एक तकनीकी अनुभव साझा करना चाहूँगा। एक इतिहासकार के लिए उपन्यास लिखना कठिन है, और एक उपन्यासकार के लिए इतिहास लिखना। ये रेल की पटरियों की तरह साथ तो चल सकते हैं, मगर मिल नहीं सकते। आचार्य चतुरसेन ने उपन्यास लिखे, अपनी कल्पना से पूरा रंगमंच तैयार किया, और उसमें ऐतिहासिक घटनाओं के बिंब रखे। वहीं इतिहासकार इस पशो-पेश में रह जाते हैं कि घटना को हू-ब-हू रखूँ या कुछ कल्पना जोड़ूँ, और परिणाम खिचड़ी बन जाती है।
शाज़ी ज़माँ साहब अगर अकबर पर उपन्यास या नाटक लिखते, तो यह मुगल-ए-आजम फ़िल्म जैसी कुछ जानदार मिसाल बनती। लेकिन, वह पूरे उपन्यास (उन्होंने उपन्यास ही कहा है) में तथ्य रखने में इस कदर उलझ गए कि यह न सौ फ़ीसदी उपन्यास रहा, न इतिहास। यह मैं किसी लेखकीय नहीं, बल्कि पाठकीय अनुभव से ही कह रहा हूँ कि एक जादुई प्लॉट का अखबारीकरण जैसा लगा। शायद इसलिए भी कि स्टोरीटेल पर यह पढ़ा भी दूरदर्शन पर प्रसारित हिंदी-ऊर्दू समाचार जैसा गया है। कहीं कोई उतार-चढ़ाव या भंगिमा नहीं।
इस फौरी आलोचना के साथ यह कहूँगा कि जिन्हें इतिहास में रुचि है, और जिनको बाबरनामा, हुमायूँनामा, अकबरनामा और जहाँगीरनामा अलग-अलग नहीं पढ़नी। या यूँ कहें कि आज की ज़बान में पढ़नी है, उन्हें इस पुस्तक में उसके कई अंश शब्दांतर या पैराफ्रेज कर एक साथ संकलित मिल जाएँगे। इसी के साथ एक टिप्पणी यह कि बाबर और हुमायूँ जैसे शख़्सियत के फेर में स्वयं अकबर पर कुछ पन्ने घट गए। यह ज़रूरी रहा होगा, मगर वह इसे तीन खंडों में प्रकाशित करते तो शायद बेहतर होता। यहाँ अकबर की कहानी के बीच बाबर-हुमायूँ कुछ बेतरतीबी से आते-जाते रहते हैं।
दरअसल लेखक ने भूमिका में ही इस बात पर जोर दिया है कि इस किताब में लिखी हर एक बात सत्य पर आधारित है । यहीं वह बँध गए। उन्हें लगा कि इतिहास ही लिखा जाए। लेकिन, फिर वही संदर्भ सहित लिखते। भले कुछ रोचक बना देते। अब्राहम एरली आदि की तरह।
उन्होंने पूरे पुस्तक में बाबर को ‘फ़िरदौस मक़ानी बाबर बादशाह’ और हुमायूँ को ‘ज़न्नत-आशियानी हुमायूँ बादशाह’ लिखा है। कम से कम सुनते हुए यह दरबारी आवाज़ लगती है, क्योंकि इतिहास पुस्तकों में सीधे बाबर, हुमायूँ, अकबर इसी तरह नाम मिलते हैं। एक बार पदवी की चर्चा कर आगे सिर्फ़ नाम लिखना शायद पाठकीय रूप से सहज होता।
मुझे इस पुस्तक का सबसे रोचक हिस्सा लगा शेख़ मुस्तफ़ा गुजराती पर। यह इस्लाम में एक लघुकालिक कम चर्चित पंथ ‘मेहदवी’ पर आधारित है, जो अकबर के समय जौनपुर से जन्मा था। उनकी और सुन्नी उलेमाओं के बीच जो डिबेट है, वह लेखक ने बहुत ही सुंदर नाटकीकरण के साथ रखा है। इसी तरह हुमायूँ को ईरान (फ़ारस) में जबरन शिया पंथ स्वीकार कराया जाना भी बहुत नाटकीय बन पड़ा है। यहाँ वह साबित करते हैं कि वह एक बेहतरीन क़िस्सागो है। तब तो विषय और अध्ययन ही इतना बृहद था कि वह हम पाठकों से तारतम्यता कुछ कम बिठा सके।
एक आखिरी बात। पुस्तक की शुरुआत मुझे बहुत ही आधुनिक लगी, जब उन्होंने अकबर को Dyslexia, Bipolar disorder और Temporal Epilepsy जैसी रोगों से पीड़ित बताया है। उन्होंने यह वायदा किया कि इन पहलुओं से रू-ब-रू कराएँगे। बाइपोलर डिसॉर्डर की छाप कई बार दिखी, मगर लगा कुछ और खुल सकता था।
पाठकों से मेरी गुज़ारिश यह रहेगी कि मेरे अनुभव को सिर्फ़ एक टिप्पणी ही मानें, जो शोधपरक और श्रमसाध्य कार्य से जन्मी पुस्तक से आशाओं को लेकर है। हर वक्त की एक कलम, एक तासीर होती है, जो इस किताब में है। यह बात मैं क्यों कह रहा हूँ, यह किताब बाँच कर शायद बेहतर दिखे।
[राजकमल प्रकाशन से प्रकाशित यह पुस्तक ऑनलाइन और दुकानों में तो होगी ही। Storytel हिंदी पर ऑडियोबुक भी है। मैंने वहीं सुनी]
1 comment
सर आपके फेसबुक पोस्ट पर देख कर यह किताब मैने पढ़ी थी,
अच्छी तो है ही तत्कालीन समय को समझने का एक मानसिक आधार भी प्रदान करती है।