किसान खंड 4- मेरठ

Mahendra Singh Tikait
Mahendra Singh Tikait
मेरठ किसान सत्याग्रह आज तक के सबसे लंबे सत्याग्रहों में है। इसी से महेंद्र सिंह टिकैत को वह ज़मीन भी मिली जिसके बदौलत वह दिल्ली कूच कर सके। इस खंड में चर्चा उसी आंदोलन की

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ये शहर के अंग्रेज़ी स्कूल से पढ़े लोग चालीस साल से हम अनपढ़ किसानों पर राज कर रहे हैं। उनको कोई हक नहीं है हम पर राज करने का

– महेंद्र सिंह टिकैत (1988, मेरठ)

शामली के बाद टिकैत ने यह अनुभव किया कि किसानों के लिए एक स्थान पर लम्बे समय तक धरना देना कठिन होता है। उनके मवेशी कौन देखेगा? उनको भोजन कौन देगा? ज़मीन पर रहने-सोने की तो ख़ैर किसानों को आदत थी। मगर अब कड़ाके की ठंड आ चुकी थी, और ऐसे में धरना देना कठिन था। लेकिन, जनवरी के महीने में ही टिकैत ने सभी किसानों को लेकर मेरठ जाने का निर्णय लिया। मेरठ बड़ा शहर था, और दिल्ली के क़रीब था। वहाँ से मीडिया में खबर जल्दी पहुँचती। 

1988 की जनवरी में रातों-रात हज़ारों किसानों ने आकर मेरठ कमिश्नरी को घेर लिया। यह इलाका मेरठ का प्रशासनिक इलाका है, जहाँ अधिकांश अधिकारियों के आवास हैं। वहीं दूसरी तरफ़ मेरठ कैन्टोनमेंट है। ऐसी जगह अगर हाथ में हुक्का लिए, पगड़ी बाँधे किसान आकर बैठ जाएँ, तो शहर ही रुक जाए। जनता को उम्मीद थी कि ये किसान दो-चार दिन में थक कर लौट जाएँगे। लेकिन, इन किसानों के लिए क्या ठंड, क्या दिन, क्या रात!

इस बार टिकैत ने वह शैली अपनायी, जो आने वाले कई किसान आंदोलन की शैली बन गयी। किसान अब अपनी रसद, लकड़ियाँ, कम्बल आदि सब बांध कर चलते। अगर महीना-दो महीना भी धरना देना पड़ा, तो उनके पास पर्याप्त भोजन होता। इतना ही नहीं, वे अपने मवेशी भी साथ ही लेकर चलते। एक तरह से पूरा गाँव ही बसा दिया जाता। इस तोरण को भेदना किसी पुलिस-बल के लिए कठिन होता। आंदोलन से पहले टिकैत किसानों को एक समर्पण पत्र पर अंगूठा लगवाते, कि वह जान भी देने को तैयार हैं। यह बालियान खाप का अपना समर्पण पत्र भी था, जो उनके पिता ने आज़ादी से पहले बनवाया था। 

टिकैत ने कहा, “यहाँ उन पागलों की ही जगह है जो अंत तक लड़ेंगे। ज्यादा सोचने-समझने वाले घर लौट जाएँ।”

एक किसान ने कहा, “यह सरकार हमारी बात नहीं मानती, हमें तो ऐसे भी मरना है। अगर बाबा टिकैत के लिए पुलिस की गोली खाकर मरना पड़ा, हम मरेंगे। हमें फसल जलाने कहेंगे या पटरी उखाड़ने, हम हर तरह की क़ुर्बानी के लिए तैयार हैं।”

टिकैत जनता को जोड़ने के लिए धार्मिक लहजा भी लाते। वहाँ ‘हर हर महादेव’ से ‘अल्लाह-हू-अकबर’ जैसी हुंकार भरी जाती। हिन्दू और मुसलमान किसान मिल कर हुंकार भरते। मेरठ में किसानों के जमावड़ों के नाम ‘राम गढ़’ और ‘हनुमान गढ़’ जैसे रखे गए। यहाँ तक कि आंदोलन के दौरान यज्ञ भी किए गए। टिकैत का मानना था कि अपने-अपने धर्म से जुड़ते ही किसान समर्पित हो जाते हैं। 

टिकैत अक्सर कहते, “हम धर्मयुद्ध लड़ रहे हैं।”

इस धर्मयुद्ध का अर्थ हिंदू-मुसलमान के मध्य युद्ध नहीं था, बल्कि ये दोनों धर्म साथ मिल कर अन्याय के ख़िलाफ़ युद्ध लड़ते। उन्होंने एक मुसलमान किसान हाफ़िज़ ख़लील अहमद को किसानों को सम्बोधित करने कहा। इस आंदोलन में महिलाओं ने भी बढ़-चढ़ कर भाग लिया।

माहौल बनने के बाद टिकैत मुद्दे पर आए और कहा, “ये चीनी मिल वाले हमारा गन्ना लेकर चीनी बनाते हैं। शराब बनाते हैं। सरकार को मोटा टैक्स भरते हैं। सरकार का खजाना बढ़ता है। हम गन्ना उपजाने वालों को क्या मिलता है?”

वह सरकारी ख़रीद दरों में बढ़ोत्तरी और बिजली दरों में कटौती पर बल दे रहे थे। इस घटना को जब मीडिया ने हवा दी और उनका धरना लंबा खिंचता गया तो आस-पास के जिलों और राज्यों से भी किसान आकर जुटने लगे। मुरादाबाद और सहारनपुर के किसान भी जागृत हो गए। पक्ष-विपक्ष के राजनैतिक नेता, समाजसेवी, बुद्धिजीवी, धर्मगुरु और तमाम पत्रकार भी जुटने लगे। आश्चर्यजनक रूप से वामपंथी संगठनों ने दूरी बना कर रखी। हालाँकि स्वामी अग्निवेश वहाँ पहुँचे। नरसिम्हा राव के करीबी रहे तांत्रिक चंद्रा स्वामी आए। जामा मस्जिद के शाही इमाम अब्दुल्ला बुख़ारी ने आकर मुसलमानों को एकजुट होकर साथ देने कहा। 

हेमवती नंदन बहुगुणा और मेनका गांधी जैसे राजनेता भी पहुँचे, लेकिन उनको धरना में शामिल नहीं होने दिया गया। यहाँ तक कि चौधरी चरण सिंह की विधवा गायत्री देवी को मंच नहीं दिया गया। विश्वनाथ प्रताप सिंह के लिए स्वयं महेंद्र सिंह टिकैत मंच से उतर कर मिलने जरूर आए, लेकिन उनको भी यही अनुरोध किया कि इसे राजनीति से दूर ही रहने दें। उस समय विश्वनाथ प्रताप सिंह कांग्रेस से अलग होकर और राजीव गांधी पर बोफ़ोर्स घोटाले का आरोप लगा कर जनता में काफ़ी लोकप्रिय हो रहे थे। ज़ाहिर है, टिकैत के लिए भी वह एक सम्माननीय हस्ती थे। 

मेरठ में टिकैत ने यह सिद्ध कर दिया कि किसानों को चौधरी चरण सिंह का उत्तराधिकारी मिल गया है!

मुख्यमंत्री वीर बहादुर सिंह अभी भी हवा में ही थे। उन्हें लगा कि ये किसान ठंड में टिक ना पाएँगे। उन्होंने 6000 पुलिसकर्मियों को धरना रोकने के लिए तैनात कर दिया। पुलिस थक कर घर लौट गयी, मगर किसान नहीं लौटे। उस समय के जिलाधिकारी के अनुसार कम से कम अस्सी हज़ार किसान वहाँ मौजूद थे, और हज़ारों रोज आते-जाते रहते थे। पहले दस दिन  में ही छह किसानों की मृत्यु हो गयी, और उनके शरीर को हरे झंडे में लपेट कर धरना-स्थल पर रखा गया। ये चित्र जब अख़बार में आए, पूरे देश की सहानुभूति किसानों के साथ हो गयी। नैनीताल से ट्रैक्टर भर कर सेब और गाजर के हलवे बन कर आने लगे। आखिर मुख्यमंत्री को दमन करने के बजाय चिकित्सकीय टीम को वहाँ तैनात करना पड़ा ताकि अब किसी किसान की मृत्यु से मामला न बिगड़ जाए।

किसान यूनियन ने माँगे रखी-

  1. पिछले वर्ष सूखे की वजह से किसानों को बहुत घाटा हुआ। उनके कर्ज और बिजली बिल माफ़ कर दिए जाएँ। बिजली सस्ती दी जाए।
  2. गन्ने की सरकारी खरीद कीमत 27 रुपए प्रति क्विंटल से 35 रुपए की जाए।
  3. किसानों के बच्चों को सरकारी नौकरी में आरक्षण दिया जाए।
  4. किसानों को सरकारी वृद्धावस्था पेंशन मिले
  5. अनाज के मूल्य निर्धारण समिति में किसानों को शामिल किए जाए।
  6. सरकार द्वारा अधिग्रहण की जाने वाली जमीन के दाम बेहतर मिलें।
  7. किसानों को आग जलाने की लकड़ी के लिए पेड़ काटने दिए जाएँ।
  8. किसान आंदोलनकारियों पर से अभियोग हटाए जाएँ। 

वीर बहादुर सिंह ने माँग सुन कर कहा, “बिजली बिल माफ़ करने से सरकार को 900 करोड़ का घाटा होगा। गन्ना का मूल्य बढ़ाने से 200 करोड़ का। चीनी मिल तो ऐसे ठप्प ही पड़ जाएँगे। हम कैसे यह माँग मान लें? हम किसी भी राज्य से अधिक ही किसानों के हित में काम कर रहे हैं। हमारी भी सीमाएँ हैं।”

मुख्यमंत्री टस से मस होने को तैयार नहीं थे, और किसान भी अपनी माँगों पर अड़े थे। गाँव वाले आक्रामक हो रहे थे।

एक किसान ने खड़े होकर कहा, “ये नेता अपने बेटे-बेटियों की शादियों और छुट्टियों में करोड़ों उड़ाते हैं और हम किसानों के लिए इनके पास पैसे नहीं? हमारे बच्चे पुलिस में जाते हैं तो दस हज़ार नकद घूस माँगते हैं। फौज में भर्ती के लिए पंद्रह हज़ार। हमने क्या कोई जुर्म किया है? हम क्या कोई ग़लत माँग रख रहे हैं?”

किसानों ने सड़कें और ट्रेन यातायात रोकने का निर्णय लिया। वे पटरियों पर जाकर लेट गए। सड़क यातायात भी ठप्प पड़ गया। आम जनता को तमाम दिक़्क़तें आने लगी। यह आंदोलन अब हिंसक बनता जा रहा था। रजबपुर में पुलिस ने फ़ायरिंग कर दी, जिसमें पाँच किसानों की मृत्यु हो गयी और 108 घायल हुए।

इस हिंसा को देख कर टिकैत द्रवित हो गए। 25 दिन से चल रहा यह धरना उन्होंने बंद कर दिया। माँगें अभी पूरी नहीं हुई थी, किसान आक्रोशित थे, लेकिन उन्हें लग गया कि हिंसा बढ़ने से बात बिगड़ सकती है। किसानों को भी अपने फसल देख-रेख के लिए ही लौटना ही था। 

टिकैत ने कहा, “हम अभी गाँव लौट रहे हैं। लेकिन हम न बिजली बिल देंगे, न सरकार को कोई टैक्स देंगे, न किसी पुलिस वाले को गाँव में घुसने देंगे। हम यह लड़ाई अपने खेत, अपने गाँव से लड़ेंगे।”

टिकैत ने स्वयं दो साल से बिजली बिल नहीं दिया था। आस-पास के गाँव वालों ने भी बंद कर दिया। विद्युत विभाग वालों को गाँव में घुसने ही नहीं दिया जाता। शामली डिविज़न के गाँवों से जहाँ 16 लाख प्रति मास की बिजली बिल मिलती थी, अब पचास हज़ार भी मुश्किल से इकट्ठा होता। इस बिजली सत्याग्रह ने वाकई घर बैठे-बैठे सरकार की कमर तोड़ दी।

गाँव पहुँच कर टिकैत ने कहा, “रजबपुर में शहीद हुए किसानों के लिए हम सभी किसान 1 मार्च को रजबपुर चल कर शहीद दिवस मनाएँगे”

उनका इरादा सिर्फ़ रजबपुर जाकर एक श्रद्धांजलि देने का था। उन्हें क्या मालूम था, यह उनके जीवन के सबसे लम्बे सत्याग्रह का रूप ले लेगा। पश्चिम उत्तर प्रदेश के हज़ारों किसानों ने वहाँ पहुँच कर एक ‘टिकैत नगर’ पंचायत ही बिठा दिया। इतनी बड़ी भीड़ को देख कर टिकैत उत्साहित हो गए। 

उन्होंने कहा, “6 मार्च से हम सत्याग्रह पर बैठेंगे। हम गिरफ़्तारी देंगे, लेकिन हम कोई लड़ाई-झगड़ा नहीं करेंगे। जब तक सरकार रजबपुर के शहीदों को इंसाफ़ नहीं देती, हम सत्याग्रह जारी रखेंगे।”

यह सत्याग्रह 110 दिनों तक चला!

इतना लम्बा सत्याग्रह तो वाक़ई महात्मा गांधी ने भी नहीं किया था। 8 जून को सरकार ने रजबपुर गोली कांड की न्यायिक जाँच कराने के आदेश दिए। 23 जून को सत्याग्रह ख़त्म हुआ। इस मध्य 9507 किसानों ने गिरफ़्तारी दी और पाँच किसानों की मृत्यु हुई। वीर बहादुर सिंह का मुख्यमंत्री पद छिन गया, और नारायण दत्त तिवारी मुख्यमंत्री बनाए गए। 

यह पहला मौक़ा था जब एक किसान की वजह से किसी मुख्यमंत्री की कुर्सी छिन गयी हो। ऐसे और भी मौक़े आने वाले थे, जब टिकैत मुख्यमंत्री पद पर बिठाने और उतारने का माद्दा रखते। यह अकेली टिकैत की नहीं, उन तमाम किसानों की ताक़त थी जो अब एकजुट थे। 

इस मध्य एक बार वीर बहादुर सिंह ने उन्हें गिरफ़्तार भी करना चाहा मगर टिकैत ने धमकी दी, “अगर हमें जेल भेजोगे तो गाँव वाले क्या करेंगे, इसका जिम्मा भी आप ही लेना”

17 सितम्बर 1988 को सिसौली में फिर से पंचायत बैठी। वहीं यह फ़ैसला होना था कि अब अगला धरना कहाँ होगा। लखनऊ में उत्तर प्रदेश सरकार बैठती थी, जहां मुख्यमंत्री ने पहले भी आमंत्रित किया था।  

टिकैत ने कहा, “लखनऊ तो दूर है। हम सीधे राजीव गांधी के घर जाएँगे। हम दिल्ली जाएँगे।”

(आगे की कहानी खंड 5 में)

Author Praveen Jha narrates the events during Merath farmer protest led by Mahendra Singh Tikait

 

 

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