डालें।
मैंने राजनटनी की चर्चा इसलिए की, क्योंकि मुझे लगता है यह उसी शृंखला की पुस्तक है। विदेह से वज्जि, मध्यकाल से आदिकाल, राजतंत्र से गणतंत्र, राजनर्तकी से नगरवधू की दिशा में। आम्रपाली गणिकाओं में आदि-गणिका कही जा सकती है, क्योंकि उनके बाद तो गण ही नहीं रहे, तो क्या गणिका?
एक पूर्वाग्रह जो पहले पृष्ठ से ही मन में था कि मेरे जैसे कई लोगों ने आम्रपाली की छवि आचार्य चतुरसेन की वैशाली की नगरवधू से बनायी है, या इसी शीर्षक से बनी फ़िल्म से। इतिहास की पुस्तकों में उनका स्थान नगण्य है। उनकी जन्मस्थली अम्बारा ग्राम में ही अब लोग उन्हें नहीं पूछते। विश्व के प्रथम गणराज्य माने जाने वाले वज्जि के चिह्न ढूँढने कठिन हैं। स्वाभाविक प्रश्न यह था कि आखिर लेखक आगे क्या जोड़ पाएँगी?
लेखक ने लिखा है- “इतिहास जिसे छोड़ देता है, साहित्य उसे गरिमा प्रदान करता है”
पुस्तक पढ़ कर इसमें यह जोड़ने की ग़ुस्ताख़ी करूँगा कि साहित्य इसे गरिमा के अतिरिक्त नए आयाम, नयी दृष्टि प्रदान करता है। यह पुस्तक आचार्य चतुरसेन से अलग ही दिशा में ले जाती है। यह साहित्य में संभव है कि बनी-बनायी लीक पर चलने की प्रतिबद्धता नहीं।
जैसे आचार्य (चतुरसेन) की कृति में आम्रपाली एक बहुत बड़े फलक के केंद्र में है। हम सामाजिक और राजनीतिक आयामों से गुजरते, श्रोत्रिय ब्राह्मणों और शोषित समाज के भेद को समझते, धार्मिक स्वरूप के कायाकल्प में प्रवेश करते हुए आम्रपाली को एकटक नहीं देख पाते। वह पुस्तक तो खैर है भी दोगुणी पृष्ठ संख्या की।
वहीं, इस कृति में न सिर्फ़ आम्रपाली बल्कि कई अन्य स्त्रियाँ जैसे सिंहा, शिव्या, मंजरिका आदि उभर कर आयी हैं। यह स्त्री-केंद्रित रचना है, जिसमें वैशाली की गणिकाएँ, विवाहित स्त्रियाँ, बौद्ध भिक्षुणियाँ प्रमुखता से हैं। यहाँ थेरियों की गाथा है। इसमें एक बहुत ही रोचक पात्र हैं सिंहा जिसकी यात्रा अम्बपाली से पूरी तरह अलग है। ऐसे आध्यात्मिक soul explorer पात्र अक्सर पुरुष ही देखे जाते हैं, मगर यहाँ एक स्त्री है।
स्त्रियों का अर्थ यह नहीं कि सारा कथ्य चहारदीवारी के अंदर अंतःपुर में रच दिया गया। बल्कि, यहाँ तो स्त्रियाँ जंगलों में विचरण करने से लेकर सार्वजनिक रूप से जनता का आह्वान कर रही हैं। वह गण राजाओं, मगध सम्राटों, समाज के पुरुषों, और साक्षात् तथागत बुद्ध से संवाद और विवाद कर रही हैं। मुझे कई दृश्यों को पढ़ कर लगा कि यह क्या खूब फ़िल्म बनेगी!
भाषा सौंदर्य पर लिखने के बजाय एक पुस्तक अंश रखता हूँ जब अम्बपाली भिक्षुणी बनती है-
“अपने सौन्दर्य-बोध के साथ-साथ उसे संघ में प्रवेश के समय अपनी सारी प्रिय वस्तुएँ त्यागनी थीं। सबसे पहले स्वर्णाभूषण उतारे -ठीक उसी तरह जैसे शरद ऋतु में वृक्ष और वनस्पतियाँ अपने हरित पर्णों को उतार देते हैं,
और जंघाओं तक लटकी स्वर्ण-झालरें, जिनमें उज्ज्वल मोतियों की लड़ियाँ भी थीं…काले-काले और घुँघराले केशों में नीचे तक लिपटे हुए स्वर्ण-माणिक्य की लड़ियों को धीमे से नोच दिया- ठीक उसी तरह जैसे उपवन में भ्रमण के लिए आयी किसी रूपवान नवयौवना ने निष्ठुरता के साथ नये खिले हुए सुगन्धित पुष्पों को टहनियों से नोच लिया हो।
विविध रंगी रेशम के अलंकारयुक्त परिधान उतार दिये-ठीक उसी भाँति जैसे किसी धनिक साहूकार ने अपने हीरे-जवाहरात भरी सन्दूक़ची की चाबी किसी निर्धन अपरिचित को सौंप दी हो।”
एक कमी तो नहीं कहूँगा किंतु आशा थी कि अजातशत्रु-आम्रपाली प्रेम पर कुछ विस्तार मिल जाता। अजातशत्रु अंत में आए हैं, और वह संवाद पुस्तक का हृदय है; किंतु आम्रपाली के मन का प्रेम अगर दिखता तो कैसा दिखता, यह जानने की उत्सुकता थी। आखिर वह उनके पिता बिम्बिसार की प्रेमिका भी तो थी!
अब मैं चला अगले हवाई जहाज की ओर। मेरी आम्रपाली भी कहीं निकल गयी। आप यह पुस्तक अवश्य पढ़ें।
Author Praveen Jha shares his experience about hindi book Ambpali by Geeta Shree, published from Rajpal Prakashan.
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