फ्रांज काफ़्का को मैंने कभी पढ़ा नहीं था। सुना बहुत था उनके बारे में। अक्सर आप किसी के विषय में इतना सुन चुके होते हैं कि पढ़ने की इच्छा मर जाती है। लगता है कि जब पूरी दुनिया ने पढ़ ही रक्खा है, तो मैं पढ़ कर क्या नया कर गुजरुँगा। लेकिन मन ही मन एक टीस भी रहती है कि बंदे ने आखिर लिखा क्या?
स्वयं काफ़्का ने अपने जीवन में दिन-रात लिख कर भी कभी कुछ ख़ास नहीं छपवाया। वह उन्हें छपवाने लायक समझते नहीं थे। बल्कि वह स्वयं कहते थे कि मुझे खुशी होती है जब प्रकाशक मुझे छापने से मना करते हैं। इससे बेहतरी की गुंजाइश बनी रहती है। जब वह चालीस वर्ष की अवस्था में मृत्युशय्या पर लेटे थे, तो अपने मित्र मैक्स ब्रॉड को कहा कि मेरी अधूरी रचनाएँ जला देना। उनका यह भी मानना था कि अधूरी रचनाएँ अस्तित्वहीन हैं, जिन्हें पढ़ा नहीं जाना चाहिए। मगर मरने के बाद काफ़्का की कौन सुनता? इस छपास दुनिया में वह सब छपा, जो शायद नहीं छपना चाहिए था। लेकिन काफ़्का का लिखा अगर वाक़ई नहीं छपता, तो यह भी एक गुनाह ही होता। जैसे आत्महत्या एक गुनाह है, उसी तरह कला की हत्या भी गुनाह ही तो है। दुनिया ने जब काफ़्का को पढ़ा तो मुँह से यही निकला- काश!!… काश! वह जीवित होते।
मैं ओस्लो में हो रहे नाटक ‘देन प्रोशेसेन’ (अंग्रेज़ी- द ट्रायल) से इस क़दर प्रेरित हुआ कि काफ़्का का लिखा जो भी मिला, पढ़ डाला। हालाँकि उस नाटक में सभी पात्र महिलाएँ थी, जो मूल नाटक से भिन्न थी; मगर यह इतना जानने के लिए काफ़ी था कि ये आज भी कितनी मौजू हैं।
द ट्रायल की कहानी कुछ यूँ है कि जोसेफ़ के. (के से काफ़्का?) नामक बैंक क्लर्क जब एक दिन सुबह उठता है, तो खुद को ऐसे लोगों से घिरा दिखता है, जो उसे बिना बात हिरासत में लेना चाहते हैं। न उन्हें पता है कि उसका जुर्म क्या है, न उसे ख़ुद।
ऐसा अचानक सुबह उठते ही दुनिया बदल जाना काफ़्का की कहानी ‘मेटामॉर्फॉसिस’ में भी है। जब ग्रेगर सम्सा नामक क्लर्क एक दिन सुबह उठता है, तो वह खुद को एक तिलचट्टा रूप में बदला हुआ दिखता है। एक मामूली तिलचट्टा, जिसकी अहमियत न अब दुनिया में रही, न परिवार में। कम से कम तब तक, जब तक वह एक रेंगता हुआ तिलचट्टा है।
काफ़्का एक यहूदी परिवार से थे, जर्मन में लिखते थे, प्राग में रहते थे, मगर उनकी मृत्यु हिटलर के उदय से पूर्व ही 1924 में हो चुकी थी। इसलिए इसे यूरोपीय यहूदियों के हीन-बोध से नहीं जोड़ा जाना चाहिए। बल्कि यह एक मध्यवर्गीय हीन-बोध है जो हर ऊधो-माधो में है, कि हम आखिर इस दुनिया में हैं ही क्या? हमारी औक़ात क्या है? हम किसके लिए जी रहे हैं? हमारे कर्मों से आखिर क्या हासिल हो रहा है? हम तमाम अफ़सरशाही, परिवारवाद, राजनीति आदि के मध्य कहीं सिकुड़े, दबे पड़े हैं। रेंग रहे हैं। जैसे-तैसे। हमारी इच्छा है कि कोई हमें भी देख ले, पूछ ले। कोई दो लाइक, दो कमेंट कर देता काश! बस ज़िंदगी इन्हीं छोटी-छोटी लालसाओं में कट रही है।
काफ़्का की कहानी ‘द कैशल’ का उदाहरण लें, तो उसमें जोसेफ़ के. एक भूमि सर्वेक्षण अधिकारी (अमीन) हैं। वह गाँव में ज़मीन नापने आए हैं। वहाँ एक महल है, जहाँ गाँव के राजा या ज़मींदार रहते होंगे। पूरी कहानी में यह अधिकारी उनसे एक साक्षात्कार का प्रयास करते रहते हैं, मगर उन तक पहुँच नहीं पाते। वह किसी अभेद्य दुर्ग में हैं, जहाँ तक पहुँचने के लिए न जाने कितने पापड़ बेलने होंगे। गाँव वालों को भी स्पष्ट नहीं हैं कि वह कौन हैं, कैसे दिखते हैं। वह गाँव के मालिक हैं, जो जनता की परिस्थिति और भावनाओं से कोसों दूर हैं। यह एक तरह का रूपक व्यंग्य नज़र आता है, जो दुनिया के तमाम तानाशाहों और नौकरशाहों पर तंज कसता है। लेकिन मूल बात घूम-फिर कर वही है कि तुम चाहे कितने भी तन कर रहो, तुम ‘कई लोगों’ के लिए एक मामूली व्यक्ति हो। तुम्हारी कोई औक़ात नहीं।
इसी तरह अपनी कहानी ‘अमरीका’ में मुख्य किरदार को सजा के तौर पर अमरीका निर्वासित किया जाता है। वह अमरीका में नौकरी की तलाश में भटकता रहता है (जैसे दुनिया भटक रही है)। वह इस तलाश में आखिर जबरन क़ैद भी हो जाता है, और जब वह आज़ाद होकर नौकरी करने निकलता है तो अपना नाम ‘नीग्रो’ रख लेता है जो चिर-गुलामी की उपमा है।
काफ़्का की इन अधूरी कहानियों में एक क़िस्सा बारम्बार आता है। काफ़्का दुनिया के इन ‘मालिकों’ के दरवाजे के चक्कर काटते रहते हैं। उन्हें द्वारपाल कहता है- कल आना! आज नहीं मिल सकते। वह अगले दिन फिर आते हैं तो यही जवाब मिलता है। ऐसा करते-करते वह बूढ़े हो जाते हैं, और मरने वाली अवस्था में होते हैं। आखिर वह द्वारपाल से पूछते हैं- एक बात बताओ! मैंने आज तक इस दरवाज़े से किसी को अंदर जाते या बाहर आते नहीं देखा। ऐसा क्यों?
द्वारपाल कहता है-
यह दरवाज़ा और मैं सिर्फ़ तुम्हारे लिए हैं। जिस दिन तुम मर जाओगे, इस दरवाज़े और मेरी कोई ज़रूरत नहीं रह जाएगी।
Author Praveen Jha narrates his experience about reading stories of Kafka like Metamorphosis, The Trial, The Castle and Lost in America.