काज़ीमिर्ज़, क्राकू, पोलैंड
शहर के बड़े चौराहे पर आज उत्सव का माहौल है। झुंड में खड़ी सुंदर युवतियाँ खिलखिला रही हैं। ज़ापेकांका (स्थानीय पिज़्ज़ा सरीखा भोजन) की कतार में लोग खड़े हैं।एक युगल एक-दूसरे को चूमने में व्यस्त है, तो दूसरा युगल हाथ में हाथ डाले स्केट कर रहा है। शराब के शॉट पर शॉट चल रहे हैं। एक शॉट का नाम है- हिरोशिमा। इसमें शराब कुछ इस तरह मिलायी जा रही है, जैसे ग्लास के अंदर बम विस्फोट हो रहा हो। बूम्म!
मैं कुछ दूर एक अन्य चौराहे पर कतार में लगी लोहे की कुर्सियों को देख कर घबरा जाता हूँ। ये कुर्सियाँ कुछ डरावनी सी है। जैसे ये कुर्सियाँ आराम के लिए नहीं, यातना के लिए बनी हों। जैसे- इन पर बैठ कर विद्युत के झटके से मर जाऊँगा। मैं पूछ बैठता हूँ- यह कुर्सियाँ…
उत्तर भी डरावना मिला- इन कुर्सियों को समझने के लिए क्राकू का क्रूर रहस्य जानना होगा!
कभी इस पूरे मुहल्ले में यहूदी रहा करते थे। हज़ारों यहूदी, जो सदियों से वहाँ बसे थे। दर्जियों से लेकर होटल मालिक तक। शिक्षक, चिकित्सक, चित्रकार, संगीतकार, वकील, मनोवैज्ञानिक…और न जाने क्या क्या। क्राकू के सबसे प्रबुद्ध और सबसे धनी समुदाय, जिनका अब वहाँ कहीं नाम-ओ-निशान नहीं। या शायद ग़लत कह गया।
उनके नाम और निशान वहीं हैं, वे नहीं हैं। सब के सब अपनी वजूद सहित खत्म हो चुके। जब महज कुछ दिनों में उन्हें चुन-चुन कर मार डाला गया।
एक यहूदियों वाली लंबी दाढ़ी रखे स्लाव गाइड ने मुझे कहा, ‘आप जहाँ खड़े हैं, उसके नीचे एक मैनहोल है।’
मैंने छिटक कर कहा, ‘हाँ! मैनहोल तो है’
‘आपको फ़िल्म शिंडलर्स लिस्ट का वह दृश्य याद है, जब एक यहूदी मैनहोल में छुपा होता है? जब निकल कर बाहर आता है तो नाज़ी एस एस ऑफिसरों का दल सामने खड़ा होता है!…’, उसने पूछा
‘हाँ हाँ! और वह उन्हें सैल्यूट मार कर लाशों के किनारे पड़े सूटकेसों को समेटने लगता है…’, मैंने उत्साहित होकर कहा
‘यह वही मैनहोल है, और यह वही लाशों से पटी गली है’, उसने गंभीर होकर कहा
मैं सन्न रह गया। मैंने सामने देखा, तो गली के दूसरे छोर पर एक सिनागोग (यहूदी गिरजाघर) था, जहाँ अब कोई नहीं जाता। दीवाल पर हिब्रू में लिखे कुछ धुंधले पड़ गए नाम दिखे, जिसका अब कोई वारिस नहीं। ऊपर खिड़की से झाँकता एक बच्चा दिखा, जो दरअसल था ही नहीं।
‘इस इलाके में लगभग बीस हजार यहूदी थे, जो शहर की बड़ी जनसंख्या थी। पूरे शहर को मिला कर सत्तर हज़ार। एक दिन इन सभी को आदेश दिया गया कि अपने-अपने घर खाली कर दें’, गाइड ने कहा
‘और कहाँ जाएँ?’, मैंने पूछा
‘बताता हूँ। पहले उनके बाज़ार चलते हैं, जहाँ कभी खूब चहल-पहल रही होगी’, उसने कहा
‘अरे! ये जगह तो शिंडलर्स लिस्ट में है, जब सीढ़ियों से ऊपर जाकर एक-एक यहूदी को मार रहे होते हैं। घरों में गोलियाँ चल रही होती हैं, और वहीं बैठा एक एस एस अफसर पियानो पर बाख़ का संगीत बजा रहा होता है…’, मैंने बाज़ार के निकट पहुँचते ही कहा
‘हाँ! यह वही जगह है। इसी सीढ़ी के नीचे वह छोटा कमरा देख रहे हैं…’
‘जहाँ वह बच्चा जान बचाने के लिए छुप जाता है’, मैंने कहा
‘फ़िल्म में तो ख़ैर सब दिखाना कठिन है, लेकिन चश्मदीदों के अनुसार यह मंजर कहीं अधिक भयावह था। लाशें उस रेलिंग से गिर रही थी, और यह पूरा बाज़ार खून से सन गया था’, उसने कहा
‘लेकिन यह सामने तो भव्य ईसाई गिरजाघर है, फिर भी?’, मैंने यहूदी मुहल्ले के बीच एक प्राचीन विशाल इमारत को देख कर कहा
‘यह गिरजाघर तो पंद्रहवीं सदी से है। ईसाई और यहूदी तो साथ ही रहा करते थे। एक चौराहे पर सिनागोग, दूसरे पर चर्च। इनके बीच नफ़रत का बीज तो नाज़ियों ने बोया’, उसने कहा
मैंने वहीं एक दीवार पर किसी हालिया कूचे से लिखा देखा- Kill Nazis (नाज़ियों को मार डालो!)
शायद किसी नवयुवक ने इस गली की कहानियाँ सुन कर गुस्से में लिख डाला होगा।
‘हाँ! आप बता रहे थे कि यहूदियों को यहाँ से कहीं और ले जाया गया। आपका मतलब यातना कैंप से है?’, मैंने पूछा
‘नहीं। नदी के उस पार उनकी एक बस्ती बसायी गयी। वहाँ सभी यहूदियों को एक साथ कुछ मकानों में बंद कर दिया गया। एक-एक घर में सात परिवार ठूँस दिए गए। चलिए, वहीं चलते हैं…’, हम साथ-साथ वह पुल पार करने लगे जिससे गुजर कर सभी यहूदी अपने नए ठिकाने पहुँचे होंगे।
(चित्र लेख के अंत में)
यहूदी गेटो (Jew Ghetto)
यहूदी मुहल्ले से यहूदी गेत्तो के बीच बना पुल अब आधुनिक रूप ले चुका है। यहूदी गेत्तो भी किसी यातना कैंप की तरह नहीं, बल्कि अमीरों के मुहल्ले की तरह दिखने लगा है। उनसे अब लाशों की बदबू आनी बंद हो चुकी है, और ऐसी कोई दीवार नहीं दिखती, जिन्हें पार करने पर गोली मार दी जाए।
‘इसके तीन भाग थे। पहले भाग में ऐसे लोगों को रखा गया, जो काम कर सकते थे। दूसरे और तीसरे भाग में बूढ़े और बच्चे रखे गए। धीरे-धीरे तीसरा भाग हटा दिया गया’, गाइड ने कहा
‘उन्हें मार दिया गया?’, मैंने पूछा
‘कुछ कहा नहीं जा सकता। मूलतः उनके क्षेत्र को बहुत छोटा कर दिया गया।’, उसने बताया
‘तो इस मकान से यह सीमा शुरू होती थी…’, मैंने एक मकान के सामने खड़े होकर कहा
‘हाँ! इस मकान की भी अपनी कहानी है। दरअसल इसमें एक यहूदी परिवार ही पहले से रहता था। उसमें एक बच्चे को न जाने क्या सूझी, उसने बाहर की दीवाल पर अपनी थूक से एक ‘स्वास्तिका’ बना दिया। जब नाज़ी आए, तो इस मकान में गए ही नहीं! वे बच गए’, उसने कहा
‘बाकी मकानों में अगर ईसाई रहते थे, तो वे कहाँ गए?’, मैंने पूछा
‘उन्हें यहूदी मुहल्ले में बेहतर मकान दिए गए, जो यहूदियों ने खाली किए थे’
‘अच्छा! एक तरह से विभाजन कर दिया गया। यहूदी गेत्तो से बाहर बाज़ार निकलने के लिए कोई पहचान-पत्र चाहिए होगा’, मैंने कहा
‘बाहर निकलने की इजाज़त नहीं थी। उन्हें लगभग तीन सौ कैलोरी बराबर भोजन दिया जाता था। आप समझ सकते हैं कि इससे अधिक भोजन तो कुत्तों को चाहिए होता है’, उसने कहा
‘यह दवा की दुकान भी बहुत पुरानी लगती है’, मैंने एक दुकान को देख कर पूछा
‘आपने बहुत सही ग़ौर किया। यह एक स्लाव व्यक्ति चलाते रहे। जब उनसे एस एस ने दुकान बंद करने कहा, उन्होंने कहा- यहूदी नस्ल तो इस दुनिया में एक रोग ही हैं। मैं इस रोग की दवा करूँगा’, गाइड ने मुस्कुरा कर कहा
‘और वह यहूदियों की दवा करते रहे…’, मैंने पूछा
‘आपने फ़िल्म में देखा होगा, जब यहूदियों को गोली मारी जा रही होती है, तो एक डाक्टर जैसा व्यक्ति उन घायलों की सेवा कर रहा होता है…’
‘और उसे किनारे कर घायल को फिर से गोली मार दी जाती है’, मैंने कहा
‘हाँ! ऐसे स्लाव थे जो यहूदियों की मदद करना चाहते थे, लेकिन उनके हाथ बँधे थे’
‘जैसे ऑस्कर शिंडलर, जिन पर फ़िल्म बनी’
‘हाँ! उनकी फैक्ट्री भी चलेंगे। लेकिन पहले एक यहूदी बच्चे रेमंड की कहानी सुना दूँ, जो इस घर में रहता था…’, गाइड ने एक खिड़की दिखा कर कहा
‘जी। सुनाइए’
‘रेमंड को एक बार इजाज़त मिली कि अपने एक स्लाव दोस्त से मिलने गेत्तो से बाहर जा सके। लेकिन जब वह वापस पुल से लौट रहा था तो उसकी माँ को गोली मार दी गयी थी। पिता को यातना कैंप ले जाया जा रहा था। वह भाग गया…’, उसने कहा
‘आज वह जीवित है?’, मैंने पूछा
‘हाँ! उन्होंने अपनी पहचान बदल ली। आप उन्हें जानते होंगे। अब वह महान निर्देशक रोमाँ पोलांस्की कहलाते हैं। उन्होंने कई फ़िल्में बनायी…’
‘पियानिस्ट!! जिसके अभिनेता को ऑस्कर मिला!’
‘जी हाँ! रोमाँ पोलांस्की वही रेमंड है’
‘शिंडलर्स लिस्ट फ़िल्म में खलनायक के रूप में अमोन गोएत नामक अफसर को दिखाया गया है, जो बेरहमी से यहूदियों को मारता है’, मैंने कहा
‘हाँ! अमोन! क्या कमाल का अभिनय किया है राल्फ फिनेस ने उस क्रूर व्यक्ति का। अमोन का एक क़िस्सा सुनिए…’, गाइड ने उत्साहित होकर अपनी बैग से एक किताब निकाली
‘यह तो जर्मन में है। शीर्षक है- अमोन! क्या उसी पर आधारित है? आवरण पर यह महिला कौन है?’, मैंने देखा कि आवरण पर एक अश्वेत महिला का चित्र था
‘यह महिला हैं अमोन गोएत की नातिन जेनिफ़र। इसकी माँ ने एक अफ़्रीकी से शादी की थी’
‘यह कैसा विरोधाभास है? जो व्यक्ति इतना नस्लवादी था कि दूसरे नस्ल की हत्याएँ करता रहा, उसकी बेटी ने अफ्रीकी अश्वेत से संबंध बनाया!’, मैंने अचंभित होकर पूछा
‘पुस्तक का उपशीर्षक देखिए। जर्मन में लिखा है- मेरे नाना मुझे गोली मार देते!’, उसने कहा
‘वाकई गोली मार देता वह तो…’, मैंने कहा
‘इससे एक क़िस्सा और याद आया’, उसने बात आगे बढ़ाई, ‘यहाँ एक यहूदी लड़की रहती थी, जिसके पास एक कुत्ता था, जिसके दो छोटे-छोटे पिल्ले थे। जब उसे मारने के लिए कतारबद्ध किया जाने लगा, तो वह उन पिल्लों को भी छुपा कर ले जाने लगी…’,
‘लेकिन क्यों? जब वह मरने ही जा रही थी, तो कुत्तों को क्यों साथ रखा?’, मैंने पूछा
‘यही बात अमोन गोएत ने भी पूछा, तो उसने कहा- मैं मरने जा रही थी तो सोचा कि इन पिल्लों को आपकी शरण में रख दूँ…दरअसल अमोन को कुत्ते बहुत पसंद थे। उस एक पल के लिए उसका दिल पसीज गया, और उसने कहा- लड़की! जाओ! तुम्हारी जान बख़्श दी’
‘हाँ! फ़िल्म में ऐसे जीवन-दान देते हुए किसी अन्य दृश्य में दिखाया है’, मैंने कहा
‘वर्षों बाद वह लड़की इस पुस्तक अमोन की लेखिका से मिलने गयी, और कहा- तुम्हारा नाना बहुत बुरा था। मैं तुम्हारा ग्लानि-बोध तो नहीं घटा सकती। लेकिन दुनिया के सबसे क्रूर व्यक्ति के जीवन में भी एक क्षण ऐसा आता है जब वह कुछ अच्छा काम कर जाता है। अमोन गोएत की वजह से हजारों जानें गयी, लेकिन वह उस एक क्षण के लिए मनुष्य बना था, जिस कारण मैं आज जीवित हूँ’
इस नरसंहार से यहूदियों की जानें बचाने में ऑस्कर शिंडलर का सानी नहीं।
गेत्तो से कुछ ही दूर मैं उस फैक्ट्री में पहुँचा, जहाँ शिंडलर नामक व्यवसायी ने यहूदियों को नौकरी पर रखा था। ऑस्कर शिंडलर, जो स्वयं नाजी पार्टी से थे, ने एस एस अफसरों को घूस खिला कर इसके लिए राजी कर लिया था। धीरे-धीरे यह फैक्ट्री उन यहूदियों का शरण-स्थल बनती गयी, जहाँ वह पूरी मेहनत से बर्तन बनाते, और जीवित रहते!
मैं जब उस सफेद इमारत में पहुँचा, तो उन तमाम यहूदियों की तस्वीर थी, जिन्हें शिंडलर ने बचाया। वर्षों बाद जब शिंडलर कंगाली के दौर में थे, इन्हीं यहूदियों ने इनकी मदद की। यह नाज़ी पार्टी से ताल्लुक रखने वाले इकलौते ऐसे व्यक्ति थे, जिन्हें जेरूसलम में दफ़नाया गया।
उनकी फैक्ट्री (जो अब संग्रहालय है) के अंदर उनकी तस्वीर के नीचे उनका कथन लिखा था-
‘आपका जीवन तभी सार्थक कहलाता है, जब आप किसी दूसरे का जीवन बचाने में भागीदार बनते हैं’
पलाज्जो यातना शिविर, क्राकू, पोलैंड
यहूदी गेत्तो से ट्राम और बस लेकर मैं इस विशाल ‘पार्क’ में पहुँचा, जहाँ अब हरियाली है, और क्राकू वासी कान में हेडफोन लगाए उसमें बने टैक पर दौड़ लगा रहे थे। ताकि वे तंदुरुस्त रह सकें। उनकी उम्र बढ़ती जाए। दशकों पहले यह खूबसूरत पार्क ही यहूदी यातना-शिविर था, जहाँ कहीं यहूदियों ने पत्थर तोड़े। जो नहीं तोड़ सके, उन्हें गोली मार दी गयी!
नाज़ियों की हार के बाद रूसी सेना ने उस शिविर की हर इमारत तोड़ कर उसे सपाट कर दिया। इस स्मृति को भुला कर इसे एक पार्क में तब्दील कर दिया। लेकिन स्मृतियाँ तो दरारों से अब भी झाँक रही हैं।
मैं जब कुछ तीन-चार किलोमीटर अंदर चल कर ऊबड़-खाबड़ रास्तों से पार्क के केंद्र में पहुँचा तो वहाँ एक चूना-पत्थर की खान दिखी। इसी खान में ‘शिंडलर्स लिस्ट’ की शूटिंग हुई थी। यही यातना-शिविर का सेट था, क्योंकि निर्देशक स्टीवन स्पीलबर्ग चाहते थे कि यह वहीं फ़िल्माया जाए जहाँ यह घटना सच में हुई थी।
खान के ऊपर आज भी वे जंग लगे लोहे के मचान हैं, जहाँ खड़े होकर अमोन गोएत उन यहूदियों पर निशाना साधता था, जो थक कर कुछ देर सुस्ताने लगते थे। ऊपर एक लाल इमारत है, जहाँ फ़िल्म में यहूदी किरदार लोहे के कब्जे बना रहा होता है। उसकी गति कम होने के कारण उसे गोली मार दी जाती है।
पूरे पार्क में बिखरे तमाम निशान दर्शाते हैं कि अमुक जगह वे खुदाई करते थे, अमुक स्थान पर आलू की सफाई की जाती थी, अमुक जगह पर ब्रश बनवाए जाते थे। वहीं कुछ दूर एक ऊँचा गोलाकार टीला दिखा। जब करीब जाकर देखा, तो वहाँ लिखा था- सामूहिक कब्रगाह (Mass grave)। यह एक बड़ा गड्ढा था जहाँ लाशें फेंक दी गयी थी!
पार्क के अंदर ही यहूदियों का एक पारंपरिक कब्रगाह भी मौजूद था, जहाँ उन यहूदियों की कब्र थी जो हिटलर के पहले दफनाए जाते रहे थे। लेकिन उन कब्रों पर कोई नाम नहीं था। वे कब्र टूटी-फूटी हालत में थे। वहाँ लिखा था कि इन कब्रों के पत्थर यहूदियों द्वारा ही उखड़वाए गए, और उन पत्थरों से शिविर की सड़क बनायी गयी। यानी यहाँ न सिर्फ़ जिंदा, बल्कि मुर्दा यहूदियों को भी प्रतीकात्मक यातना दी गयी।
ऑशविज़, पोलैंड
मेरा आखिरी पड़ाव क्राकू से आगे ट्रेन से लगभग पौने घंटे की यात्रा पर था। जहाँ अलग-अलग देशों से यहूदियों को पकड़ कर ट्रेन से ही लाया जाता था। यह ट्रेन जाकर एक बड़े अहाते में रुकती थी, जिसके बाद पटरियाँ खत्म हो जाती थी – ऑशविज़। जहाँ महज दो वर्षों में ग्यारह लाख यहूदियों को मार डाला गया। ओस्लो की वर्तमान जनसंख्या से डेढ़ गुना अधिक लोग!
मैं कुछ महीनों पहले नॉर्वे के एक व्यक्ति का पुराना साक्षात्कार देख रहा था, जो ऑशविज़ की आखिरी ट्रेन में ले जाए गए थे। कुछ दिनों बाद हिटलर की हार हुई, और भाग्य से वह बच गए।
ऑशविज़ के दो हिस्से हैं।
पहला हिस्सा अपेक्षाकृत छोटा होकर भी विशाल है। दर्जनों इमारतें हैं। प्रवेश द्वार पर एक लोहे का दरवाजा है, जिस पर लिखा है- Arbeit Macht Frie (काम करना ही मुक्ति है)। यहाँ यहूदियों को नहीं, बल्कि अन्य राजनीतिक कैदियों को रखा जाता था। मुख्यतः पोलैंड और रोमानिया के विद्रोहियों को। इस कारण वहाँ सिर्फ़ एक ही गैस-चैंबर था! इतने लोगों को मारने के लिए काफ़ी रहा होगा।
गैस-चैंबर के अंदर जाकर आज भी घुटन महसूस की जा सकती है। एक छोटी सी काल-कोठरी जिसके छत पर कुछ जालियाँ लगी है, जिससे कीटनाशक जहरीली गैस छोड़ी जाती थी। उस कोठरी के अगले ही कमरे में शवदाह-गृह था, जिसमें उन्हें ‘फटाफट’ भस्म किया जा सके।
उस गैस-चैंबर के ठीक बाहर खुले मैदान में एक फाँसी की जगह बनी थी। यहाँ उस नाज़ी व्यक्ति को फाँसी दी गयी, जो इस यातना-केंद्र का मुखिया था।
बाहर कतार में बनी लाल इमारतों को अब संग्रहालयों में तब्दील कर दिया गया है। किसी इमारत में सिर्फ़ जूतों के अंबार रखे हैं। कहीं सूटकेस के। कहीं महिलाओं के बालों के गुच्छों के ढेर। कहीं तमाम बर्तन। कहीं बैसाखियाँ। कहीं लोहा-लक्कड़, बर्तन। तस्वीरें ही तस्वीरें। अनगिनत स्मृति चिह्न अनगिनत मारे गए लोगों के। मैं शायद ही कभी जीवन में इतनी लाशों से एक साथ गुजर पाऊँ, जितना मैं महज कुछ घंटों में गुजर गया।
ऑशविज़ के दूसरे और सबसे बड़े हिस्से में जाने के लिए मुफ्त बस की व्यवस्था थी। यह कुछ किलोमीटर दूर स्थित था, और वहाँ पहुँच कर लगा कि यह मीलों लंबे खेत रहे होंगे। इसका ओर-छोर नज़र नहीं आ रहा था, और इसे एक दिन में पूरा नापना असंभव था। यहाँ वाकई लाखों लोग एक साथ रखे जा सकते थे।
वह रेलवे ट्रैक आज भी मौजूद है, जो एक दरवाजे से होकर इस अहाते में आकर खत्म हो जाती है। ट्रैक पर अब घास उग आए हैं, क्योंकि अब यह मौत की ट्रेन बंद हो चुकी है। लेकिन स्मृति रूप में वह बॉगी आज भी ट्रैक पर मौजूद है, जिससे आखिरी खेप आयी होगी।
यहाँ भी किसी छावनी की तरह कतारबद्ध मकान बने थे, जिनमें एक बड़ा कमरा था। उस कमरे में लकड़ी के तख्ते लगे थे, जहाँ यहूदियों को ठूँसा जाता था। सबसे घृणास्पद था, उनका सामूहिक शौच-स्थल। वहाँ बिना किसी दरवाजे के दर्जनों गड्ढे बने थे। उस आगार को देख कर लगा कि इन्हें गोलियों से मारने या गैस चैंबर में भेजने की ज़रूरत ही नहीं पड़ी होगी। ये तो इसी मकान में संक्रामक रोग और दुर्गंध से मर गए होंगे। पता लगा कि यह सच भी है। लोग वहीं बीमार पड़ कर मरते चले जाते।
इस भाग में कितने गैस-चैंबर थे, कहना कठिन है। कई तोड़ दिए गए थे। कई चिमनियाँ अब भी जमीन से झाँक रही थी। एक तालाब था, जिसमें अब भी राख की कालिमा नहीं गयी। कई टीले और गड्ढे थे, जहाँ सामूहिक कब्र बनी होगी। मेरे जैसे चिकित्सा-शास्त्र से जुड़े व्यक्ति के लिए भी यह सब वीभत्स था। पोलैंड में ऑशविज़ के अतिरिक्त तीन अन्य बड़े यातना-शिविर भी थे, जहाँ लाखों हत्याएँ हुई। मैं वहाँ नहीं जा सका।
मैं चलते-चलते थक गया। मेरे तलवों में सूजन आ गयी, और मैं लँगड़ाने लगा। मैं एक मकान से दूसरे मकान जाता, और हू-ब-हू वही नज़ारा दिखता। मुझे भ्रम होने लगा कि कहीं मैं फिर से उसी मकान में तो नहीं आ गया। क्या यह शृंखला अनंत है, और मैं गोल-गोल घूम रहा हूँ? यह मृत्यु का विकराल भँवर था, जहाँ शायद मुझे नहीं जाना चाहिए था।
लेकिन, यह सत्य का भँवर भी था। वह सत्य जो आज भी ज्यों-का-त्यों है। दुनिया से नस्लों, समुदायों और आस्थाओं की आपसी नफ़रत नहीं खत्म हो रही। नस्लीय श्रेष्ठता का दंभ कायम है। जो लोग ऑशविज़ से महज कुछ दूर रहते हैं, उनमें भी, और जिन्होंने यह मंजर नहीं देखा, उनमें भी। सोशल मीडिया दौर में लोग कीबोर्ड पर उंगलियाँ फिराते हुए लिख डालते हैं कि फलाने समुदाय के लोग मनुष्य नहीं, कीड़े-मकोड़े हैं, इन्हें कुचल डालिए। यहाँ तक कि कुछ यहूदियों ने स्वयं इस नस्लीय नरसंहार से क्या सीखा, कहना कठिन है। जहाँ जिसके पास कुछ शक्ति आ गयी, वह मानवीयता खोकर क्रूर बनता जाता है।
मुर्दों के टीलों पर खड़े होकर हम कितना मनुष्य बन पाएँगे, यह कोई नहीं जानता। जैसा उस लड़की ने कहा कि क्रूरतम व्यक्तियों में भी मनुष्यता का एक अंश किसी क्षण में मौजूद होता है। उन क्षणों को समेटते-समेटते शायद कुछ बेहतर, कुछ बेहतर मनुष्य लोग बनते चले जाएँ।
ऑस्कर शिंडलर भी कभी यहूदियों से नफ़रत करने वाले नाज़ी थे, जिनमें मनुष्यता आखिर लौट आयी।
Author Praveen Jha narrates his journey to the Jew holocaust sites at Krakow and Auschwitz.



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कितना वीभत्स रहा होगा वह सब
आपने स्मृतियों को जीवंत रूप में देखा
अपने शब्दों से कथा रूप में जीवंत कर दिया
मैं पढ़ते हुए ही सहम सा गया फिर तो आपकी मनोदशा समझी जा सकती है ।परंतु जिस समुदाय ने यह सब यातनाएँ झेली हैं हाल के कुछ वर्षों में विभिन्न रूपों में बच्चों बड़े बूढ़ों और महिलाओं कि मृत्यु का कारण भी बन रहे हैं
क्या बीते समय की स्मृतियाँ हमे उदार नहीं बना सकती या हम उदार नहीं बनना चाहते ।एक पक्ष अस्तित्व का संघर्ष भी है परंतु मानवीय पहलू तो हमेशा मानवीय बने रहने के लिए प्रेरित करता ही है तो फिर ऐसा क्यो नहीं हो रहा
आज के समय में सबसे अधिक जरूरत दया और करुणा की ही है ।