हालिया एक संगीत चर्चा हुई कि भारत में संगीत-लेखन का अर्थ है बस किंवदंती, किस्से और गप्प गढ़ना। कि फलाँ शराब में धुत्त रहते, फलाँ ने तबला उठा कर फेंक दिया, फलाँ बाई जी के पास रहते। पाश्चात्य संगीत लेखन में तत्त्व की चर्चा होती है, संगीत के स्वरूप और उसकी बारीकी पर बात होती है। संगीत में छुपे विज्ञान की चर्चा होती है।
यह बात पूरी तरह ग़लत नहीं। विलायत हुसैन ख़ान, बी. आर. देवधर, कुमार प्रसाद मुखर्जी से लेकर अब नमिता देवीदयाल तक ने कई किस्से-कहानियाँ सुनाई। मुझे भी सुनने-सुनाने में आनंद आता है, और ऐसे संकलन इकट्ठे हैं। कहीं न कहीं उन किस्सों से ही संगीत में रुचि भी बनी। लेकिन संगीत के तकनीकी पक्ष को रोचक ढंग से प्रस्तुत कम किया गया है। हिंदुस्तानी संगीत और रागों की व्याख्या पर भारी-भरकम किताबें बनती रही हैं। बॉनी वेड, ओंकारनाथ ठाकुर, श्रीकृष्ण रतण्जन्कर, रामाश्रय झा ‘रामरंग’, मनोरमा शर्मा आदि कई लोगों ने लिखी है। सरल भाषा में हाथरस से किताबें निकली लेकिन उनके वितरण पर संदेह है कि कहाँ-कहाँ पहुँच पायी। संगीत के शोधी किस्से-कहानी ख़ास नहीं पढ़ते, और शौकिया लोग तकनीकी पक्ष से दूर रहते हैं। तो यह दोनों पाठक ‘म्युचुअली एक्स्क्लुजिव सेट’ हैं।
यहीं एक पुल स्थापित करने की आवश्यकता है; कि रोचकता भी कायम रहे और बारीक बात भी हो। यह कार्य लेकिन धुनी लोग ही कर सकते हैं, जिन्हें साहित्य, संगीत और इतिहास, तीनों में रुचि हो। गजेंद्र नारायण सिंह जी के बाद हिन्दी में यतींद्र मिश्र जी में वही बात नजर आती है। ‘लता सुर गाथा’ सुगम संगीत पर लेखन था, और वहाँ भी उन्होंने एक-एक गीत में छुपे रस और सुर का बख़ान किया, साथ-साथ बातें-किस्से भी चलती रही।
‘अख़्तरी: सोज़ और साज़ का अफ़साना’ में वह बेगम अख़्तर के जीवन से गुजरते हुए बीच-बीच में हमें संगीत के महीन बातों को बताते चलते हैं। पुस्तक का प्रथम भाग तो एक रोचक दस्तावेजीकरण है, जिसमें उन पर लिखे अंग्रेज़ी लेखों को भी अनुवाद किया गया। कई संदर्भों की पुनरावृत्ति भी होती है, लेकिन अलग-अलग लेखकों के शब्दों में पढ़ कर वह आनंदित भी करता है और संदर्भ को सशक्त भी करता है। मैंने स्वयं एक छोटा लेख लिखा है और यतींद्र जी से बात-चीत भी होती रहती है, तो एक बार सोचा पूछ लूँ कि आपने दुबारा लिखी बातों की काट-छाँट क्यों नहीं की? लेकिन पढ़ते-पढ़ते मैं उनके संपादन का कायल हो गया। जैसे गाने का मुखड़ा हर बार नया अंदाज़, नयी नज़ाकत, नयी नजर लिए होता है, वैसे ही बेगम पर एक सी बातें बार-बार पढ़ कर हम झूम उठते हैं। यह पठनीयता भी बढ़ाता है कि आप अगर कुछ भूल गए तो वह दुबारा किसी और प्रसंग में आपके सामने है। और अगर याद है, तो वह रोचक बात पुन: दूसरे प्रसंग में पढ़ कर ‘रिलेट’ कर पाते हैं। यह संपादन का कौशल है।
दूसरे भाग में छब्बीस छोटे-बड़े प्रसंग हैं, जैसे मंच पर अलग-अलग वक्ता आकर बेगम से जुड़े संस्मरण सुना रहे हों। यह पुस्तक को ‘लाइव’ बना देता है, जैसे बेगम सामने बैठी हो, महफ़िल चल रही हो, और वाह-वाही हो रही हो। मैंने संगीत में जितनी पुस्तक पढ़ी है, उसमें एक अमरीकी लेखक पीटर लवेज्जोली इसी अंदाज में लिखते हैं। जैसे रंगमंच हो, सभी लेखक पात्र हों, अपने-अपने संवाद कह रहे हों, साक्षात्कार चल रहे हों।
संपादक यतींद्र जी ने एक और गज़ब का प्रयोग किया है। पुस्तक का आखिरी लेख शुभा मुद्गल जी का है, शीर्षक है- ‘बेगम अख़्तरी: गायकी का पाठ’। मैं चकराया कि गायकी का भला पाठ कैसा होगा? यह पुस्तक का सबसे प्रिय लेख रहा। एक नौसिखिया संपादक जरूर इसे पहला लेख बनाता। आखिर शुभा मुद्गल जी समकालीन लोकप्रिय गायिका हैं, जिन्हें संगीत में हल्की-फुल्की रुचि वाले भी जानते हैं। पहला नहीं तो दूसरा या तीसरा लेख तो बना ही लेता। लेकिन यतींद्र जी ने इसे अंतिम लेख बनाया। यह मास्टर-स्ट्रोक है!
शुभा जी किस्से-प्रसंगों से इतर बेगम की एक एल्बम लेकर उसके बारह गीतों की शल्य-क्रिया करती हैं। यह लेख पढ़ते हुए मैं वही गीत सुनने लगा, और शुभा जी के लिखे से मिलाने लगा। जैसे कोई क्लास चल रही हो और शिक्षक ने बारह प्रश्न दिए हों, हमें उत्तर समझाया जा रहा हो। संगीत में ऐसे ही लेखों की जरूरत है कि जिसे संगीत का शून्य ज्ञान हो, उसे भी समझाया जा सके। मुझे छुटपन में गणित से भाग कर छतों पर पतंग उड़ाना याद आता है, जब पूछा जाता कि गिन कर बताओ अलग-अलग रंगों के कितने पतंग हैं? हमें पता ही नहीं लगता कि यहाँ भी गणित ही पढ़ाया जा रहा है। यतींद्र जी ने उसी अंदाज़ में यह किताब सजायी है कि जब बेगम में लोग डूब चुके हों, तब शुभा जी का लेख आए और खंड-खंड कर एक-एक स्वर स्पष्ट कर दे। हमें इल्म ही न हो कि हमने संगीत सीख लिया!
[मेरा यह लेख जानकीपुल पर 8.4.2019 पर पूर्व प्रकाशित]Author Praveen Jha narrates his experience about book ‘Akhtari’ by Yatindra Mishra