हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है

Meena Kumari Satya Vyas
मीना मेरे आगे – सत्य व्यास
कुछ किरदार कभी पुराने नहीं होते। वे आज भी यहीं कहीं मौजूद होते हैं। मीना कुमारी यूँ तो सत्तर के दशक के आग़ाज़ से पहले ही दुनिया छोड़ गयी, मगर उन पर पढ़ना एक ताज़गी लिए अनुभव रहा। सत्य व्यास लिखित ‘मीना मेरे आगे’ पर बात

सत्य व्यास की किताब ‘मीना मेरे आगे’ मेरे हाथ देख कर किसी ने पूछा- इस किताब में ऐसा क्या ख़ास है?

मैंने कहा- इसमें मीना कुमारी है। 

यह जवाब मैंने इसी किताब से नकल की है। जब एक पत्रकार कमाल अमरोही से पूछते हैं कि ‘पाकीज़ा’ फ़िल्म में ऐसा क्या ख़ास है, वह यही जवाब देते हैं। 

मीना कुमारी का नाम ही काफ़ी था। 

अगर कोई मेरी बात काट कर कहे- ठीक है। मीना कुमारी तो है। मगर सत्य व्यास की कैफ़ियत का कोई नाम है?

मैं कहूँगा- मोहब्बत

यह उस तरह लिखी गयी है जैसे कोई क़ब्र में गहरी नींद सो रही मीना कुमारी के पैरों में अपनी आशिक़ी का ख़त डाल रहा हो। यह उत्तर भी मैंने फ़िल्म ‘पाकीज़ा’ के दृश्य से ही नकल की है। वहाँ राजकुमार अभिनीत किरदार ट्रेन में सोयी हुई मीना कुमारी के पैरों में एक ख़त डाल देते हैं। वह ख़त तो सभी ने सुना या पढ़ा होगा- 

“आपके पैर बहुत ख़ूबसूरत है। इन्हें ज़मीन पर मत रखिए। मैले हो जाएँगे”

जब मीना कुमारी भटकती हुई एक दिन राजकुमार के पास पहुँचती है, तो वहाँ एक डायरी मिलती है जिस पर यह सवाल होता है- इस कैफ़ियत (कंडीशन) का नाम क्या है? मीना कुमारी मन में जवाब देती है- मोहब्बत।

यह बात मैं शायद लेखन में कुछ अनुभव से कह सकता हूँ कि हम सभी कोई एक मुकम्मल कहानी कहना चाहते हैं। मगर हज़ारों पन्ने लिख कर भी वहाँ पहुँच नहीं पाते। कुछ अधूरा सा मन को कचोटता रहता है कि एक दिन लिखूँगा कोई ऐसी दास्तान जो बचपन से दिमाग के सिलवटों में छुपी हो। मैं यह नहीं कह सकता कि यह सत्य व्यास की मुकम्मल किताब है। आखिरी किताब तो क़तई नहीं है। मगर इसमें वह जज़्बा दिखता है। हालाँकि मैं आगे शायद यह कहूँ कि लेखक ज़रा और, ज़रा ज्यादा लिख सकते थे। यह कुछ यूँ मामला हो जाता है कि किताब पढ़ते-पढ़ते आप खुद मीना कुमारी के मोहब्बत में पड़ जाते हैं, और लेखक आपका रक़ीब बन जाता है। आप उसकी कमियाँ ढूँढने लगते हैं।

रोमांटिक किताबों में मेरी रुचि बहुत अधिक नहीं रही है। तारीख़ों में है। फ़िल्मी जीवनियों में। अगर पिछले कुछ सालों का बही-खाता देखूँ तो मैंने लता मंगेशकर, वहीदा रहमान, रेखा, किशोर कुमार, संजीव कुमार, गुरुदत्त, एम जी आर और राजेश खन्ना पर किताबें पढ़ी। उनमें कुछ कहानियों में वह छवि दिखी थी, जो मीना कुमारी की कहानी में दिखती है। कहीं किसी सुपरस्टार के सितारे गर्दिश में जाना। कहीं तन्हाई में शराब पीते हुए कम उम्र में मर जाना। कहीं यूँ ही एक कमाल के अभिनेता का काल के गाल में समा जाना। प्रेम-विरह के युग्म तरह-तरह के। 

मगर लेखनी की विशेषता तो यही होती है कि जिस विषय में रुचि न हो, वहाँ वे खींच कर ले जाएँ। जैसे सोचिए कि कोई कलकत्ते के नकचढ़े मिज़ाज के ‘भद्रमानुष’ हों, जिन्हें इश्क-मोहब्बत ख़ामख़ा लगते हों। वह किताबों में डूबे रहते हों, कॉफी हाउस में बैठ देश-विदेश की बातें करते हों। एक दिन उनके कानों में कोई मीठी सी आवाज़ आए। राग बिहाग की एक बंदिश जो वह अभिजात्य मंचों पर सुन चुके हों। वह उस मनोहारी आवाज़ को सुन सीढ़ियों से चढ़ते हुए अंदर दाख़िल होते हैं तो देखते हैं कि वह  तवायफ़-ख़ाने में खड़े हैं। उन्हें पहले शर्म आती है, फिर ग्लानि होती है। वह सोचते हैं कि भला उन मोटी किताबों में  रक्खा है, अगर मोहब्बत का ही इल्म न हुआ?

यह किताब एक जीवनी नहीं है। अंग्रेज़ी किताबों में मैं एक श्रेणी देखता हूँ- अनऑथोराइज्ड बायोग्राफ़ी। मुझे इस नामकरण से आपत्ति है। लगता है जैसे ज़मीन अपनी नहीं हो, जबरन दख़ल कर ली गयी हो। अनऑथराइज्ड क्या होता है? जीवनी लिखने में किनसे दस्तख़त कराने होंगे? लेकिन अगर इस किताब का अंग्रेज़ी अनुवाद होता है, तो वे लोग शायद इसे इसी श्रेणी में डाल देंगे। कहने वाले तो मीना कुमारी को भी कमाल अमरोही की अनऑथराइज्ड पत्नी कहते होंगे; मगर इस किताब को पढ़ कर और किताब में ही कमाल अमरोही की लिखी साफ़गोई पढ़ कर समझ जाएँगे कि ये किसी ऑथराइज्ड से बड़ा रिश्ता था। उसी तरह यह किताब भी किसी प्रमाण, किसी हस्ताक्षर की ज़रूरत नहीं रखती। किताबी किताबें कभी-कभी इतनी किताबी हो जाती हैं कि किताब ही नहीं रहती। बाकी संदर्भ सूची तो है ही। 

इस किताब के दो खंड हैं। पहले 138 पृष्ठ सत्य व्यास ने लिखे हैं, जो मेरे ख़याल से उनके किताबों की औसत मोटाई रहती है। आखिरी के सत्तर पृष्ठ मीना कुमारी को क़रीब से जानने वालों ने लिखा है। जैसे राजेंद्र कुमार, अशोक कुमार, नरगिस, प्रदीप कुमार, ख़्वाजा अहमद अब्बास, और स्वयं कमाल अमरोही ने। ये सत्तर पृष्ठों का संकलन अपने-आप में बेशकीमती है, जो बंद बक्सों से निकल कर आयी है।

साधारण से साधारण दिखते संस्मरण भी आपको अंदर तक झकझोर देते हैं। ख़्वाजा अहमद अब्बास जब भी रूस जाते थे, तो मीना कुमारी के लिए गुड़िया लेकर आते थे। बच्चों के लिए गुड़िया लेकर आना समझ आता है। भला एक वयस्क अदाकारा जिन पर दुनिया ने ट्रेजडी क्वीन का तमग़ा थोप दिया हो, वह गुड़िया लेकर क्या करेगी? इस सवाल का जवाब इस किताब में है। इस सवाल का भी कि ट्रेजडी क्वीन तमग़ा आखिर अधूरा क्यों।

नरगिस ने यह क्यों लिखा- “चलो अच्छा हुआ। मर गयी मीना”

अशोक कुमार ने लिखा- “जिस बीमारी का कोई इलाज न हो, उसका इलाज है मौत”

भला कोई इस तरह भी शोक संदेश लिखता है? मगर जब आप इन संदेशों को पढ़ेंगे तो कहेंगे ये दुनिया के सबसे खूबसूरत शोक-संदेश हैं। ये सभी लोग मीना कुमारी से अपनी-अपनी नज़र में मोहब्बत करते थे। जैसा नरगिस ने लिखा कि उन्होंने किसी का कभी बुरा नहीं किया, सिवाय एक के। यह एक कौन था, यह भी यहाँ नहीं बताऊँगा। किताबों पर बात का उद्देश्य उसके लिए प्यास जगाना है, बेतरतीबी से किताब का रेडीमेड जूस बना कर पिलाना नहीं।

अब बात करता हूँ उन पहले 138 पन्नों के, जो सत्य व्यास ने लिखे। अपनी खुद की पिछली किताबों से बेहतर लिखे? इसी तरह की दूसरी किताबों से बेहतर लिखे?

जहाँ तक सत्य की पिछली किताबों की बात है, वह ‘नयी वाली हिंदी’ ब्रांड कही जाती है, जिन पर बेवसीरीज़ आदि भी बनी। मैंने तीन किताबें पढ़ी हैं। उनका कलेवर और उद्देश्य अलग है। एक बार फ़िल्म अभिनेत्री आयशा ताकिया नागेश कुकूनूर की फ़िल्म में आयी, तो एक अंग्रेज़ी समीक्षक ने लिखा- ‘अब तक कहाँ ख़ामख़ा कमर मटका रही थी यह प्रतिभा? उसे तो इस तरह की फ़िल्में करनी चाहिए’ 

मुझे यह बात बेतुकी लगी। दोनों के दर्शक अलग हैं, उद्देश्य अलग हैं, ज़रूरतें अलग हैं। ख़ूबसूरती यह है कि दोनों उसी जज़्बे से निभा सके। मैं ‘क्या लिखना बेहतर’ डिबेट में न पड़ते हुए कहूँगा कि यह एक नयी शुरुआत है, नया आयाम है, जिसमें उन्होंने शिद्दत से काम किया है। मुझे लगता है कि वह इस कड़ी में कुछ और भी भविष्य में लाएँगे।

अब रहा दूसरा प्रश्न कि अन्य (अंग्रेज़ी) किताबों के मुक़ाबले कैसी है? पहला हासिल तो भाषा ही है। अंग्रेज़ी में लोग लिख तो देते हैं, मगर आधी बातें फ़ोनेटिक्स में ही उलझ जाती है। जो बातें हिंदुस्तानी ज़बान में हुई हो, जिसका उच्चारण यहाँ का हो, जो चिट्ठियाँ नस्तालीक़ में लिखी गयी, वह भला अंग्रेज़ी में किस तरह आएगी? देवनागरी में लिखी जा सकती है, क्योंकि उसका कुछ तरीका बन चुका है, और भाषा के तौर पर एक ही है। 

सत्य व्यास ने बहुत ख़ूबसूरती से उस भाषा को रखा है, जो मीना कुमारी और कमाल अमरोही के परिवेश से मेल खा सकती है। बाकी मीन-मेख तो निकलते रहेंगे, क्योंकि कुछ अल्फ़ाज़ लोगों को समझ नहीं आएँगे, कुछ में वर्तनी या प्रयोग दोष ढूँढ लेंगे। मसलन मैं एक प्रिंट त्रुटि की ओर ध्यान दिला देता हूँ जो पृष्ठ 52 पर है। वहाँ नस्तालीक़ में ‘अनारकली’ दायें से बायें छप गया है, देवनागरी में ठीक है।

त्रुटियाँ ढूँढते हुए एक सवाल यह कौंधा जिसके जवाब के लिए मैं फिर से किताब पलटूँगा। किताब में इस बात का ज़िक्र दो दफ़ा है कि कमाल अमरोही ने निक़ाह के बाद मीना कुमारी को अंग-प्रदर्शन करने से मना कर दिया था। इसके लिए बाक़ायदा शर्तनामा दर्ज़ करायी गयी। उदाहरण के लिए मीना कुमारी की एक तस्वीर भी किताब में है, जिसमें उनके स्नान से निकलने का चित्र है, कंधे खुले दिख रहे हैं। मुझे इस कथन में कोई तकनीकी दोष नहीं लगता, क्योंकि उन दिनों ऐसी चीजें हुई होगी। स्वयं कमाल अमरोही ने भी इस पर स्पष्टीकरण दिया है। मगर मुझे इन दोनों की कालजयी कृति ‘पाकीज़ा’ का ही एक दृश्य याद आता है (दुबारा देख कर ताक़ीद की), जिसमें मीना कुमारी नहा रही होती हैं और कंधे दिख रहे है।

दुबारा पाकीज़ा देखते हुए यह लगा कि सत्य व्यास की इस किताब को पढ़ते हुए यह फ़िल्म भी हर पाठक एक बार देख लें। उसमें छुपे कई बिंब जो पहले नज़रअंदाज़ हो गए, वह शायद स्पष्ट हो जाएँ। जैसे उन्हें दिया गया सोने के पिंजरे में पंछी का तोहफ़ा। जैसे रात को तीन बजे जाग कर किसी के आने का इंतज़ार करना। जैसे कटी पतंग। जैसे एक अभिजात्य व्यक्ति का निकाहनामा। जैसे ट्रेन का जिस स्टेशन पर रुकना, उसका नाम सुहागपुर हो। जैसे कश्ती के टूट कर साहिल से टकराना। जैसे एक मशहूर अदाकारा का एक दिन वीरान क़ब्र में दफ़न हो जाना, और किसी का उसकी तलाश में ज़िंदगी गुजार देना। आज तो यूट्यूब की सुविधा है, अन्यथा इस किताब के साथ वह सीडी लगा कर दी जा सकती थी।

एक नौजवान जिसने न मीना कुमारी की फ़िल्म देखी हो, न कोई रुचि हो, वह भला यह किताब क्यों पढ़े? इसका सीधा जवाब तो मेरे पास नहीं, मगर मेरे ख़याल से लेखक ने यह प्रश्न मन में सोच रखा था। उन्होंने इसे पठनीय बनाने में कोई कसर नहीं छोड़ी। यह एक मज़बूत प्रेम-कथा बन कर उभरती है, जिसमें मीना कुमारी और कमाल अमरोही या धर्मेंद्र आदि पात्रों की तरह आते हैं। इसे पढ़ने के लिए उन्हें जानना ज़रूरी नहीं। लेकिन इस किताब को पढ़ कर ढूँढेंगे ज़रूर कि कौन थी वह? 

जैसे कमाल अमरोही अपनी बुलंद आवाज़ में अल्लामा इक़बाल का शे’र कहते हैं-

“हज़ारों साल नरगिस अपनी बेनूरी पर रोती है

बड़ी मुश्किल से होता है चमन में दीदावर पैदा”

 

Author Praveen Jha narrates his experience about book Meena Mere Aage published by Vani Prakashan and written by Satya Vyas.

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